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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, September 18, 2022

संस्मरण | भजियों-पकौड़ों का जादुई संसार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


संस्मरण | नवभारत | 18.09. 2022
भजियों-पकौड़ों का जादुई संसार
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
         अभी इसी वर्ष (2022 में) हिन्दी दिवस की बात है, मैं एक भावुकतापूर्ण समारोह से लौटी थी. उस समारोह को भावुकतापूर्ण इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उसमें मैंने अपने दीदी डाॅ. वर्षा सिंह की स्मृति में युवा रचनाकारों के लिए एक सम्मान आरम्भ किया. लगभग सवा साल पहले कोरोना की दूसरी लहर में मैंने वर्षा दीदी को हमेशा के लिए खो दिया था. अब मैं युवा रचनाकारों में उनकी आकांक्षाओं एवं सपनों को फलता-फूलता और पूर्णता को प्राप्त होते हुए देखना चाहती हूं. अतः वह सम्मान समारोह मेरे लिए भावाकुल कर देने वाला साबित हुआ.


 बहरहाल, मैं बता रही थी कि मैं उस समारोह से लौट कर अपने घर के बाहरी दरवाजे का ताला खोलने ही जा रही थी कि काॅलोनी की ही एक भाभीजी ने मुझे आवाज दी. मैं ताला खोलती-खोलती रुक गई. भाभीजी मेरे पास आ कर कहने लगीं कि ‘‘कुछ मेहमान आ गए थे इसलिए मैं कार्यक्रम में नहीं आ सकी. प्लीज बुरा मत मानना!’’
‘‘नहीं, इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है. अब मेहमानों को क्या पता कि आपको कहीं जाना है.’’ मैंने उन्हें तसल्ली दी. मेरी बात सुन कर वे उत्साहित हो उठीं और बोलीं,‘‘मेरे घर चलो, मैंने भजिए-पकौड़े बनाए हैं.’’ मैंने उन्हें छेड़ने के लिए चुटकी ली,‘‘मेहमानों के बचे हुए भजिए हैं क्या?’’ मेरी बात सुन कर वे चिंहुक पड़ीं,‘‘मारूंगी! फालतू बात मत करो! मैंने भी कहां खाया है? उस समय तो तल-तल कर मेहमानों को खिलाती रही. फिर और तल कर कैसरोल में रख लिए कि जब तुम आओगी तो हम दोनों बैठ कर चाय-पकौड़ों का आनन्द लेंगे. और एक तुम हो!’’ कहती हुईं वे हंसने लगीं और मैं भी हंस पड़ी.

मैं उनके साथ उनके घर गई. मैंने सोचा था कि एकाध कैसरोल में भजिए होंगे लेकिन जब उन्होंने चार कैसरोल मेरे सामने ला कर रखे और उनके ढक्कन खोले तो मैं देख कर दंग रह गई। हर कैसरोल में दो-दो प्रकार के भजिए-पकौड़े थे. अकेले आलू और आलू-प्याज मिक्स के पकौड़े तो बहुप्रचलित हैं. पालक, बैंगन और फूल गोभी के पकौड़े भी बहुतायत बनाए जाते हैं. उन्होंने जो स्पेशल पकौड़े बनाए थे, वे थे करेले के पकौड़े. जरा भी कड़वे नहीं. बेहद कुरकुरे. इसी तरह चुकंदर (बीटरूट) के पकौड़े और सेब के पकौड़े तो अद्भुत थे. मैंने तो उनसे कहा कि उन्हें पकौड़ों की रेसिपी बुक लिखनी चाहिए. मगर उन्हें लिखने में कतई रुचि नहीं हैं. खैर, उनकी भजिए-पकौड़े बनाने में इसी तरह रुचि बनी रहे, यही मेरी दुआ है. 

भाभीजी के घर से लौट कर मुझे अपने बचपन के दिन याद आने लगे. उन दिनों मेरे घर भी तरह-तरह के भजिए बनाए जाते थे. यद्यपि उन दिनों पन्ना जैसी छोटी जगह में सीजनल सब्जियां ही मिला करती थीं. इसलिए फूल गोभी या चुकंदर के भजिए हर मौसम में नहीं बन सकते थे. लेकिन उन दिनों उन सब्जियों के भजिए बनते थे जो अब बाजार से तो गायब हो ही चुके हैं बल्कि कुछ तो वनस्पति के रूप में भी लुप्त होते जा रहे हैं. जैसे केनी के पत्तों के भजिए. केनी का पौधा अपने-आप बगीचे में किनारे-किनारे उग आता था. इसकी हल्की सफेद धारियों वाली मध्यम लम्बाई की पत्तियां होती थीं. इसे और क्या कहा जाता है मुझे पता नहीं है. मेरे घर में इसे केनी ही कहा जाता था. केनी के पकौड़ों के लिए मेरी और वर्षा दीदी की ड्यूटी होती थी कि हम पत्तियां तोड़ कर इकट्ठी करें. अब तो केनी के पौधे भूले-भटके ही दिखते हैं, वह भी खेतों के आस-पास. इसी तरह मुनगे (कोसें, ड्रमस्टिक) के फूलों के भजिए बनते थे, जिसके लिए हम दोनों बहनें लम्बा बांस ले कर फूल तोड़ने में जुट जाती थीं. हमारे घर के बगीचे में ही मुनगे था एक अदद पेड़ लगा था. अतः हमें कहीं बाहर नहीं जाना पड़ता था. कुम्हड़े के फूलों के पकौड़े भी बड़े स्वादिष्ट लगते थे. पोई के पत्तों के पकौड़े भी बनाए जाते थे. पोई की बेल उत्तरप्रदेश में आज भी घरों में उगाई जाती है लेकिन मध्यप्रदेश में इसे लगाने और खाने का चलन नहीं के बराबर है. हमारे घर के बगीचे की बाड़ में पोई और कुंदुरू की बेलें फैली रहती थीं. कुंदरू तो इतनी अधिक तादाद में हो जाते थे कि हम उसे पड़ोसियों में भी बांट देते थे. लेकिन पोई में किसी की दिलचस्पी नहीं रहती थी. हमारे घर में केले के पेड़ भी लगे थे. मां बताती थीं कि वे भुसावली केले के पेड़ थे. उन पेड़ों की ऊंचाई अधिक नहीं होती थी लेकिन उनमें केले के बड़े-बड़े घेर फलते थे. घेर में से केले खत्म होते-होते उसमें से फूल काट लिया जाता था और उसकी ऊपरी पंखुरियां अलग कर के भीतरी अपेक्षाकृत कोमल पंखुरियों की कभी सब्जी तो कभी पकौड़े बनाए जाते थे. कच्चे केले के पकौड़े भी बड़े स्वादिष्ट बनते थे। मुझे कुम्हड़े, नेनुआ (रेरुआ, फत्कुली) के पकौड़े बहुत प्रिय थे. मां जब भी पकौड़े बनातीं तो मेरे लिए इन दोनों में से जो भी घर में पाया जाता या फिर दोनों के पकौड़े बनातीं. बैंगन में विशेष रूप से काले बैंगन के पकौड़े बनाए जाते थे.

मुझे लगता है कि हर सब्जी के भजिए-पकौड़े बनाए जा सकते हैं. मैंने बचपन में फूलगोभी के पकौड़े नहीं खाए थे. क्योंकि मां ने कभी बनाए ही नहीं. वह तो बाद में मैंने ही फूलगोभी के पकौड़े अपने घर में बनाना शुरू किया. इसे बनाना सीखने का भी अपना एक मजेदार किस्सा है. हमारे सगेसंबंधी समान भाई साहब गणेश सिंह जी की पत्नीं यानी मेरी भाभीजी को पकौड़े बनाने में महारत हासिल रही है। वे लोग उन दिनों पन्ना के एमपीईबी के क्वार्टर्स में रहा करते थे, पन्ना-सतना मार्ग पर। हम लोग अकसर उनके घर जाया करते थे. उस समय तक वर्षा दीदी की भी एमपीईबी में नियुक्ति हो चुकी थी. इस तरह हमारा दोहरा रिश्ता हो गया था. एक बार जब हम लोग उनके घर गए तो भाभीजी ने फूलगोभी के पकौड़े बनाए. इससे पहले मैंने फूलगोभी के पकौड़े कभी नहीं खाए थे. मुझे उनका आकार-प्रकार देख कर लगा कि ये अवश्य अंदर से कच्चे होंगे. लेकिन जब मैंने खाया तो बस, खाती ही चली गई. हर पकौड़ा चाय की प्लेट के आकार जितना बड़ा था और अच्छी तरह से तला हुआ था. मुझे नए-नए व्यंजन बनाने का शौक तो बचपन से ही था, सो मैं सम्मोहित-सी उनके रसोईघर में जा पहुंचीं. वहां मैंने उन्हें फूलगोभी के पकौड़े बनाते देखा और उसे अपने दिल-दिमाग में नोट कर लिया. दूसरे दिन जब तक मैंने उसी पद्धति से फूलगोभी के पकौड़े बना कर आजमा नहीं लिए तब तक मुझे चैन नहीं पड़ा. सच्चाई तो ये है कि भाभीजी को भी पता नहीं था कि मैंने उनसे फूलगोभी के पकौड़े बनाना सीख लिया था. इसी तरह जिला अस्पताल में एक नर्स थीं. जिनका नाम था फ्लोरा सिल्वा. वे केरल की थीं. वे सांवली रंगत की थीं लेकिन उनका स्वभाव बहुत ही मधुर और आत्मीयता से परिपूर्ण था. मां से उनकी अच्छी मित्रता थी. हम दोनों बहनें उन्हीं से इंजेक्शन लगवाना पसंद करती थीं. क्योंकि उनका हाथ इतना सधा हुआ था कि हमें तनिक भी दर्द नहीं होता था. बचपन में हामिद बेग कम्पाउण्डर अंकल के बाद इंजेक्शन के मामले में फ्लोरा आंटी हमारी पहली पसंद थीं. फ्लोरा आंटी ने ही सबसे पहले हमें कटहल के पकौड़े खिलाए थे. इससे पहले हमने कटहल के पकौड़े कभी नहीं खाए थे. मां ने फ्लोरा आंटी से कटहल के पकौड़े बनाना सीखा और उसके बाद हमारे घर भी कटहल के पकौड़े बनने लगे. यद्यपि उसे बनाने में कुछ अधिक समय लगता था. यूं भी मुझे कटहल पसंद नहीं है इसलिए मुझे उसे सीखने में भी कभी रुचि नहीं रही. बदले में मां ने उन्हें कुंदुरू के पकौड़े बनाना सिखाया था. इस तरह देखा जाए तो भजियों-पकौड़ों ने अंतर्राज्यीय मित्रता कायम की और परस्पर एक-दूसरे के रसोईघर में अपनी जगह बना ली.

पहले महानगरों के जीवन पर आधारित कहानियों में ही ब्रेड-पकौड़ों के बारे में अधिकतर पढ़ने को मिलता था. मेरे बचपन में मेरे घर में कभी ब्रेड-पकौड़ा नहीं बना. जब मैंने काॅलेज में दाखिला लिया, तब भी पन्ना शहर में कोई ऐसा होटल नहीं था जिसमें ब्रेड-पकौड़ा मिलता. पहली बार मैंने सतना के बसस्टेंड पर ब्रेड-पकौड़ा खाया था. दरअसल मैं और वर्षा दीदी सुबह की बस से रीवा जा रहे थे. वह बस सुबह साढ़े पांच या छः बजे पन्ना से रीवा के लिए रवाना होती थी. लगभग आठ बजे बस सतना बसस्टेंड पहुंची. हमें भूख-सी लगने लगी थी. मगर बसस्टेंड के धूल-धूसरित वातावरण में खुला रखा खाद्यपदार्थ खाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी. तभी वर्षा दीदी की दृष्टि पकौड़ों के ठेले पर पड़ी। कैरोसिन-स्टोव पर ब्रेड-पकौड़े तले जा रहे थे. दीदी बस से उतर कर झटपट दो पकौड़े खरीद लाईं. खौलते तेल से निकले ताजे पकौड़े हर तरह के प्रदूषण से मुक्त थे. वह ब्रेड-पकौड़ा इतना स्वादिष्ट लगा कि दीदी ने खिड़की से ही आवाज दे कर दो पकौड़े और मंगा लिए. वाकई बेहद नरम और खटमिट्ठी चटनी से भरे हुए ब्रेड-पकौड़े. शायद उनमें पनीर की छीलन भी डाली गई थी. उस दिन के बाद से तो मैं ब्रेड-पकौड़ों पर फिदा हो गई. 

पहले चाय-पकौड़े का मुहावरा चलन में नहीं था. भजियों और पकौड़ों के साथ टमाटर, आंवला, धनिया-मिर्च, अमचूर, इमली आदि की चटनी या अचार या फिर दही की चटनी अथवा मठा दिया जाता था. भजिया-पकौड़ों के बाद चाय के बदले कप भर मठा पीने का चलन अधिक था. लेकिन अब चाय के बिना पकौड़ों का मजा अधूरा लगता है. साथ में चटनी भले ही न हो लेकिन पकौड़ों के बाद में चाय जरूरी है. यही तो है कि समय के साथ चलन बदले हैं, मुहावरे बदले हैं लेकिन भजियों-पकौड़ों का बुनियादी स्वाद आज भी वही है. उनका जादुई संसार भी वही है पहले जैसा. बस, बदली हुई जीवनशैली में अब इन्हें खाने का चलन कम होता जा रहा है.                         
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