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My Editorials - Dr Sharad Singh

Sunday, September 4, 2022

संस्मरण | कॉमरेड का आकर्षण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


संस्मरण | नवभारत | 04.09. 2022

कॉमरेड का आकर्षण
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह  
        उस दिन सुबह जब समाचारपत्र में 30 अगस्‍त 2022 को मिखाइल गोर्बाचोव के निधन होने का समाचार पढ़ा तो स्मृति के कई पन्ने अपने आप खुलने लगे। वे सोवियत संघ के अंतिम नेता थे।

          जिन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ रही थी उन दिनों लगभग हर दस में से एक विद्यार्थी साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित रहता था। उन दिनों "कामरेड" शब्द किसी बहुप्रचलित मुहावरे से कम नहीं था। उन दिनों भारत और सोवियत संघ के बीच बहुत गहरी मित्रता थी। अनेक सोवियत पत्र-पत्रिकाएं देश के छोटे-छोटे शहरों, गांवों और कस्बों तक उपलब्ध रहती थीं। बहुत बड़ी मात्रा में रूसी साहित्य बहुत ही कम कीमत में और बहुत सुंदर छपाई में उपलब्ध हो जाता था, वह भी हिंदी में। जब मैं बीए प्रथम वर्ष में पढ़ रही थी उन दिनों मैंने टॉल्सटाय का उपन्यास "अन्ना करेनिना" पहली बार पढ़ा था। इसके बाद तो उसे कई बार पढ़ा। दोस्तोएव्स्की का "अपराध और दंड",  गोर्की का उपन्यास "मां" तथा गोर्की की आत्मकथा पढ़ी। लेव टॉल्सटाय, फ्योदोर दोस्तोएव्स्की और गोर्की के अतिरिक्त अलेक्सांद्र पुश्किन, मिख़ाइल लेर्मोन्तोव, इवान तुर्गनेव, एंटोन चेखव, बोरिस पास्तरनाक,अन्ना अख़्मातोवा, मरीना त्सवेताएवा, मिखाईल शोलोखोव आदि का साहित्य मैंने पढ़ा। उस दौरान व्लादीमीर इल्यिच लेनिन की जीवनी और उनकी लिखी किताबें "क्या किया जाना चाहिए?", "लोकतांत्रिक क्रांति में सामाजिक लोकतंत्र की दो रणनीतियां" तथा "राज्य और क्रांति" पढ़ी थीं। कार्ल मार्क्स की "पूंजी" और "कम्युनिस्ट घोषणा पत्र" भी उसी दौर में पढ़ी थी। ये सारी किताबें मैंने खरीद कर पढ़ीं थीं और इन्हें खरीदना इसीलिए संभव हो सका था क्योंकि इनकी कीमत बहुत कम रहती थी और  इन्हें खरीदने से मां कभी रोकती नहीं थीं। मैं दो पत्रिकाएं भी डाक से मंगाया करती थी। एक "सोवियत संघ" और दूसरी "सोवियत नारी"। दोनों का चिकना ग्लेज़्ड कागज और सुंदर फोटोग्राफी मन मोह लेती थी। मैं पूरे ध्यान से दोनों पत्रिकाएं पढ़ती थी और उन्हें सहेज कर भी रखती थी। मेरे पास बहुत सारे अंक इकट्ठे हो गए थे। वह तो जब पन्ना से सागर स्थान परिवर्तन करना पड़ा तो उस समय बचपन से सहेज कर रखी गईं ढेर सारी कॉमिक्स और यह दोनों सोवियत पत्रिकाएं छोड़नी पड़ीं। फिर भी किताबें में अपने साथ सागर ले आई थी। काफी अरसे तक रूसी लेखकों की वे किताबें मेरे पास रहीं। लेकिन एक बार एक चूहे ने उन्हें कुतर दिया और उसके बाद वह किताबें रद्दी में बेचनी पड़ीं। जिसका आज भी मुझे बहुत दुख है। उन किताबों की गंध और छुअन आज भी मैं भूली नहीं हूं। एक बार मेरी भी एक कहानी "सोवियत नारी" में प्रकाशित हुई थी और जाहिर है कि वह मेरे लिए बहुत बड़ी खुशी का दिन था। मैंने अपने सारे परिचितों को वह अंक दिखाया था। एक विदेशी पत्रिका में कहानी छपना और वह भी सोवियत पत्रिका में, उस समय बड़ी शाबाशी की बात थी। पारिश्रमिक की रकम भी उससे बहुत बड़ी थी, जो भारतीय अखबार उन दिनों रचनाओं के पारिश्रमिक के रूप में दिया करते थे। दोनों पत्रिकाओं की ओर से 15 दिसंबर तक नए साल का बेहद खूबसूरत कैलेंडर आ जाया करता था। उन कलैंडर्स के लिए पोस्टमैन को अलग से निवेदन करना पड़ता था ताकि वह किसी और को न दे दे।

        उन दिनों मैं और मेरे कुछ मित्र जिनमें पन्ना से बाहर के अधिक थे और साम्यवादी विचारधारा के थे, आपस में पूंजीवादी विरोधी तर्क और बहस किया करते थे। उन दिनों फोन तो हर किसी की पहुंच में था नहीं अतः हम लोग एक दूसरे को लंबे-लंबे पत्र लिखकर साम्यवाद और पूंजीवाद पर अपने-अपने विचार प्रकट करते थे। हमारी चिट्टियां "कॉमरेड" संबोधन से शुरू होती थीं और "लाल सलाम" पर खत्म होती थीं। जब कभी मां के साथ भोपाल जाने का अवसर मिलता तो मैं न्यू-मार्केट के उस सब-वे पर अवश्य जाती जहां हिंदी में अनूदित सोवियत किताबें मिलती थीं। अधिकांश किताबों का अनुवाद अमृत राय और मदनलाल "मधु" द्वारा किया गया होता था।

              जब मैं बी.ए. द्वितीय वर्ष में थी, तब डॉ कमला प्रसाद जी से  मुझे साम्यवाद के भारतीय स्वरूप को समझने में मदद मिली। कमला प्रसाद जी के छोटे भाई और उनके भाई की पत्नी वे दोनों भी साम्यवादी विचारधारा के थे। उनके छोटे भाई उन दिनों छतरपुर के महाराजा कॉलेज में कार्यरत थे। पन्ना में प्रगतिशील लेखक संघ के द्वारा एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी जिसमें कमला प्रसाद जी तथा उनके भाई और भाई बहू तीनों आए थे। यद्यपि कुछ समय बाद यह दुखद खबर मिली थी कि उनके भाई ने सपत्नीक आत्महत्या कर ली थी। कारण पता नहीं चला था। इस घटना ने काफी दिन तक मेरे मन को विचलित रखा था क्योंकि दोनों से मैं मिल चुकी थी, दोनों प्रबुद्ध थे और बहुत सरल, सहज स्वभाव के थे।

   उसी दौरान बांदा (उप्र) के एक पत्रकार (दुख है कि मुझे उनका नाम याद नहीं है) वर्षा दीदी से मिलने आए और उन्होंने दीदी को निकोलाई आस्त्रोवस्की की "अग्निदीक्षा" पुस्तक भेंट की। दीदी ने तो उसे सरसरी तौर पर पढ़ा लेकिन मेरे लिए वह जीवनदर्शन बन गई। "अग्निदीक्षा" एक ऐसे सैनिक की जीवन कथा थी जो द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन सेना के विरुद्ध लड़ते हुए अपने दोनों पैर गंवा बैठा था। उड़ान भरने के अलावा उसके जीवन का और कोई सपना नहीं था, लेकिन दोनों पैर गंवाने के बाद यह संभव भी नहीं था। लंबे समय तक सेना के अस्पताल में रहने के दौरान उसने स्वयं को मानसिक रूप से तैयार किया और अपनी शारीरिक क्षमताओं को उस सीमा तक बढ़ाया जो उसके दर्द की सहन करने की सीमा से भी आगे था। एक दिन वह अपने नकली पैरों के सहारे फिर से पायलट बनने के सपने को पूरा कर सका। उसका संघर्ष यहीं समाप्त नहीं हुआ युद्ध समाप्त होते-होते उसकी आंखें कमजोर होने लगीं। फिर भी उसने हार नहीं मानी और न केवल एक लड़की को सहारा दिया बल्कि स्वयं भी उसने एक किताब लिखी। जबकि बेहद कमजोर आंखों के साथ लिखना उसके लिए सबसे दुष्कर कार्य था। इस पुस्तक ने उस समय मुझे संघर्ष करने का जो पाठ पढ़ाया वह आज तक मेरे काम आ रहा है। मैंने इस कथानक से यही सीखा था कि स्थिति कितनी भी विपरीत क्यों न हो कभी हार नहीं माननी चाहिए।
            उस दौर के प्रसिद्ध साम्यवादी नेता होमीदाजी से मिलने का भी मुझे अवसर मिला था। बहुत ही सादगी से रहने वाले व्यक्ति थे। उस समय मैं एक विद्यार्थी ही थी अतः होमीदाजी ने मुझसे पूछा था कि "तुम जनता के बारे में क्या समझती हो, कौन है जनता?" सुनने में यह प्रश्न सरल था लेकिन उत्तर उतना ही कठिन था। मैं हड़बड़ा गई कि क्या उत्तर दूं। तब उन्होंने मुझसे कहा था कि "जब तक तुम आम लोगों के नजदीक नहीं जाओगी, उनके जीवन के दुख दर्द नहीं समझोगी, तब तक यह नहीं समझ पाओगी कि जनता क्या है?" उनका यह वाक्य मुझे उस दौरान कई बार याद आया था जब मैं बीड़ी श्रमिक महिलाओं पर अपनी किताब "पत्तों में कैद औरतें" लिख रही थी। सचमुच मैं उन महिला श्रमिकों के पास पहुंच कर ही उनकी कठिनाइयों को महसूस कर सकी थी।
              बुंदेलखंड के साम्यवादी विधायक कपूरचंद घुवारा से कई बार मिलने का अवसर मिला। उन दिनों जब मैं ऐसे लोगों से मिलती थी तो अपना परिचय देते हुए शान से कहती थी कि "मैं कॉमरेड शरद सिंह"। अपना यह परिचय देते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता था। उस समय स्वयं को बहुत जिम्मेदार और गंभीर महसूस करती थी। लेकिन वास्तविक जिम्मेदारियों और मुश्किलों की बढ़त के साथ जिंदगी की बहुत सारी सच्चाइयां सामने आती गईं, जिससे धीरे-धीरे हर तरह के "वाद" के प्रति मेरा आकर्षण कम होता गया।

         मुझे अच्छी तरह याद है कि सन 1986 में सोवियत संघ के राष्‍ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव पहली बार भारत आए थे। रेडियो पर आकाशवाणी से उनके आगमन का आंखों देखा हाल सुनाया जा रहा था। जबकि पिछले दो दिन से हमारे घर में नल में पानी नहीं आया था और संयोग यह कि जब आंखों देखा हाल सुनाया जा रहा था ठीक उसी दौरान तब नल में पानी सप्लाई किया जा रहा था। चूंकि उस पूरे क्षेत्र में एक साथ कई नल खुले हुए थे और उनमें भी कुछ नलों में मोटर का इस्तेमाल किया जा रहा था इसलिए पानी की बहुत पतली धार आ रही थी। अतः जितनी देर में मिखाईल गोर्बाचोव की आगवानी की गई, उतनी देर में एक टंकी पानी भी नहीं भर पाया था। देखा जाए तो यह व्यवस्था का वह चेहरा था जिसे किसी "वाद" के खांचे में नहीं रखा जा सकता था। धीरे-धीरे में कामरेड शरद सिंह से एक बार फिर सिर्फ शरद सिंह बन गई। जो जीवन मेरे सामने था उसके खुरदरी सच्चाइयां मुझे बिना किसी वाद के सहारे स्वीकार करनी थी और उनका सामना करना था। उस समय मेरा मन भी "पेरेस्त्रोइका" की ओर चल पड़ा था। विचारधाराओं की कट्टरता की कड़ियां खुलने लगी थीं। इन कड़ियों को खोलने में जॉर्ज ऑरवेल की "1984" का भी बड़ा योगदान रहा। इसके बाद ऑरवेल की "एनिमल फार्म" भी पढ़ी। लेकिन "1984" पुस्तक ने दिल-दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी।

         वस्तुतः दबाव चाहे किसी भी विचारधारा का हो आम जनता के लिए उचित नहीं होता है। जब आम जनता अपने मौलिक अधिकारों के साथ रहती है तभी वह सही तरीके से जी पाती है। साम्यवाद और पूंजीवाद का संतुलित स्वरूप ही उसके लिए उत्तम होता है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है। आज "कामरेड" या "लाल सलाम" जैसे शब्द मेरे जीवन में महाविद्यालयीन जीवन के साथ ही बहुत पीछे छूट गए हैं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि उस दौर में मैंने साम्यवाद और पूंजीवाद को भलीभांति न समझा होता अर्थात उन दोनों राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाओं की बारीकियों को नहीं समझा होता, तो आज शायद लोकतंत्र के बारे में मैं इतने अच्छे से नहीं समझ पाती।
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