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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, September 6, 2022

पुस्तक समीक्षा | पूर्वाभास से आभास तक | समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 06.09.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि स्व. निर्मल चंद निर्मल के काव्य  संग्रह  "अंतिम किस्त" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
पूर्वाभास से आभास तक
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - अंतिम किस्त
कवि - निर्मल चंद निर्मल
प्रकाशक - एनडी पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य- 150/-
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    कवि निर्मल चंद निर्मल सागर नगर के वरिष्ठतम कवियों में से एक रहे हैं। उन्होंने काव्य क्षेत्र में निरंतर सृजन किया उनके 23 काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 23 वां काव्य संग्रह ‘‘अंतिम किस्त’’ कई अर्थों में बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस संग्रह में उनकी 65 कविताएं संग्रहीत हैं। वे ‘‘निर्मल दादा’’ के संबोधन से विख्यात रहे हैं। निर्मल दादा ने सदैव समाज से सरोकारित काव्य रचनाएं लिखीं। इन काव्य रचनाओं में उनके गीत, गजल, दोहे सभी समाहित हैं। काव्य संग्रह ‘‘अंतिम किस्त’’ में भी गीत, दोहे और कुंडलियां तीनों विधाओं की रचनाएं हैं। इस संग्रह के साथ भावनात्मक तथ्य यह जुड़ा हुआ है कि इस संग्रह को दादा निर्मल चंद जी ने अपने जीवन काल में पूर्ण कर लिया था, किंतु वे इसे प्रकाशित नहीं करा सके थे। उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर इस संग्रह को प्रकाशित करा कर लोकार्पित किया उनके पुत्र डॉ नलिन जैन ने जो कि स्वयं भी एक अच्छे कवि हैं।
संग्रह में सरस्वती वंदना के उपरांत पहला गीत ही ‘‘अंतिम किस्त’’ शीर्षक का है। यह कविता कवि के उस चिंतन और चिंता को प्रकट करती है जो सामाजिक वातावरण को देखकर उसके मन में उपजते रहे हैं। एक बंद देखिए -
अहंकार के बने अखाड़े जीने को मरने को
सब ने अपनी नाव बना ली भवसागर तरने को
सुविधाओं के बहुत सारे सबके अपने पथ हैं
पृथ्वी तल पर बुद्धि ने दौड़ाए अनगिन रथ हैं
किसके विश्वासों से बोलो अपनी झोली भर लूं
अंतिम किस्त शेष जीवन की किसे समर्पित कर दूं

    अपने दीर्घ जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखने वाले कवि निर्मल दादा कि यह चिंता उचित है क्योंकि एक कवि हमेशा स्वस्थ और सुंदर समाज की स्थापना की कल्पना करता है। वह चाहता है कि समाज में न कोई छोटा हो न कोई बड़ा, न कोई शोषक हो और न कोई शोषित। जब ऐसी कल्पना टूटी दिखाई देती है और धार्मिक वाद-परिवाद के आधार पर लोग बंटे हुए दिखाई देते हैं तो कवि का दुखी होना स्वाभाविक है। वह अपनीे विरासत किसे सौंपी जाए? यह कवि की चिंता वाजिब है। ‘‘समता का प्रारूप’’ शीर्षक गीत की ये  पंक्तियां विचारणीय हैं-
स्वस्थ बनाएं हम समाज को, कोई न ऊंचा नीचा हो
गुण आधारित हो मानवता, जाति-पांति अब ओछे दिखते
शासन की भी नीति यही है, कवि भी समता के सुर लिखते
आजादी का बिगुल बजेगा, छोटा-बड़ा  नहीं होना है
उद्यमशील जगत होगा यह, पुष्पित अब कोना कोना है
सबका मन  सुगंधी  पाएगा,  खुशबूदार  बगीचा हो
स्वस्थ बनाएं हम समाज को, कोई न ऊंचा नीचा हो

कवि निर्मल दादा एक प्रसन्न व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने कभी किसी को निज पीड़ा का आभास नहीं होने दिया। किंतु उनके हर संग्रह में एक कविता अपने उस पुत्र की स्मृति में अवश्य रहती है जिसका निधन हो गया था और वह उनकी स्मृति में हमेशा बना रहा। इस संग्रह में भी पुत्र छोटू को याद करते हुए एक कविता है जिसका शीर्षक है ‘‘छोटू: एक स्मृति’’। इस गीत में एक पिता का अपने दिवंगत पुत्र के प्रति अमित स्नेह है, व्याकुलता है किंतु साथ ही दार्शनिकता भी है जो यह स्पष्ट करती है कि निर्मल दादा ने  इस दार्शनिकता के सहारे स्वयं को सम्हाला और निरंतर सृजन कार्य करते रहे। इस कविता के बंद देखिए -
आना-जाना प्रकृति सनातन प्रभु जी का है काम
इससे ऊपर कुछ न रहता मनुज रहा नाकाम
स्वीकृत करना मजबूरी है जो भी विधि में आए
रोना धोना जय आभूषण नियति निधि ने पाए
जनम जनम हम याद रखेंगे तुमको पाया खोया
जाग्रत भाग्य हमारे देखो कहां आकर सोया
‘‘छोटू’’ इतना ही विशेष है मिले और फिर बिछड़े
इतना ही आया विधान में तुम आगे, हम पिछड़े

      कवि की कोमल भावनाएं और निजी पीड़ाएं ही घनीभूत हो कर उसे सकल समाज की पीड़ा से जोड़ती हैं। इसीलिए समाज में कन्याओं के प्रति उपेक्षा और कन्या भ्रूण का मारा जाना देखकर कवि निर्मल विचलित हो उठते हैं और वे अजन्मी कन्याओं की ओर से उनकी भावना व्यक्त करते हैं -
मैं धरती पर आऊंगी देखूंगी संसार
मार मुझे मत कोख में मैं हूं तेरा प्यार
कैसे संतति चलेगी कैसे घर संसार
जन्म पूर्व यदि सुता का होता है संहार
हुआ संकुचन किस तरह कैसी चली बयार
जननी को भी हो गई अपनी बेटी भार
मां, भगिनी, कन्या, सुता नारी के हैं रूप
इनके बिना न पा सका कोई पुरुष स्वरूप

कवि निर्मल चंद निर्मल राजनीति की अव्यवस्था भरी स्थिति को देखकर एक सुव्यवस्थित राजनीतिक वातावरण का आह्वान करते हैं। वे बताते हैं कि लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप क्या होना चाहिए? उनकी कविता ‘‘राजतंत्र व लोकतंत्र’’ का यह अंश देखिए-
जनता रहे प्रबुद्ध तभी है लोकतंत्र हितकारी
वरना यूं ही चला चली है दलगत मारामारी
लोकतंत्र शासन है अपना स्वाभिमान का डेरा
अपने शासन को हम कह दे कैसे भला लुटेरा
कैसी चाल रहे शासन की हमने हाथ मिलाया
सदियां बीती राजतंत्र की लोकतंत्र तब आया
हम हैं कितने योग्य आज की कथा यही कहती है
लोकतंत्र की सरिता भी उल्टी-सीधी बहती है
राजनीति समझे जनमत को तो ही शासन सधता
वरना लोकतंत्र व राजतंत्र में कोई फर्क न पड़ता
बुद्धिगत  औजारों  ने  ही लोकतंत्र चमकाया
बीती सदियां राजतंत्र की, लोकतंत्र तब आया

कवि दादा निर्मल चंद निर्मल की कविताओं से गुज़रते हुए उनकी दार्शनिकता की गंभीरता का एहसास तब होता है जब इस संग्रह में रखी गई उनकी कुंडलियों से गुज़रते हैं -
हिंदू-मुस्लिम पारसी बुद्ध सिक्ख वा जैन
कौन कहां पैदा हुआ रही प्रकृति की देन
रही प्रकृति की देन व्यर्थ इठलाता क्यों है
ऊंच-नीच का भाव हृदय में लाता क्यों है
सुन ‘‘निर्मल’’ कविराज सभी है जल के बिंदु
जब तक जीवन दौर तभी तक हैं मुस्लिम हिंदू

इसी कुंडलिया का एक बंद और देखें जिसमें कवि ने तमाम सांसारिक विवादों को छोड़कर सत्य को समझने और हिल-मिलकर रहने का संदेश दिया है -
आए हम व चल दिए बस इतना सा काम
ऐसा भी कुछ कर चलें रहे जगत में नाम
रहे जगत में नाम सभी यश गाएं तेरा
दूर-दूर तक हटे दूर चहुंओर अंधेरा
सुन ‘‘निर्मल’’ कविराय छवि मन में बस जाए
वरना,  कैसे गए  और  तुम कैसे आए

कवि दादा निर्मल चंद निर्मल ने कभी अपने सृजन और जीवन में अंतर नहीं रखा। उन्होंने इतनी सार्थक रचनाएं लिखी कि उनकी पंक्तियां उन पर भी सटीक बैठती है। उन्होंने ऐसा सृजन किया जिससे उन्हें सदैव याद रखा जाएगा। यही सार्थक संदेश उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से सभी को निरंतर दिया। उनके इस अंतिम संग्रह की सभी कविताएं सशक्त एवं सार्थक हैं संग्रह की भूमिका कवि टीकाराम त्रिपाठी ने लिखी है तथा पिता के सृजनकर्म पर ‘दो शब्द’ डॉक्टर नलिन जैन ने लिखे हैं। ‘‘अंतिम किस्त’’ की कविताएं पूर्वाभास से आभास तक की यात्रा कराती हैं। यह कविता संग्रह पठनीय है, विचारणीय है, संग्रहणीय है और एक धरोहर स्वरूप है।
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