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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, August 28, 2022

संस्मरण | कविता का वशीकरण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


संस्मरण | नवभारत | 28.08. 2022
कविता का वशीकरण
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
        वह दिन मैं कभी भूल नहीं सकती, जब मां ने स्कूल से लौट कर बताया कि आज एक पुराने परिचित घर आने वाले हैं। वर्षा दीदी ने पूछा कि कौन हैं वे? उन दिनों मैं शायद आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। मुझे भी जिज्ञासा हुई।

‘‘बहुत बड़े कवि हैं। तुम लोग उनकी कविताएं अपनी पाठ्यपुस्तक में पढ़ती हो।’’ मां तो इतना कह कर नाश्ता-पानी के जुगाड़ में लग गईं। उन दिनों हमारे घर में चाय का चलन नहीं था। मां बुंदेली संस्कृति में रच-बस चुकी थीं। यद्यपि मालवा उनके मन और जीवन से गया नहीं था। घर में साड़ी के बजाए मालवी स्टाईल की लहंगा-चुन्नी पहनना पसंद करती थीं। आखिर अपनी जन्मभूमि को कोई कैसे भुला सकता है? वे मालव कन्या थीं। ‘‘मालविका’’ थीं। उनको यह उपनाम डाॅ. श्याम परमार ने उनकी लेखकीय प्रतिभा को देखते हुए दिया था। मजे की बात यह कि वर्षा दीदी का जन्म रीवा में हुआ था इसलिए वे स्वयं को ‘‘बघेली कन्या’’ कहा करती थीं। जबकि मेरा जन्म विशुद्ध बुंदेलखंड में पन्ना में हुआ सो मैं जन्मजात ‘‘बुंदेली कन्या’’ बन गई। तो, मैं बता रही थी नाश्ते के बारे में। तब बुंदेलखंड में अतिथि के लिए नाश्ते में पोहा नहीं बनाया जाता था। आमतौर पर घरों में सलोनी, पपड़िया, सेव आदि बना कर रख लिए जाते थे, यानी ये नाश्ते हमेशा मौजूद रहते थे। मां भी रविवार की छुट्टी में खाना बनाने वाली बऊ के साथ मिल कर इस तरह के आईटेम बना कर रख लिया करती थीं। लेकिन यदि किसी को नाश्ता ताज़ा बना कर कराना होता था तो भजिए और गुलगुले तले जाते। साथ में चिप्स और पापड़ भी रहते। पोहा हमारे घर उन दिनों कभी-कभार ही बनता था। लेकिन उस दिन मां पोहा बनाने में जुट गईं। घर में आलू, प्याज और धनिया पत्ती के अलावा और कोई ऐसी चीज नहीं थी जिसे पोहे में डाला जा सकता था। उन दिनों पन्ना में हरी मटर सिर्फ़ सीजन में ही मिलती थी और हमारे फ्रिज होने का सवाल ही नहीं था। उस समय फ्रिज घोर विलासिता की वस्तु थी, अतः हम तो उसे ‘अफोर्ड’ करने की कल्पना ही नहीं कर सकते थे। सो, डिब्बाबंद मटर भी घर में नहीं रख सकते थे। खैर उस समय मैंने ये सब नहीं सोचा होगा लेकिन अब उन दिनों को याद करती हूं तो उन दिनों के अभाव और उपलब्धता सभी कुछ याद आते हैं।

लगभग आधे घंटे बाद कुंडी खटखटाने की आवाज़ आई। सबसे पहले भाग कर मैं ही दरवाज़े पर गई। सामने देखा तो चकाचक सफेद धोती-कुर्ता पहने एक सज्जन खड़े थे। कुर्ते के ऊपर जैकेट और एक कंधे पर खादी का एक झोला।
‘‘ये मालविका जी का घर है न?’’ उन्होंने मुझसे प्रश्न किया। मैंने अपनी मुंडी हिला कर हामी भरी ही थी कि मां और वर्षा दीदी आ गईं।

‘‘आइए-आइए! बेटा इन्हें प्रणाम करो! ये श्रीकृष्ण सरल जी हैं, जिनकी कविताएं तुम लोगों ने याद कर रखी हैं।’’ मां ने परिचय कराया। ‘‘श्रीकृष्ण सरल’’ यह नाम सुन कर तो मैं अवाक हो कर उनकी ओर देखती रह गई। वे मुझे बिलकुल अपने नानाजी की तरह लगे। नानाजी भी सफेद धोती-कुर्ता पहनते थे। वे काफी देर हमारे घर पर रुके। उन्होंने नाश्ता किया और अपनी दो-तीन लम्बी-लम्बी कविताएं सुनाईं। जितना ओज उनकी कविताओं में था उतना ही ओज उनके काव्य-पाठ में था। उन्होंने हम दोनों बहनों को अपनी एक-एक गीत-पुस्तक भी भेंट की। यद्यपि उनकी वे पुस्तकें तो हमने चार दिन बाद पढ़ीं। साक्षात उनके मुख से देशभक्ति में डूबा गौरवगान सुनने के बाद ओजपूर्ण गीतों का जो असर हम दोनों बहनों पर हुआ, उसके कारण हम दोनों बहनें चार दिन तक ‘सरल’ जी जैसी कविता लिखने के प्रयास में जुटी रहीं। देखा जाए तो यह बचपना ही था क्योंकि देशभक्ति पूर्ण कविताएं तभी लिखी जा सकती हैं जब देश प्रेम की भावनाएं मन में हिलोरें ले रही हो। ऐसी कविताएं अंतःकरण से उपजती हैं, सुने-सुनाए आधार पर नहीं। बहरहाल, हमने जो कविताएं लिखीं, उन्हें मां ने देखा-पढ़ा। वर्षा दीदी की कविताओं में मां ने आवश्यक सुधार भी किए। मगर मैं बचपन से ही अड़ियल किस्म की रही हूं। मुझे अपनी रचनाएं जंचवाना पसंद नहीं था। मैंने मां को पढ़ने तो दी लेकिन सुधारने नहीं दी। मां ने भी सुधारने पर जोर नहीं दिया क्योंकि वे जानती थीं कि यदि वे जोर देंगी तो मैं अपनी कविताएं फाड़ कर फेंक दूंगी। वह तो मेरी आदत में तब थोड़ा परिवर्तन आया जब मैंने सन् 2004 में अपना पहना उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ लिखा। यह 2005 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास की पांडुलिपि वर्षा दीदी को इस वार्निंग के साथ पढ़ने को सौंपी थी कि इसमें जो भी गड़बड़ी आपको लगे उसे आप अलग नोट करिएगा। पांडुलिपि में काटा-पीटी की जरूरत नहीं है। दीदी तो बचपन से ही देखती आई थीं कि गलती निकाले जाने पर मैं किस तरह अपनी रचना का अंतिम संस्कार कर देती हूं अतः उन्होंने मेरी वार्निंग का पूरा ध्यान रखा। कहने का आशय यह कि श्रीेकृष्ण ‘‘सरल’’ जी की कविताएं सुन कर जुनून में आ कर मैंने जो कविता लिखी थी उसे मैंने उस वर्ष 26 जनवरी के समारोह में सुना कर दम लिया। मैंने भरसक प्रयास भी यही किया था कि मैं ‘‘सरल’’ जी की भांति अपनी कविता का पाठ करूं। स्कूल में मां के अलावा किसी को कविताकला का विशेष ज्ञान नहीं था इसलिए सभी से मुझे प्रशंसा मिली। यह तय है कि मां ने जरूर अपना सिर पीटा होगा मेरी कविता सुन कर।

इसी तरह का कविताई का एक बार और जूनून हम दोनों बहनों पर सवार हुआ था। तब मैं बीए फस्र्टईयर में पढ़ रही थी। एक रचनाकार के रूप में मेरी पहचान बनती जा रही थी। उन दिनों पन्ना में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार आया करते थे, जिनमें मेरी और दीदी की रचनाएं प्रकाशित होती रहती थींे। दीदी ने उन दिनों कुछ मंचों पर भी काव्यपाठ करना शुरू कर दिया था। यद्यपि मंचों का गिरता स्तर देख कर यह सिलसिला बहुत लम्बा नहीं चला। दीदी का कंठ बहुत मधुर था। उनमें अपनी आवाज से श्रोताओं को बांध लेने की क्षमता थी लेकिन मंचीय लटके-झटके उन्हें नहीं आते थे और मां को भी वह सब पसंद नहीं था। कुछ श्रेष्ठ मंचों पर श्रेष्ठ कवियों से भी भेंट हुई और आत्मीयता के तार जुड़े। जिनमें से एक थे बुंदेलखंड के ख्यातनाम कवि डाॅ. अवधकिशोर जड़िया जी। उन दिनों उनके घनाक्षरी छंदों की बड़ी धूम थी। बहुत ही सहज और सरल स्वभाव के हंसमुख व्यक्ति। अब तो उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका है। जिस समय की मैंने घटना बता रही हूं, उन दिनों बारिश के बाद और ठंड के आगमन से पहले का मौसम था। इसीलिए हम लोग घर के आगे वाले बरामदे में सो रहे थे। यही कोई सुबह के चार बजे का समय था। ऐसा लगा कि कोई दीदी का नाम ले कर जोर-जोर से पुकार रहा है। मां, दीदी और मैं तीनों हड़बड़ा कर उठ बैठे। सुबह की नींद यूं भी गहरी होती है अतः एकदम से कुछ समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है? मां ने लपक कर लाईट जलाई। तब हमने देखा कि सामने डाॅ.अवधकिशोर जड़िया जी खड़े हुए थे।

‘‘सुप्रभात! देखो मैंने जगा दिया न सबको।’’ वे हंसते हुए बोले। फिर कहने लगे,‘‘अभी कवि सम्मेलन खत्म हुआ है। मैं सीधा वहीं से चला आ रहा हूं। मेरी बस छः बजे की है। अगर मैं आप लोगों से बिना मिले चला जाता तो आप लोग नाराज हो जाते।’’
‘‘हां-हां, बैठो न भैया!’’ मां ने तत्काल एक खाट का बिस्तर ठीक-ठाक किया और कहा। वे इत्मिनान से बिस्तर पर आलथी-पालथी मार कर बैठ गए। फिर दीदी से साधिकार बोले,‘‘जाओ वर्षा बेटा झटपट चाय तो बना लाओ!’’

चाय पीने के बाद वे हम लोगों को बताने लगे कि उन्होंने कविसम्मेलन में कौन-कौन सी कविताएं सुनाईं हैं। हम लोग भी उत्सुकता से उनकी कविताएं सुनने लगे। उन्होंने अपने बेहतरीन अंदाज में अपनी घनाक्षरियां सुनाईं। लगभग साढ़े पांच बजे वे छतरपुर की बस पकड़ने के लिए रवाना हो गए। लेकिन सुबह-सवेरे के कोरे-ताजे दिमाग में घनाक्षरी छंदों की गूंज ऐसी बैठी कि दो दिन तक हम दोनों बहनें घनाक्षरी लिखने में जुटी रहीं। जब हम लोगों ने जी भर की घनाक्षरियां लिख लीं और यह समझ में आ गया कि अब इससे अधिक नहीं लिखा जा सकता है, तब कहीं जा कर वह जुनून हम दोनों के सिर से उतरा।

सच तो यह है कि श्रीकृष्ण ‘‘सरल’’ और डाॅ. अवधकिशोर जड़िया जी के काव्य में जो पूर्णता (परफेक्शन) थी, उसने हमें वशीभूत कर लिया था। इतना गहरा असर और किसी के काव्यपाठ ने मुझ पर नहीं डाला। आज मैं इन दोनों घटनाओं के महत्व को समझ पाती हूं कि जिस रचना में पूर्णता होती है और जिस रचनाकार में सृजन के प्रति समर्पण (डिवोशन) होता है, उसी की प्रस्तुति सुनने वाले को सम्मोहित कर पाती है। यद्यपि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इन दोनों रचनाकारों के पहले या बाद में जिन कवि या कवयित्रियों की रचनाएं मैंने सुनीं वे प्रभावी नहीं थीं लेकिन इन दोनों कवियों के काव्य और प्रस्तुति में कुछ तो विशेष था जिसने मन को गहरे तक आंदोलित किया और दो-चार दिन तक हमारे मन मस्तिष्क को वशीभूत रखा।      
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