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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, July 19, 2022

पुस्तक समीक्षा | विचारों को आंदोलित करने वाला एक महत्वपूर्ण उपन्यास | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 19.07.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कथाकार विवेक मिश्र के  उपन्यास  "जन्म-जन्मांतर" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
विचारों को आंदोलित करने वाला एक महत्वपूर्ण उपन्यास
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास       -  जन्म-जन्मांतर
लेखक         -  विवेक मिश्र
प्रकाशक        -  सामयिक प्रकाशन, 3320, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज,दिल्ली-02
मूल्य           -  250/-  
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विवेक मिश्र आज हिन्दी जगत के एक सशक्त कथाकार हैं। अपने पहले उपन्यास ‘‘डोमनिक की वापसी’’ से ख्याति अर्जित करने वाले विवेक मिश्र का ताज़ा उपन्यास है ‘‘जन्म-जन्मातंर’’। यह एक ऐसा उपन्यास है जिसके कथानक का विस्तार दो महाद्वीपों ही नहीं वरन दो जन्मों तक फैला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण उपन्यास है और उपन्यास के मर्म को जानने के लिए इसके कथानक की उस गहराई में उतरना जरूरी है जो वर्तमान में व्याप्त वैचारिक कट्टरता पर तीव्रता से प्रहार करती है।

उपन्यास आरम्भ होता है डाॅ. व्योम के क्लीनिक से। गली के अंतिम छोर पर स्थित क्लीनिक। जहां शायद कोई और डाॅक्टर अपना क्लीनिक नहीं खोलता। लेकिन डाॅ. व्योम की विवशता है। उनका अनाथराइज़्ड क्लीनिक ऐसी ही छिपी हुई जगह में खुल सकता था। अनाथराइज़्ड होने के पीछे का किस्सा अलग है। पर वे अपने इस क्लीनिक में रूबी नाम की सहायिका के साथ चिकित्सा कार्य करते हैं और अपने छोटे-छोटे रोगों के लिए अनेक मरीज उनके पास आते हैं। घटनाक्रम वहां से शुरू होता है जब जाड़े की सन्नाटे भरी रात को क्लीनिक बंद कर जाते समय अचानक एक घायल व्यक्ति मिल जाता है। वे उसे अपने क्लीनिक ले आते हैं। उसकी गंभीर स्थिति देखकर अपनी सहायिका रूबी को भी बुला लेते हैं। वह घायल व्योम को पहचान लेता है और अपना नाम सीतेश बताता है। यही कथानक का मूल प्रस्थान बिन्दु है। डाॅ. व्योम के मानस में अतीत की पर्तें खुलने लगती हैं और वह शनैः शनैः रूबी से अपने और सीतेश के संबंधों तथा उन दोनों के निजी जीवन से जुड़ी हुई घटनाओं को साझा करता है। यहां से चौंका देने वाले तथ्य सामने आने शुरू होते हैं।

सीतेश को पास्ट लाईफ रिग्रेशन अर्थात् पूर्वजन्म की घटनाओं पर विश्वास है। वह अपने पूर्व जन्म के बारे में सब कुछ जानना चाहता है। वह एक डाॅक्टर के संपर्क में आता है जो पूर्वजन्म का स्मरण कराने का काम करता है। सीतेश उसके माध्यम से स्वयं के बारे में बहुत कुछ जान लेता है। उसे पता चलता हैकि वह पूर्व जन्म में एक जर्मन सैनिक था और उसने द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर की ओर से लड़ते हुए भयानक नृशंसता का परिचय दिया था। उसने एक ब्रिटिश डाॅक्टर को निर्ममता से जिंदा ही दफ़्न कर दिया था। सीतेश अपने पूर्व जन्म की पत्नी और बेटी के बारे में जानना चाहता है किन्तु उस डाॅक्टर की मृत्यु हो जाने से उसकी इच्छा अधूरी रह जाती है। तब उसकी बचपन की सहेली जिसका नाम मिली है और जिसे सभी उसकी बहन मानते (वह स्वयं नहीं) हैं, उसे प्रोत्साहित करती है और स्वयं भी पास्ट लाईफ रिग्रेशन थेरेपी सीतेश पर आजमाती है। इसी दौरान सीतेश अपने मित्र व्योम पर भी इस थेरेपी का एक्सपेरीमेंट करता है जिससे व्योम को स्वप्न की भांति अपना पूर्व जन्म दिखाई देता है जिसमें वह स्वयं को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन डिटेंशन कैम्प में ब्रिटिश डाॅक्टर के रूप में बंदी पाता है। वह डाॅक्टर अपने मारे जाने का इंतज़ार कर रहा है। अंततः वह दिन भी आ जाता है। उसके बाद के घटनाक्रम का जो विवरण व्योम सीतेश को देता है, वह उसे सुन कर वहां रुक नहीं पाता है और थेरेपी को बीच में ही छोड़ कर वहां से चला जाता है। आंख खुलने पर व्योम स्वयं को उस कमरे में अकेला पाता है।
इस कथानक के समानांतर कई कथाएं चलती रहती हैं। जैसे रूबी की कथा जो नार्थ-ईस्ट की है। उसका परिवार स्वयं के भारतीय नागरिक होने का सबूत नहीं दे पाया जबकि उनके पास पुश्तैनी जमीन थी, जिस पर वे खेती-किसानी करते थे। अवैध रूप से भारत में रहने पर पिता को गिरफ़्तार कर लिए जाने के बाद रूबी को काम की तलाश में अपनी मां के साथ अपने क्षेत्र से बाहर निकलना पड़ा। जहां कदम-कदम पर उन दोनों के साथ ऐसा व्यवहार किया गया मानो वे भारतीय नागरिक न हों। इस तरह लेखक ने रूबी के बहाने बड़ी सहजता से भारतीय नागरिकता की समस्या को सामने रखा है। कोई नारा नहीं, कोई राजनीतिक स्वर नहीं, लेकिन समस्या का व्यवहारिक रूप पाठक की आंखों के सामने दृश्यवत आ जाता है।

सीतेश को अपने पूर्व जन्म की विवशता याद आती है जब वह अपनी उस जन्म की पत्नी से कहता है कि वह चाह कर भी सेना की नौकरी नहीं छोड़ सकता है। वह अपनी पत्नी को समझाता है कि -‘‘अगर मैंने ऐसा किया तो वे जबरन मुझे ले जाएंगे। वे पहले मुझे, फिर मेरे परिवार को ख़त्म कर देंगे। हमने पहले एक विचार को चुना, फिर हिटलर को और उसकी फौज को चुना, युद्ध चुना और ऐसा करके, हमने आज कुछ भी चुनने का अधिकार खो दिया।’’ यह लिखते हुए लेखक कट्टरतापूर्ण विचारों के कटु परिणामों की ओर स्पष्ट संकेत करता है। विचारों की कट्टरता विचारों की स्वतंत्रता और लचीलेपन को छीन लेती है। यह भयावह है। यही भयावहता सीतेश वर्तमान में देखता है और उसमें शामिल होने से इनकार कर देता है। परिणाम यह कि कट्टरपंथी उसका नाम अपनी प्रमुख सूची में जोड़ कर उसे मिटा देने के लिए कटिबद्ध हैं। एक विशेष विचार के लिए दूसरे सभी विचारों को मिटा देने का उन्माद उसी राह की ओर धकेलने लगता है जिस राह पर चल कर हिटलर ने दुनिया को द्वितीय विश्वयुद्ध की आग में झोंक दिया था।

डाॅ. व्योम का साला आशीष कट्टरपंथी विचारों के पोषकों के साथ चलने लगता है जिससे व्योम के मतभेद अपनी पत्नी और साले से बढ़ने लगते हैं। जिसका अंत पति-पत्नी के अलगाव से होता है। दरअसल व्योम यह स्वीकार नहीं कर पाता है कि उसके मित्र सीतेश का नाम दण्डित किए जाने वालों की उस सूची में रहे जिसे ले कर उसका साला घूम रहा है। वह सूची फाड़ देता है। इसके बाद वैचारिक टकराव होना स्वाभाविक था। व्योम शहर छोड़ देता है और सीतेश को शहर छोड़ने पर मजबूर किया जाता है। लेखक ने यहा इस विडंबना को रेखांकित करने का प्रयास किया है कि सीतेश को पूर्व जन्म में न चाहते हुए भी वैचारिक कट्टरता और नृशंसता स्वीकार करनी पड़ती है और इस जन्म में भी उसे विवश किया जा रहा है कि वह वैचारिक कट्टरता के आगे अपने घुटने  टेक दे। यह सब देखते हुए तो यही मानना होगा कि अनेक मनुष्यों में वह ढिठाई है कि वे अपने अतीत के विघ्वंस से सबक लेना ही नहीं चाहते हैं।

उपन्यास में तमाम विमर्शों के साथ कथानकीय सूत्र पास्ट लाईफ रिग्रेशन है। पास्ट लाइफ रिग्रेशन थैरेपी एक ऐसा ही मनोवैज्ञानिक तरीका है जिसमें किसी भी इंसान को सम्मोहन के जरिए उसकी बीती जिंदगी की यादों मे ले जाया जा सकता है। पास्ट लाईफ रिग्रेशन थेरेपी के जरिए न सिर्फ किसी इंसान के पिछले जन्म की घटनाओं तक पहुंचा जा सकता है बल्कि मनोवैज्ञानिक पद्धति के द्वारा कई दिक्कतों से छुटकारा पाया जा सकता है। पास्ट लाईफ रिग्रेशन की प्रक्रिया मे इंसान को चेतना अवस्था मे परिवर्तन किया जाता है। चेतना की इस अवस्था मे इंसान की सुझाव ग्रहण करने की क्षमता मे एकदम से तेजी आ जाती है और वह सुझावों पर अमल भी करने लगता है। इसमे सम्मोहन के जरिए पिछले जन्म की घटनाओं को भी याद कराया जाता है। इसका उदेश्य इंसान की वर्तमान मानसिक समस्याओं तक पहंुचना होता है। इस थेरेपी को करने वालों के अनुसार इस थेरेपी द्वारा उस घटना तक पहुंचकर इंसान को उससे जुड़ी मानसिक परेशानी को वही छोड़ने का आदेश दिया जाता है। इससे इंसान उस पीड़ा श परेशानी दूर हो जाती है। इसमें पहली थ्योरी है, रीइंकार्नेशन यानी पुनर्जन्म। जिसमें कहा जाता है कि जब तक इंसान अपनी आत्मा का पूर्ण विकास नहीं कर लेता, तब तक वह जन्म लेता रहता है। अपनी हर एक जिंदगी में वो अलग-अलग अनुभव लेता है और विभिन्न चीजें सीखता है जो भविष्य में एक नए जन्म तक उसके साथ जाती हैं। दूसरी थ्योरी है- लॉ ऑफ कर्मा। जिसका मतलब है जो आप बोते हैं, वही काटते हैं। यानी अगर किसी के साथ आपने बुरा किया है, तो अगले जन्म में आपको इस ऋण को चुकाना होगा और उस इंसान के लिए कुछ बेहतर करना होगा। इस थ्योरी को लेकर आज तक किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सका है और वैज्ञानिक भी इस थैरेपी को पूरी तरह से स्वीकार नहीं करते हैं। फिर भी यह उन लोगों में चलन में है जो इस पर विश्वास करते हैं।
बहरहाल पास्ट लाईफ रिग्रेशन को ले कर वर्तमान जीवन की वैचारिक, राजनीतिक, दार्शनिक, सामाजिक समस्याओं को जांचने-परखने और तार्किक ढंग से उपन्यास में पिरोने का यह अनूठा प्रयास है, जो स्वागत योग्य है। क्योंकि यह किसी थैरेपी विशेष या अंधविश्वास की ओर नहीं धकेलता है अपितु उस डरावने यथार्थ को समझने का आग्रह करता है जिसकी ओर जाने-अनजाने हम बढ़ते जा रहे है। विवेक मिश्र का यह उपन्यास उनकी लेखनशैली की रोचकता और गहराई को सिद्ध करने में सक्षम है। उपन्यास में आद्योपांत जिज्ञासा बनी रहती है। उपन्यास का वह अंत जिसका मैंने उल्लेख नहीं किया है, अत्यंत चैंकाने वाला और महत्वपूर्ण है, जिसे पढ़ कर ही महसूस करना उचित है। मूलकथा के साथ कई सहकथाएं भी है जो विचारों को झकझोरती हैं और दो पल ठहर कर सोचने को मजबूर करती हैं। ऐसे ही चिंतनशील उपन्यासों की आज आवश्यकता भी है। विवेक मिश्र का उपन्यास ‘‘जन्म-जन्मांतर’’ उनके लिए भी रुचिकर है जो पूर्वजन्म पर विश्वास रखते हैं और उनके लिए भी जो सिर्फ वर्तमान जीवन पर विश्वास करते हैं। पाठकों द्वारा इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए।  
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