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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, October 19, 2022

चर्चा प्लस | कैसी प्रगति जब इंसान को ढोता हो इंसान | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
कैसी प्रगति जब इंसान को ढोता हो इंसान
            - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                       
   जिन शहरों में कभी पैडल रिक्शा नहीं चला वे पैडल रिक्शा चालकों की पीड़ा को गहराई से नहीं समझ सकते हैं और उस पीड़ा को तो कभी नहीं समझ सकते हैं जब इंसान पशु के स्थान पर स्वयं को जोत कर रिक्शा खींचता है। इंसान को ढोता इंसान हमारी असंवेदनशीलता की निशानी है। बेशक़ इस तरह के रिक्शों ने अनेक लोगों को दो समय की रोटी मुहैया कराई है लेकिन यह है तो अमानवीय ही। गनीमत यह है कि कई राज्यों में इस व्यवस्था को बदलने के लिए पैडल रिक्शा के बदले ई-रिक्शा दिए जा रहे हैं। फिर भी दुर्भाग्य यह कि आज भी देश के कई शहरों में तमाम प्रगति को मुंह चिढ़ाते हुए पैडल रिक्शा चल रहे हैं।
मैंने कोलकाता आज तक नहीं देखा है। मैं देखना चाहती हूं। वहां का म्यूजियम, वहां की लायब्रेरी, हावड़ा ब्रिज, वहां के ऐतिहासिक स्थल आदि सभी कुछ देखना चाहती हूं। किन्तु दो कारण मुझे बार-बार वहां जाने से रोक देते हैं- एक तो वहां की इंसानी भीड़ जो मेरे भीतर डर पैदा कर देती है और दूसरा वह रिक्शा जिसे इंसान खींचता है।  रिक्शा पुलर द्वारा रिक्शा खींचे जाने का वह दृश्य फिल्मों में, डाॅक्यूमेंट्रीज़ में अनेक बार देखा हैॅ जिसमें दो लोग रिक्शे पर सवार हैं और एक इंसान किसी जानवर की तरह उस रिक्शे को खींच रहा है।  मुझे यह दृश्य कोलकाता के संवेदनशील संस्कृति पर एक काले धब्बे के समान लगता है। (कोलकातावासी मुझे क्षमा करें लेकिन मैं अपने मन की पीड़ा व्यक्त किए बिना नहीं रह सकती हूं।) जिस बंगाल ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, बंकिमचन्द्र चटर्जी जैसे अति संवेदनशील साहित्यकार दिए जिनका साहित्य मानवीय संवेदनाओं से आप्लावित है, उसी बंगाल की राजधानी में एक इंसान कई इंसानों को लगभग 130 वर्ष से अधिक समय से ढोता चला आ रहा है। वह एक पशुवत जीवन जीने को विवश है। विडंबना यह भी कि श्रमिकों की हिमायती राजनीतिक पार्टी ने अनेक वर्ष उस राज्य में सत्ता की बागडोर सम्हाली लेकिन वह भी उन रिक्शा खींचने वालों का भाग्य नहीं बदल सकी। अब वहां क्या स्थिति है, यह जानने के लिए पिछले दिनों मैंने कोलकाता में रहने वाले अपने एक परिचित से पूछा कि क्या आज भी वहां इंसानों द्वारा खींचे जाने वाले रिक्शे चलते हैं? तो उनका उत्तर था कि ‘‘हां, हावड़ा ब्रिज और विक्टोरिया मेमोरियल के आस-पास आपको बहुत से रिक्शा पुलर मिल जाएंगे।’’ मैंने उनसे पूछा कि आपने कभी उस तरह के रिक्शे पर सवारी की है? तो उन्होंने बताया कि ‘‘हां, सिर्फ एक बार, फिर दुबारा कभी हिम्मत नहीं हुई।’’ उनकी हिम्मत हो भी नहीं सकती है क्यों कि वे मध्यप्रदेश के रहने वाले हैं और नौकरी के सिलसिले में इन दिनों कोलकाता में रह रहे हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं हैं यहां मध्यप्रदेश में इंसानों को ढोने का काम इंसान नहीं करते हैं। करते हैं, मगर यह तरीका उतना हृदयविदारक नहीं लगता है। फिर भी वह भी मुझे चुभता है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि इस तरह रिक्शा पुलर्स के रिक्शों को नकारना उनकी रोजी को छीनने जैसा है लेकिन इसी के साथ मेरे मन में यह भी प्रश्न उठता है कि यदि दो मनुष्य कहीं अकेले में फंस गए है और उनके पास कुछ खाने को नहीं है तो क्या उन्हें एक-दूसरे को मार के खा लेना चाहिए? वीभत्स लगी न यह सोच? इतना ही तो वीभत्स है रिक्शा खींचने वालों के रिक्शे पर ठाठ से सवारी करना। यह किसी की लाचारी का लाभ उठाने से कम नहीं है। अमानवीय-सा लगता है यह देखना भी।

सन् 1985 में फ्रेंच लेखक डोमिनिक लेपियर का फ्रेंच में एक उपन्यास आया था ‘‘ला सिटे डी ला जोय’’। फिर इसका अंग्रेजी अनुवाद ‘‘सिटी आफॅ ज्वाय’’ के नाम से प्रकाशित हुआ जो बहुत चर्चित हुआ। इस उपन्यास पर इसी नाम से निर्देशक रोनाल्ड जोफ ने सन् 1992 में एक फिल्म बनाई जिसमें मुख्य भूमिका निभाई थी हाॅलीवुड के मशहूर अभिनेता पेट्रिक वायने स्वायजे ने। इसमें रिक्शा पुलर के जीवन को नजदीक से फिल्माया गया था। संयोगवश ‘‘सिटी आफॅ ज्वाय’’ मैंने पढ़ा भी और उस पर आधारित फिल्म देखने का भी मुझे अवसर मिला। डोमिनिक लेपियर वही लेखक थे जिन्होंने लैरी काॅलिंस के साथ मिल कर भारतीय स्वतंत्रता की घटना पर ‘‘फ्रीडम एट मिड नाईट’’ तथा भोपाल गैस त्रासदी पर ‘‘फाईव पास्ट मिड नाईट इन भोपाल’’ जैसी प्रसिद्ध किताबें लिखीं। ये दोनों किताबें मैंने एक बार नहीं बल्कि कई-कई बार पढीं।

  फिर सन् 2018 में टीएनवी फिल्म्स द्वारा ‘‘हेरिटेज ऑफ थ्रॉल’’ नाम की एक भारतीय डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई गई, जिसे निर्देशित किया था प्रज्ञेश सिंह ने। यह फिल्म कोलकाता के एक हाथ रिक्शा चालक के जीवन पर आधारित मार्मिक डॉक्यूमेंट्री फिल्म थी। जयपुर प्रवास में डॉक्यूमेंट्री निर्माण से जुड़े एक मित्र के पास इसे देखने का अवसर मिला था। इसे देखना मेरे लिए रोमंचकारी रहा।  

मुझे तो पैडल रिक्शा पर भी सवारी करना अच्छा नहीं लगता है। यद्यपि बचपन से मैं पैडल रिक्शा पर ही सवार होती रही। पन्ना में पैडल रिक्शा ही चलते थे। तीन पहियों वाला वाहन जिसमें सायकिल जैसे पैडल लगे होते हैं जिन्हें रिक्शा चालक चलाता है। चढ़ाई आने पर उसे रिक्शे से उतर कर पैदल चलते हुए रिक्शा अपनी ताकत लगा कर खींचना पड़ता है। एक गद्दीदार सीट और उसके सामने लकड़ी का एक पट्टा जो अतिरिक्त सीट की भूमिका निभाता था। जब मैं छोटी थी तो मां मुझे उस पट्टे पर नहीं बैठने देती थीं। उस पट्टे पर बिठाने के बजाए वे मुझे अपनी गोद में बिठाना पसंद करती थीं। उन्हें डर रहता था कि मैं कहीं पट्टे से गिर न जाऊं। बारिश और धूप से बचाने के लिए कालेरंग का कैनवास का हुड लगा होता था। लेकिन बचपन में खुले रिक्शे पर बैठना मुझे अच्छा लगता था। फिर जैसे-जैसे बड़ी होती गई, मुझे हुड लगवा कर बैठना अच्छा लगने लगा। लेकिन काॅलेज में आते-आते मुझे रिक्शेवाले की मेहनत का अहसास होने लगा और मुझे संकोच होने लगा रिक्शे पर सवारी करने में। लेकिन विवशता थी उन दिनों कि वहां और कोई सार्वजनिक साधन नहीं था कि जिसे विकल्प के रूप में मैं अपना पाती।
मां शिक्षा विभाग में थीं। व्याख्याता थीं। उन दिनों परीक्षा काॅपी जांचने का संभागीय सेंटर सागर में ही हुआ करता था। जब मैं उनके साथ पहली बार सागर आई तो मुझे सागर में साक्षात तांगा देखने और उस पर सवारी करने का अवसर मिला। वह मुझे बहुत अच्छा लगा। उस वाहन को कोई इंसान नहीं बल्कि एक घोड़ा खींच रहा था। यह महसूस करना मुझे अच्छा लगा। यद्यपि तांगे का मेरा अनुभव बहुत अधिक नहीं रहा। सागर में तेजी से परिवर्तन हुआ। जब मैं कुछ वर्ष बाद फिर सागर आई तो तांगे की जगह आॅटोरिक्शा और टेम्पो (जिसे भोपाल में बटसुअर) कहते थे, चलने लगे थे। ये दोनों वाहन मुझे और भी अच्छे लगे। इसमें कोई इंसान किसी को न तो ढो रहा था और न खींच रहा था।

सन् 1988 में पूरी तरह सागर में बस जाने बाद पैडल रिक्शा का साथ छूट गया। लेकिन पैडल रिक्शा और रिक्शेवाले के जीवन की पीड़ाएं मेरी स्मृति में बसी रहीं। सन् 1988 में सागर से ही प्रकाशित मेरे नवगीत संग्रह ‘‘आंसू बूंद चुए’’ में मेरा एक नवगीत है ‘‘दर्द लिखे बूटे’’। इसमें मैंने ये पंक्तियां पैडल रिक्शेवाले के जीवन को लक्ष्यित कर के लिखी थीं-
मन के रूमाल पर
दर्द लिखे बूटे।
रिक्शे का पहिया/गिने
तीली के दिन
पैडल पर पैर चलें
तकधिन-तकधिन
भूख करे तांडव
थकी देह टूटे।
सागर में तो पैडल रिक्शा नहीं था लेकिन कभी दमोह तो कभी छतरपुर में पैडल रिक्शा पर सवार होते रहना पड़ा। फिर जब एक वर्कशाॅप के तहत बिहार की राजधानी पटना जाना हुआ तो एक बार फिर पैडल रिक्शा की सवारी करनी पड़ी। उस दौरान जो अनुभव हुआ वह दिमाग में हमेशा के लिए घर कर गया। एक दिन तो शाम को मेरी चप्पल टूट गई तो तत्काल में रिक्शा कर के मोची की दूकान तक पहुंचना पड़ा। फिर दूसरी शाम जब हम लोग घूमने निकले तो साथ चल रहे स्थानीय सज्जन ने मुझे एक चर्चित स्थान चलने का प्रस्ताव रखा। मैंने हामी भर दी तो उन्होंने पैडल रिक्शे वाले को बुलाया और उसे जगह का नाम ले कर उससे मोल-भाव करने लगे। रिक्शेवाला पहले दस रुपए कह रहा था लेकिन मोल-भाव के बाद पांच रुपए में मान गया। मुझे लगा कि यदि सिर्फ पांच रुपए किराया लग रहा है तो वह स्थान पास ही होगा। इतना तो पैदल चल कर जाया जा सकता था। इन्होंने नाहक रिक्शा किया। मगर जब हम चले तो चलते ही चले गए। लगभग चार-पांच किलोमीटर दूर वह स्थान था। रिक्शे वाले ने कहा कि यदि वापस चलना है तो वह प्रतीक्षा कर सकता है। किराए के अलावा प्रतीक्षा करने के एक रुपए और लेगा। मेरे साथ वाले सज्जन ना-नुकुर करने वाले थे लेकिन मैंने बीच में कह दिया कि ‘‘ठीक है, तुम रुको हम तुम्हारे रिक्शे पर ही लौटेंगे।’’
‘‘बेकार एक रुपए ज्यादा देने पड़ेंगे। लौटने के लिए उतने में ही यहां से दूसरा रिक्शा मिल जाता।’’ मेरे साथ वाले सज्जन ने आपत्ति जताई। मुझसे नहीं रहा गया और मैं बोल उठी,‘‘मैं तो पांच रुपए में इतनी दूरी की कल्पना भी नहीं कर सकती हूं। मेरे शहर में तो ऑटोरिक्शा वाले इतनी दूरी का पचास रुपए ले लेते।’’ मेरी बात सुन कर वे सज्जन हंस कर बोले,‘‘यहां स्थितियां दूसरी हैं। यदि वह पांच में नहीं मानता तो कोई दूसरा मान जाता और उसे उस पांच रुपए से भी वंचित होना पड़ता। यहां बहुत गरीबी है, लाचारी है। दो रुपए कमाने के लिए भी यहां होड़ लगी रहती है।’’ उनकी यह बात सुन कर मेरा मन खिन्न हो गया। कोई ऐसी बात हंस कर कैसे कह सकता है? वे भी बुद्धिजीवी थे लेकिन उस समय वे बुद्धि से मुझे बेहद बौने नज़र आए। एक इंसान की लाचारी पर दूसरा इंसान भला कैसे हंस सकता है? यह तो सरासर क्रूरता है। मगर वह एक क्रूर सच था जिसे पचा पाना मेरे लिए कठिन था। उस स्थान से लौटने पर उन सज्जन से पहले ही मैंने उस रिक्शेवाले को बीस का नोट दे दिया। वह शेष पैसे लौटाने को हुआ लेकिन मेरे मुंह से निकला,‘‘बाकी तुम रख लो।’’ मैं स्वयं कोई आर्थिक सम्पन्नता वाली नहीं थी लेकिन अपने शहर में उस दूरी के आॅटो रिक्शा के पचास रुपए देने की तुलना में उस पैडल रिक्शा वाले को बीस रुपए देना मुझे नहीं अखरा। बल्कि भीतर से खुशी ही हुई जब उसने कृतज्ञता भाव से वह नोट अपने माथे छुआते हुए मुझे धन्यवाद दिया।
    उस दिन उन सज्जन ने मुझे ताना मारा था कि आप अगर कभी कोलकाता जाएंगी और वहां रिक्शा पुलर्स को देखेंगी तो क्या अपना सारा पैसा लुटा देंगी? और मैंने उनसे कहा था कि काश! मैं इस व्यवस्था को ही बदल पाती। पर कटु सत्य यही है कि मैं इस व्यवस्था को बदल नहीं सकती हूं लेकिन जिनके पास बदलने की क्षमता है वे शायद इस ओर ध्यान देना ही नहीं चाहते हैं।

सन् 2003 में मुझे जबलपुर में एक बार फिर पैडल रिक्शे की सवारी करनी पड़ी। रामपुर की ओर जाते समय एक ऊंचे ओव्हरब्रिज (जिसका नाम अब मुझे याद नहीं है) पड़ा। उस पर से गुजरते समय रिक्शे वाले को रिक्शे से उतर कर पैदल चलते हुए पूरी ताकत से रिक्शा खींचना पड़ रहा था। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उससे कहा,‘‘चढ़ाई बहुत अधिक है। रुको, मैं उतर जाती हूं।’’ रिक्शेवाले उसने मुड़ कर मेरी ओर देखा और बेफ्रिकी से बोला,‘‘अरे नहीं, आप बैठी रहो! यह तो मैं दिन में दस बार पार करता हूं।’’ मैं चुपचाप बैठी रह गई, जड़वत।
सच तो यही है कि ज़िदगी बहुत कुछ सिखा देती है बशर्ते कोई सीखना चाहे। कुछ लोग सब कुछ देखते हुए भी अनदेखा करते रहते हैं। इसी अनदेखापन के कारण अर्थव्यवस्था की एक निचली कड़ी में आज भी पैडल रिक्शा मौजूद हैं। आज भी मौजूद है उनकी लाचारी और विपन्नता। रिक्शा यूनियन्स मेहनताना  भले तय करा दें लेकिन उनकी हाड़तोड़ मेहनत तो कम नहीं करा सकती हैं।  

यह तो गनीमत है कि कई राज्य सरकारें अब इस ओर ध्यान दे रही हैं और पैडल रिक्शा की जगह उनके चालकों को ई-रिक्शा मुहैया कराया जा रहा है। समाज में इस तरह के बदलाव जरूरी हैं। हम चाहें चांद पर प्लाट खरीद लें या अंतरिक्ष में बस्ती बसा लें लेकिन हमारी प्रगति तब तक कलंकित रहेगी जब तक देश में एक भी इंसान को पैडल रिक्शा चलाना पड़ेगा या रिक्शा पुलर्स बन कर पशुओं की भांति रिक्शा खींचना पड़ेगा।
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