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My Editorials - Dr Sharad Singh

Monday, August 1, 2022

संस्मरण | वह मेंढक राजकुमार नहीं था | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

संस्मरण : 
वह मेंढक राजकुमार नहीं था
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
           बचपन में मेंढकों की अनेक कहानियां सुनी थीं। कुएं के मेंढक से ले कर मेंढक राजकुमार और मेंढकी राजकुमारी तक की कहानियां। मुझे भी अपने जीवन में एक ऐसा मेंढक मिला जिसने मेरा हृदय परिवर्तन कर दिया और मेरे जीवन की दिशा ही मोड़ दी। वह मेंढक ही था, ख़ालिस मेंढक, कोई राजकुमार-वाजकुमार नहीं। लेकिन उसने यह बता दिया कि मैं क्या कर सकती हूं और क्या नहीं। यह भी कि मेरी सहन शक्ति कितनी है। घबराइए नहीं, मेंढक कोई काटने वाला प्राणी नहीं होता है। उसने मुझे कष्ट दे कर मेरी सहन शक्ति की पैमाइश नहीं की, वह तो खुद ही कष्ट में था। 
बात उस समय की है जब मैं शहडोल जिले के बिजुरी गांव में अपने मामाजी कमल सिंह चौहान के पास एक साल के लिए रहने गई थी। दरअसल, उन दिनों मामा जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। वैसे कोई गंभीर बात नहीं थी लेकिन मेरी मां का बहनापा यह मानने को तैयार नहीं था कि उनके छोटा भाई पीलिया से ठीक होने के बाद की कमजोरी की अवस्था में अकेला रहे। मेरी वर्षा दीदी उस समय काॅलेज में पढ़ रही थीं और बिजुरी में काॅलेज नहीं था। इसलिए उनका मामाजी के पास रहना संभव नहीं था। मां स्वयं व्याख्याता थीं अतः उन्हें लम्बी छुट्टी नहीं मिल सकती थी। उन दिनों मेरे नानाजी संत श्यामचरण सिंह जीवित थे और हम लोगों के साथ ही रहते थे मगर वे  मोतियाबिंद ग्रस्त थे अतः उन्हें खुद सहारे की ज़रूरत पड़ती थी। यानी कुल मिला कर मैं ही थी जिसका 11वीं कक्षा में दाखिला होना था और बिजुरी में आदिमजाति विभाग द्वारा संचालित एकमात्र उच्चतर माध्यमिक विद्यालय था, जिसमें साईंस और आर्ट दोनों के विषय पढाए जाते थे। वर्षा दीदी ने बायोलाॅजी ग्रुप चुना था ताकि वे आगे चल कर डाॅक्टरी की पढ़ाई कर सकें। किन्तु एमबीबीएस डाॅक्टर बनना उनके भाग्य में नहीं था। जैसा कि मैंने घर में बड़ों को चर्चा करते सुन रखा था कि उन दिनों मेडिकल काॅलेज में दाखिले के लिए बहुत मोटी रकम देनी पड़ती थी, मां के लिए उतनी रकम दे पाना संभव नहीं हुआ और दीदी ने एमबीबीएस के बजाए बाॅटनी में एमएससी की ओर कदम बढ़ा दिए। लेकिन दीदी की किताबें, प्रैक्टिकल फाईल्स, उनका सोबर एटीट्यूड देख कर मुझे भी साईंस स्टूडेंट बनने का भूत सवार हो गया था। उन दिनों 9 वीं कक्षा से ही फैकल्टी और ग्रुप तय हो जाते थे। मैंने भी नौवीं से साईंस में बायो ग्रुप ले रखा था। वैसे भी मैथ्स तो मेरी आज भी बेहद कमजोर है। मैथ्स में मुझे रेखागणित ही सबसे अच्छी लगती थी, वरना मैं अंक गणित के बारे में सोचा करती थी कि यह भी कोई सवाल हुआ कि सौ लीटर वाली एक टंकी को एक नल एक घंटे में भर रहा है और दूसरा नल सवा घंटे में खाली कर रहा है तो एक घंटे बाद टंकी में कितना पानी बचेगा? कुल मिला कर यह बकवास सवाल था मेरी दृष्टि में। 
मुझे बायोग्रुप में बाॅटनी, जूलाॅजी, फिजिक्स, केमिस्ट्री चारो अच्छे लगते थे। ड्राईंग में मुझे बचपन से रुचि थी इसलिए मेरी प्रैक्टिकल फाईल में सबसे बेहतरीन ड्राइंग रहती थी। बस, अपनी ख़राब रायटिंग के कारण लेबलिंग में मुझे अधिक समय खपाना पड़ता था। उन दिनों आमतौर पर 11 वीं कक्षा से ही जूलाॅजी के प्रैक्टिकल की शुरूआत होती थी। लगभग आधा सिलेबस हो जाने पर एक दिन जूलाॅजी वाले सर ने कक्षा में घोषणा की कि अगले दिन डिसेक्शन कराया जाएगा। सभी लोग मेंढक की एनाॅटामी के बारे में अच्छी तरह से पढ़ कर आएं। यह सुन कर मुझे बड़ा मजा आया क्यों कि मुझे मेंढक की एनाॅटामी लगभग कंठस्थ थी। मैंने मेंढक की रक्तवाहिनियों, स्नायुतंत्र और अस्थियों के अनेक चित्र अपनी प्रैक्टिकल फाईल में सजा-सजा कर बनाए थे। उन दिनों मोबाईल तो दूर, फोन की सुविधा भी नगरसेठ के घर या थाने में ही थी, वरना मैं उसी समय वर्षा दीदी को फोन कर के बताती कि कल मैं भी डिसेक्शन करने वाली हूं। मैं भी डिसेक्शन करूंगी, यह सोच-सोच कर खुद को किसी बड़े साईंटिस्ट से कम नहीं समझ रही थी। मेरी कक्षाएं सुबह की शिफ्ट में लगती थीं औैर मामाजी की ड्यूटी दोपहर की शिफ्ट में रहती थी। हम लोग रास्ते में ही आपस में मिलते थे, जहां बता पाना उचित नहीं था। इसलिए उन्हें यह खुशख़बरी देने के लिए मुझे शाम पांच बजे तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। 
जैसे-तैसे दूसरा दिन आया। मुझे जूलाॅजी के पीरियड का बेसब्री से इंतज़ार था। अंततः वह पीरियड भी आ गया। सर हम सभी छात्र-छात्राओं को, यानी साईंस पढ़ने वाले कुल जमा सात स्टूडेंट्स में छः छात्र और अकेली मैं छात्रा थी, हम सभी को लेकर प्रयोगशाला पहुचें। वह स्कूल की एकमात्र प्रयोगशाला थी जिसमें बाॅटनी, जूलाॅजी, फिजिक्स, केमिस्ट्री चारो की एक-एक आलमारियां थीं और चारो विषयों के प्रैक्टिकल उसी कक्ष में हुआ करते थे।
प्रयोगशाला में टेबल पर अलग-अलग सात डिसेक्शन ट्रे रखी गई थीं। हम सर के निर्देशानुसार अपनी-अपनी ट्रे के सामने खड़े हो गए। ट्रे के बाजू में डिसेक्शन की कैंची, छुरी, कांटें, पिन्स आदि रखे हुए थे। सर एक बड़ी-सी बाल्टी ले कर आए जिसमें अर्द्धबेहोश मेंढक थे। सर ने कहा कि हम उनमें से एक-एक मेंढक उठाएं और अपनी-अपनी ट्रे में उसकी चारों टांगें पिन से टांक दें। मेंढक को नंगे हाथों से पकड़ना? उफ! ईईई! मेरी हिम्मत नहीं हुई। सर ने आंखें तरेरते हुए आदेश दिया कि ‘‘चलो उठाओ मेंढक! डिसेक्शन करना है या नहीं?’’
‘‘करना है!’’ मैंने मरे हुए स्वर में उत्तर दिया। उस समय के अनुभव को बयान कर पाना कठिन है कि मैंने कैसे मेंढक को अपने नंगे हाथों से उठा कर ट्रे में पिन किया। मुझे लगा कि इस तरह पिन करने से उसे दर्द होगा। मैंने यह बात सर से कह दी। तो उन्होंने उत्तर दिया कि अभी तो उसे चीरा लगा कर काटना है और उसके अंदर के अवयव देखना है। यह सब मेरे लिए भयानक अनुभव था। लेकिन असली टेज़ड्री तो अभी होनी बाकी थी। 
सर ने मेंढक को चीरा लगाने का तरीका बताया। यह इतनी सावधानी से करना था कि उसकी स्किन भर कटे, कोई नस न कटे। मगर मैं तो पहले से ही नर्वस थी। मेंढक की नस क्या मैं अपनी नस पर भी चाकू चला सकती थी। कांपते हाथों से मैंने चीरा लगाया। फिर वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था। पूरी ट्रे मेंढक के रक्त से भर गई। मैंने उसकी कोई नस काट दी थी। इसके बाद तो मेरा सिर चकराने लगा। सर, ने मुझे डांटा या समझाया मुझे याद नहीं। इतना याद है कि उन्होंने मुझे जा कर कक्षा में बैठने को कहा और साथ ही यह भी कि ‘‘कोई बात नहीं, कल फिर से ट्राई करना।’’
पता नहीं कितनी देर बाद मैं स्थिरचित्त हो पाई। घर लौटने पर मैंने अपने दोनों हाथ साबुन घिस-घिस कर, रगड़-रगड़ कर धोए। मगर मेंढक की वह छुवन तो मानो मेरी उंगलियों और हथेलियों में चिपक गई थी। दो-तीन दिन तक मुझसे ढंग से खाना नहीं खाया गया। रह-रह कर रक्त भरी ट्रे और उसमें मौजूद चीरा लगा मेंढक मुझे दिखाई देता था। इस घटना के बाद मैंने जान लिया कि जूलाॅजी की थ्योरी तो मैं पढ़ सकती हूं लेकिन प्रैक्टिल करने का कलेजा मेरे पास नहीं है। मैंने तय कर लिया कि 11वीं उत्तीर्ण होते ही जूलाॅजी छोड़ दूंगी। इस तरह उस मेंढक ने अपनी जान देकर मुझे मेरी हक़ीकत से परिचित करा दिया कि मैं चीरा-फाड़ी, रक्तपात देख ही नहीं सकती हूं। यह मेरे वश का नहीं है। इधर केमिस्ट्री वाले सर के जबरिया ट्यूशन फंडे के कारण केमिस्ट्री से अरुचि हो ही चली थी और अब जूलाॅजी से सन्यास की भावना जाग उठी। अतः काॅलेज में पहुंच कर साईंस से अलगाव होना तय था। काॅलेज पहुंचते ही मैं एक उम्दा आर्ट स्टूडेंट बन गई। शरारती, खिलंदड़ी और मनमौजी। अब इतिहास की किताबों में रक्तपात था, मेरी आंखों के सामने नहीं और न मेरे हाथों से। वह मेंढक राजकुमार नहीं था लेकिन मेरा हृदय परिवर्तन और विषय परिवर्तन दोनों करा गया।           
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धन्यवाद #नवभारत 🙏
31.07.2022
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