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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, July 17, 2022

संस्मरण | चवन्नी चर्चा | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


संस्मरण
चवन्नी चर्चा
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
             बिटकाईन करेंसी के जमाने में चवन्नी-अठन्नी की चर्चा किसी परिकथा से कम नहीं लगती। जब इन सिक्कों को याद करो तो ऐसा अनुभव होता है मानो इन सिक्कों का चलन में पाया जाना कई सदी पहले की बात हो। जबकि यही चवन्नी हमारा चमकीला जेब खर्च थी। चार आने का एक सिक्का चवन्नी कहलाता था। चवन्नी का सिक्का उपलब्ध न होने पर दस पैसे के दो सिक्के और पांच पैसे का एक सिक्का भी चवन्नी की श्रेणी में आता था। लगभग दो-ढाई फुट की ऊंचाई वाली छोटी बच्ची के लिए यह पर्याप्त रकम हुआ करती थी। वह बच्ची यानी मैं।
       उस समय ‘‘चवन्नियां फिंकती’’ थीं। आज तो ‘‘चवन्नी फिंकना’’ लुप्त हो चले मुहावरों की श्रेणी में शामिल हो गया है। यह चवन्नी भी हर जगह नहीं फेंकी जाती थी। चवन्नियां फेंकने या उछालने का चलन सिनेमाघरों में था। जब हीरो खलनायक की जम कर ठुकाई करता तो दर्शक खुश हो कर तालियां और सीटियां बजाते किन्तु जब कोई मुज़रा टाईप का गाना पर्दे पर आता तो मनचले किस्म के लोग स्वयं को कोठे पर नृत्य देखने वाले सेठ-साहूकार जैसा महसूस करते हुए सिनेमा के पर्दे की तरफ चवन्नियां उछालते। पन्ना शहर में उस जमाने की इकलौती टाॅकीज जिसका नाम था कुमकुम टाॅकीज़ वस्तुतः शानदार टाॅकीज़ थी। पन्ना के महाराजा ने महारानी कुमकुम के नाम पर उस टाॅकीज़ को बनवाया था। टाॅकीज़ में थर्ड क्लास से ले कर बाॅक्स तक की श्रेणियां थीं। ज़ाहिर है कि बाॅक्स की टिकट सबसे मंहगी और थर्ड क्लास की सबसे सस्ती होती थी। टाॅकीज में लेडीज़ क्लाॅस अलग थी। महिलाओं के लिए टिकट विडों अलग थी। टिकट बेचने वाला पुरुष होता था किन्तु दरवाज़े पर महिला गेटकीपर होती थी ताकि किसी भी महिला से कोई किसी तरह की अभद्रता न कर सके। बाॅक्स के दो खंड थे। एक आम जनता के लिए और दूसरा सिर्फ़ राजपरिवार के सदस्यों के लिए। दूसरे वाले बाॅक्स का दरवाज़ा लेडीज़ क्लाॅस की गैलरी की ओर था। वह इसलिए कि जब राजपरिवार की महिलाएं सिनेमा देखने आएं तो उनके कार से उतर कर गेट से अंदर जाने के दौरान उन्हें महिलाएं ही देख सकें, पुरुष नहीं। वे पर्देदार बंद कार में आती थीं। खैर, इसके आगे की चर्चा फिर कभी, अभी मैं चर्चा कर रही थी चवन्नी की। जब टाॅकीज में थर्ड क्लास में बैठे दर्शक चवन्नियां फेंकते तो इस बात का ध्यान रखा जाता कि उनका निशाना सिनेमा के पर्दे की ओर ही रहे, महिलाओं की ओर नहीं। यदि कभी कोई भूल से ऐसी हरकत कर देता तो टाॅकीज के सजग कर्मचारी उसे तत्काल काॅलर पकड़ कर बाहर ले जाते। फिर बाहर उसके साथ जो होता, वह आप समझ सकते हैं। शायद ऐसी ओछी हरकत करने वालों से ही ‘‘चवन्नी छाप’’ मुहावरा बना होगा। बहरहाल, चवन्नी का यह सिनेमाई महत्व मुझे बड़े होने पर पता चला।


उस जमाने में चवन्नी भले ही मनचलों के लिए फेंकने या उछालने की चीज थी लेकिन हम बच्चों के लिए एक बेहतरीन जेब खर्च था। मुझे याद है कि शायद पहली कक्षा में थी। तीन-चार पीरियड के बाद छुट्टी हो जाया करती थी। मैं घर आ जाती। घर पर मेरे नानाजी मुझे होमवर्क कराते और आगे के गिनती-पहाड़े याद कराते। मेरे घर की हिरणबाग काॅलोनी के परिसर में ही शासकीय मनहर उच्चतर माध्यामिक कन्या विद्यालय की प्रायमरी कक्षाएं लगती थीं। छठवी, सातवीं और आठवीं। जब स्कूल का लंच टाईम होता था तो मेनगेट पर स्नेक्स बेचने वाले आ जाते थे। उस समय आजकल जैसा स्नेक्स नहीं होता था। एक ‘चना जोर गरम’ वाला आता था। एक अधेड़ आयु की महिला उबले और सूखे बेर बेचती थी। तीसरा विक्रेता वह था और जिसकी मैं प्रतीक्षा करती थी, उसका नाम चतुभुर्ज था। हम बच्चे उन्हें ‘चतुर्भुज मामा’’ कह कर पुकारते थे। उन दिनो ‘अंकल’ कहने का चलन कम था। उनके पास एक हाथठेला था जिसमें उन्होंने सायकिल के पहिए और पैडल लगवा लिए थे। जिससे उन्हें ठेले को अपने हाथों से धकेलना नहीं पड़ता था। वे पैडल चला कर अपने ठेले को हर जगह ले जाते थे। उनके ठेले पर तरह-तरह के नमकीन रहते थे। कुछ मिठाइयां भी रहती थीं, जैसे पेड़ा और बेसन के लड्डू जिन्हें वे ‘मगज के लड्डू’ कहा करते थे। शेष ठेला नमकीन की वैरायटी से भरा होता था, जैसे- मूंग की दान, मसूर की दाल, चूड़ा, तली मूंगफली, भुनी मूंगफली, गाठिया, मोटे-पतले सेव आदि। वे इन्हें अलग-अलग भी बेचते थे और ग्राहक के कहने पर मिक्स कर के भी बेचते थे। उनमें से मेरी पसंद थी चूड़ा जो दरअसल डीपफ्राई पोहा होता था। वे उस चूड़े के लिए दो-तीन तरह के नमक और मिर्च-मसाले रखते थे। ग्राहक को देते समय उनकी पसंद के अनुसार वे उस पर नमक और मिर्च-मसाले डालते। वे अखबार के छोटे-बड़े चैकोर टुकड़े काट कर रखते थे और उसी में पुड़िया बना कर नमकीन-मिठाई बेचते थे।
स्कूल के लंच टाईम पर मैं भी दौड़ कर उनके ठेले के पास जा पहुंचती। उन दिनों मां जेबखर्च नहीं देती थीं, उन्होंने तब मुझे जेबखर्च देना शुरू किया जब मैं नौवीं कक्षा में पहुंच गई। लेकिन नानाजी एक डिब्बी में अठन्नियां और चवन्नियां रखते थे और वे मुझसे कहते कि इसमें से एक चवन्नी निकाल लो और जा के अपने लिए चूड़ा ले लो। किसी और खोमचेवाले से कुछ भी खरीदना हम लोगों के लिए मना था। लेकिन चतुर्भज मामा के ठेले से खरीदने की परमीशन थी। उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने अपने ठेले पर कांच के पार्टीशन वाले बाॅक्स बनवा रखे थे और इसी के साथ लगभग पूरा ठेला मच्छरजाली से ढंका हुआ था। इसलिए उनकी हर चीज बहुत साफ- सुथरी रहती थी।
मां जानती थीं कि नानाजी मुझे रोज एक चवन्नी दिया करते हैं, लेकिन उन्होंने कभी नानाजी को टोंका नहीं। लेकिन मैं भी कम नहीं थी। मैं एक साथ पूरी चवन्नी खर्च नहीं करती थी। मैं दस या पंद्रह पैसे का चूड़ा लेती थी और बाकी पैसे बचा कर अपने पास रख लेती थी। मुझे नहीं मालूम कि नानाजी इस बात को जानते थे या नहीं। हां, एक और आदत थी मेरी कि मैं उसमें से थोड़ा-सा चूड़ा वर्षा दीदी के लिए बचा कर रख लेती थी जो उनके स्कूल से लौटने पर उन्हें देती थी। वे चूड़ा पा कर बहुत खुश होती थीं। उन्हें खुश देख कर मुझे बहुत अच्छा लगता था। इस तरह कक्षा एक से ले कर तीन तक मेरी चवन्नी की बादशाहत चलती रही। फिर स्कूल के पीरियड्स बढ़ गए। लंच टाईम के लिए लंच बाॅक्स ले कर स्कूल जाने लगी। लेकिन चतुभुर्ज मामा के ठेले से चूड़ा खरीदने का क्रम टूटा नहीं, बस, समय बदल गया। शाम को छुट्टी के समय अथवा रविवार को जब वे हाट-बाज़ार में ठेला लगाते तब वहां से मैं चूड़ा खरीदती। तब मां स्वयं मुझे पैसे और अनुमति देती थीं।
वह प्यारी-सी चवन्नी समय के साथ चलन से बाहर हो गई। लेकिन उसका जो महत्व मेरे लिए मेरे बचपन में था, उसकी जगह आज सौ, हज़ार के नोट भी नहीं ले सके हैं। बचपन की मासूम चाहतों-सी चवन्नी को मेरी तरह वह व्यक्ति कभी नहीं भुला सकता है जिसने उसे अपने बचपन में जेबखर्च के रूप में पाया होगा। अब तो ‘करेंसी म्यूजियम’ में ही चवन्नी, अठन्नी देखने को मिल सकती है, लेकिन वे कोमल अनुभव किसी म्यूजियम में नहीं मिलेंगे जो उन चवन्नियों के रूप में उन दिनों मिलते रहे।                 
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नवभारत मेंं 17.07.2022 को प्रकाशित /हार्दिक आभार #नवभारत 🙏
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