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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, August 14, 2022

संस्मरण | तिरंगे पर मेरा वह भाषण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत

संस्मरण | नवभारत | 14.08. 2022 
तिरंगे पर मेरा वह भाषण
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          जब मैं बिजुरी (तत्कालीन जिला शहडोल) में अपने मामाजी के पास रह कर ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी तब पता नहीं क्यों स्कूल के शिक्षक मुझे उतनी संज़ीदगी से नहीं लेते थे जितना कि वे ले सकते थे। कारण क्या था पता नहीं। शायद कोएजुकेशन हो कर भी छात्र प्रधान स्कूल में छात्राओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। कुछ शिक्षक तो उस ग्रामीण परिवेश से थे जहां लड़कियों की शिक्षा व्यर्थ की चीज मानी जाती थी। दो-चार शिक्षक ऐसे थे जो यह मानते थे कि छात्रों को आटाचक्की और सौदा आदि लाने के लिए भेजा जा सकता है, किन्तु छात्राएं किसी काम की नहीं होती हैं। ऐसे वातावरण में मेरा उसी स्कूल के एक वरिष्ठ शिक्षक की भांजी होना भी कोई मायने नहीं रखता था। वह स्कूल उस गांव का उच्चशिक्षा केन्द्र था और ग्यारहवीं कक्षा सबसे ऊंची कक्षा। स्कूल में एक्स्ट्रा कैरीकुलर नहीं के बराबर था। वहां सिर्फ़ वही दिवस मनाए जाते थे जिनके लिए जिला शिक्षा केन्द्र से कड़क आदेश आते थे। हां, राष्ट्रीय दिवस मनाना तो आवश्यक था ही और वह पूरे जोर-शोर से मनाया जाने वाला था, इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब कक्षा में यह नोटिस पढ़ी गई कि देश के स्वतंत्रता दिवस अर्थात् 15 अगस्त को गीत गायन, कवितापाठ और भाषण इत्यादि होगा।
जहां से मैं बिजुरी पहुंची थी यानी पन्ना के मनहर शासकीय उच्चतर माध्यमिक कन्या विद्यालय से, वहां इससे अधिक कार्यक्रम होते थे। वहां कुर्सी रेस से ले कर सुई-धागा और जलेबी रेस भी होती थी। मगर बिजुरी के उस हायर सेकेन्ड्री स्कूल में समारोही मानसिकता के शिक्षकों की कमी थी। मेरे कमल सिंह मामाजी जैसे एक-दो शिक्षक थे जो समारोह के पक्ष में रहते थे, मगर प्राचार्य उन्हें भी यह कह कर शांत करा दिया करते थे कि ‘‘बच्चों में बूंदी बंटवा दो। एक के बजाए दो-दो पैकेट दे देना। इतना पर्याप्त है। उछलना-कूदना कराना जरूरी नहीं है।’’ वैसे, प्राचार्य खेल-कूद को बुरा नहीं समझते थे किन्तु अनुपयोगी जरूर समझते थे। यदि फिल्मी भाषा में कहा जाए तो यह उनके ‘‘संस्कार में कमी रह गई थी’’।

एक जुलाई को मेरा वहां दाखिला हुआ था और ठीक डेढ़ माह बाद 15 अगस्त आ गया। मैं उस समय तक पन्ना में रहती हुई कविता-कहानी लिखने लगी थी और अख़बारों के साहित्यिक परिशिष्टों में मेरी रचनाएं छपने भी लगी थीं। मगर ट्रेजडी यह थी कि मेरी जो भी रचनाएं छपीं वे रीवा, सतना और जबलपुर से प्रकाशित होने वाले अख़बारों में। अखबारों के वे संस्करण बिजुरी पहुंचते नहीं थे। यदि भूले-भटके उनमें से एकाध संस्करण वहां पहुंच जाता तय था कि मेरे स्कूल के शिक्षक उसे नहीं पढ़ते। क्यों कि अखबार पढ़ने में उनकी कोई रुचि नहीं रहती थी। सारांशतः यह कि वे नहीं जानते थे कि मैं थोड़ा-बहुत लिख लेती हूं और माईक पर अच्छा-खासा बोल लेती हूं। मैं उन दिनों बातूनी नहीं थी लेकिन दर्शक-दीर्घा से मुझे कभी डर नहीं लगा। 
जब 15 अगस्त के कार्यक्रम संबंधी नोटिस कक्षा में घुमाई गई और उसमें प्रस्तुति देने के लिए अपना नाम लिखाने के लिए कहा गया तो मैंने भी चट से अपना दायंा हाथ उठा दिया।

‘‘तुम किसमें भाग लोगी?’’ बाॅटनी वाले सर का पीरियड चल रहा था, सो उन्होंने आश्चर्य भरे स्वर में मुझसे पूछा।
‘‘मैं भाषण दूंगी!’’ मैंने फौरन उत्तर दिया। 
‘‘तुम दे लोगी भाषण? उस दिन दोनों शिफ्ट के टीचर और स्टूडेंट रहेंगे। बहुत भीड़ रहेगी।’’ अविश्वास भरे स्वर में मुझे डराने का प्रयास करते हुए बाॅटनी वाले सर ने मुझसे कहा।
‘‘जी, सर! मुझे अपना नाम लिखाना है।’’ मैं भी अपनी बात पर अड़ी रही। अतः नाम लिखाने की अनुमति सर को देनी ही पड़ी। भाषण के लिए दो विषय दिए गए थे- पहला विषय था ‘स्वतंत्रता दिवस’ और दूसरा विषय था ‘हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा’। मैं समझ गई थी कि स्वतंत्रता दिवस आसान विषय है इसलिए अधिकांश प्रतिभागी उसी पर बोलेंगे। इसलिए मैंने ‘ हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा’ के विषय को चुना। उन दिनों न तो इंटरनेट था और न फोन सुविधा कि मैं फोन पर बात कर के मां या वर्षा दीदी से सहायता ले लेती या नेट पर जानकारी सर्च कर लेती। नाम लिखाने की घटना 12 अगस्त की थी। मेरे पास मात्र दो दिन थे तैयारी करने के लिए। शाम को मामाजी जब स्कूल से घर लौटे तो मैंने उन्हें बताया। मेरी बात सुन कर वे चिंतित हो उठे,‘‘वो पहला वाला विषय ठीक था। अब इसकी विस्तृत जानकारी कहां जुटाओगी?’’
‘‘कल स्कूल के बाद पुस्तकालय में रुक जाऊंगी। आप भी तब तक आ ही जाएंगे, तो कल मुझे एक-दो किताबें दो दिन के लिए दिला दीजिएगा।’’ मैंने मामाजी से कहा। मामाजी राजी हो गए। इसमें कोई संदेह नहीं कि बिजुरी के उस हायरसेकेंड्री स्कूल का वह पुस्तकालय बहुत सम्पन्न था। वहीं मैंने मीगुएल डी सर्वेंटीज़ की ‘डाॅन क्विकजोट’, चाल्र्स डिकेंस की ‘डेविड काॅपर फील्ड’, विलियम शेक्सपियर का नाटक ‘मर्चेंट आॅफ वेनिस’, जाॅन आफॅ आर्क की जीवनी, जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चंद्रगुप्त’ और समुद्रगुप्त’ आदि पढ़े थे। तो, दूसरे दिन मैं पुस्तकालय पहुंची। एक मध्यम आकार के कमरे में दस-बारह लोहे की आलमारियों वाला वह पुस्तकालय। उस दिन मामाजी ज़रा जल्दी स्कूल आ गए थे और उन्होंने मुझे किताब ढूंढने में मदद की। मैं किताबें ले कर घर आ गई और मामाजी अपनी दोपहर वाली शिफ्ट में वहीं रुक गए। इसके बाद दो दिन में मैंने अपने राष्ट्रीय ध्वज के बारे में सब कुछ कंठस्थ कर लिया। केमिस्ट्री और अल्जेबरा के कुछ फार्मूलों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो मेरी यादाश्त अच्छी थी।

स्वतंत्रता दिवस का समारोह शुरू हुआ। ध्वजारोहण और प्राचार्य सहित शिक्षकों के भाषणों के उपरांत छात्र-छात्राओं की बारी आई। मैं अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा करती रही। लम्बी प्रतीक्षा के बाद सबसे अंत में मेरा नाम पुकारा गया। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था अतः मैंने और अधिक जोश में भर कर एक सांस में तिरंगे का पूरा इतिहास सुना डाला। वहां उपस्थित सभी लोग चकित रह गए। विशेष रूप से वे शिक्षक महोदय जिन्हें मुझ पर विश्वास नहीं था। उन्हें डर था कि मैं भाषण नहीं दे सकूंगी। भीड़ देख कर डर जाऊंगी। इसीलिए उन्होंने मेरा नाम सबसे अंत में रखा था ताकि कार्यक्रम न बिगड़े, और शायद तब तक मैं मैदान छोड़ कर भाग जाऊं। उन्हें पता नहीं था कि मैं मैदान छोड़ने वालों में से नहीं हूं। इससे पहले वाले स्कूल में मैं तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता में ईनाम भी जीत चुकी थी। ‘हमारा राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा’ के उस भाषण ने स्कूल में मेरी धाक जमा दी। इसके बाद पूरे साल किसी ने मेरी भाषण देने की क्षमता पर संदेह नहीं किया। 

आज ‘‘हर घर तिरंगा’’ अभियान में सहभागी होते हुए बार-बार मुझे यह घटना याद आ जाती है कि तिरंगे के साथ मेरा मात्र नागरिक संबंध नहीं, वरन् बचपन का निजी संबंध भी है।     
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