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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, November 30, 2022

चर्चा प्लस | श्यामा प्रसाद मुखर्जी वह कभी नहीं चाहते थे, जो हुआ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
श्यामा प्रसाद मुखर्जी वह कभी नहीं चाहते थे, जो हुआ...
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       हमारे देश की स्वतंत्रता उस आग के दरिया से गुज़र का पार लगी है जिसे हम विभाजन की विभीषिका के रूप में जानते हैं।  उस  दौरान लगभग 30 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की कठिनाइयों के कारण। इस जानहानि की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन विभाजन के पूर्व ही जो भयावह संकेत मिलने लगे थे उसे श्यामाप्रसाद मुखर्जी भांप गए थे। वे मुस्लिम लीग की गतिविधियों पर अंकुश लगाना चाहते थे। वे भारत को अखण्ड देखना चाहते थे। वे शांति चाहते थे। उन्होंने प्रयास भी किए लेकिन.....
सही-सही आंकड़े आज भी किसी को पता नहीं हैं। लेकिन जो अनुमान लगाए जाते हैं और तत्कालीन छायाचित्रों में शरणार्थियों की बाढ़ का जो दृश्य दिखाई देता है, वह अपने आंकड़े खुद ही बयान कर देता है।  यह माना जाता है कि देश के विभाजन दौरान पाकिस्तान से भारत और भारत से पाकिस्तान आने-जाने वाले शरणार्थियों में लगभग 30 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की की कठिनाइयां न झेल पाने के कारण। पाकिसतान से आने वालों को पता नहीं क्यों घर छोड़ कर निकलते समय एक धुंधली आशा फिर भी थी कि वे एक दिन अपने घरों को लौट सकेंगे। उस दौर में कोई अपने घर की चाबी पड़ोसी को देकर आया था और कोई अपने नौकर को, सोचा था कि कुछ दिन तक ऐसा चलेगा। इसके बाद वह दोबारा से पाकिस्तान वापस चले जाएंगे लेकिन ऐसा कभी नहीं हो सका। एक बार आए लोग दोबारा जाने की स्थिति में कभी नहीं आ सके। विभाजन के बाद के महीनों में दोनों नए देशों के बीच विशाल जन स्थानांतरण दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा जनस्थानांतरण माना जाता है। भारत की जनगणना 1951 के अनुसार विभाजन के एकदम बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गये और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए। लेकिन इन सबसे परे अनुमानित मौतों के आंकड़े आज तक पीड़ा देते हैं। सुदृढ़ भारत के स्वप्नद्रष्टा डाॅ श्यामा प्रसाद मुखर्जी  को  इस दुरास्वप्न के संकेत मिलने लगे थे। दुर्भाग्यवश उनके विचारों को उस समय गंभीरता से नहीं लिया गया। जिसका दंश कश्मीर की अशांति के रूप में अक्सर हमें कष्ट पहुंचाता रहता है।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी  ने अल्प आयु में ही बहुत बड़ी राजनैतिक ऊंचाइयों को पा लिया था। भविष्य का भारत उनकी ओर एक आशा भरी दृष्टि से देख रहा था। जिस समय लोग यह अनुभव कर रहे थे कि भारत एक संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है, उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के साथ भारत के विभाजन की पूर्व स्थितियों का डटकर सामना किया। देश भर में विप्लव, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक सौहाद्र्य बिगाड़ने के लिये भाषाई एवं दलीय आधार पर खूनी संघर्ष की घटनाओं से पूरा देश आक्रान्त था किन्तु इन विषम परिस्थितियों में भी डटकर, सीना तानकर ‘एकला चलो’ के सिद्धान्त का पालन करते हुए डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अखण्ड राष्ट्रवाद का पावन नारा लेकर महासमर में संघर्ष करते रहे।
डाॅ. मुखर्जी ने यह अनुमान लगा लिया था कि यदि मुस्लिम लीग को निरंकुश रहने दिया गया तो उससे बंगाल और हिन्दू हितों को भयंकर क्षति पहुंचेगी। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग सरकार का तख्ता पलटने का निश्चय किया और बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्त मंत्री बने। इसी समय वे वीर सावरकर के प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मलित हुए।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी थे। इसलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति कुछ आदर्शों और सिद्धान्तों के साथ प्रारम्भ की थी। सार्वजनिक जीवन में पदार्पण करने के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रखर विचारधारा से, सम्मेलनों, जनसम्पर्क एवं सभाओं के माध्यम से, अपने ज्वलन्त उद्बोधनों से, जनता के मन में एक नयी ऊर्जा व नये प्राण का संचार किया। उनकी लोकप्रियता और उनकी ख्याति दिनों-दिन बढ़ती गयी। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी महान शिक्षाविद्, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। डाॅ. मुखर्जी की ‘जनसंघ’ के विचार किसी भी प्रकार से संकुचित नहीं थे। वे जनसंघ के रूप में आमजन के लिए एक सशक्त संघीय प्रणाली को स्थापित करना चाहते थे। राष्ट्र और राष्ट्र का आमजन उनके लिए प्रमुख था, राजनीतिक विचारधारा नहीं। एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में वे सदैव भारत के हित में कार्य करते रहे। एक समर्पित राष्ट्रभक्त के रूप में उनका उदाहरण दिया जाता है। भारतीय इतिहास उन्हें एक जुझारू कर्मठ विचारक और चिन्तक के रूप में स्वीकार करता है। भारत के लाखों लोगों के मन में एक निरभिमानी देशभक्त की उनकी छवि अमिट रूप से अंकित है। वे आज भी बुद्धिजीवियों और मनीषियों के आदर्श हैं। वे लाखों भारतवासियों के मन में एक पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज के रूप में आज भी समाए हुए हैं।
तत्कालीन शासन व्यवस्था में सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के विशद जानकार के रूप में उन्होंने समाज में अपना विशिष्ट स्थान अर्जित कर लिया था। एक राजनीतिक दल की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण जब बंगाल की सत्ता मुस्लिम लीग की झोली में डाल दी गई और सन् 1938 में आठ प्रदेशों में अपनी सत्ता छोड़ने की आत्मघाती और देश-विरोधी नीति अपनायी गयी तब डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से देशप्रेम और राष्ट्रप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया और राष्ट्रप्रेम का सन्देश जन-जन में फैलाने की अपनी पावन यात्रा का श्रीगणेश किया।
मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहां साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से विफल कर दिया। उनके प्रयत्नों से हिन्दुओं के हितों की रक्षा हुई। सन् 1942 में जब ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया और देश नेतृत्वहीन और दिशाहीन दिखाई देने लगा। ऐसी कठिन परिस्थितियों में डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल के पक्ष मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर भारत को नयी दिशा दी।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। वहीं मोहम्मद अली जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को एक अलग राष्ट्र के लिए मुस्लिम समुदाय के समर्थन के प्रदर्शन के रूप में प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस के रूप में घोषित किया। कलकत्ता और बॉम्बे के शहरों में दंगे फैल गए जिसके परिणामस्वरूप लगभग 5000-10,000 लोग मारे गए और 15,000 घायल हो गए। 9 दिसंबर 1946 को मुस्लिम लीग ने, जिसने पहले कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया था, अब इस आधार पर अपना समर्थन वापस ले लिया कि विधानसभा में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों की उचित सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं थी। ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षडयंत्र को कुछ नेताओं ने अखण्ड भारत सम्बन्धी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। उस समय डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खण्डित भारत के लिए बचा लिया। महात्मा गांधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खण्डित भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल हुए। राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और शीघ्र ही अन्य राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बडा दल था।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहां का मुख्यमन्त्री वजीरे-आजम अर्थात् प्रधानमंत्री कहलाता था। संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डाॅ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। वे जानते थे कि यदि आज एक राज्य पृथक्करण का रास्ता थाम लेगा तो अन्य प्रांतों में भी अलगाव की आग धधक उठेगी और देश का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि ‘‘या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।’’
उन्होंने तात्कालीन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ़्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन पर उनके मित्र कवि हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने उनकी स्मृतियों को समर्पित करते हुए एक कविता लिखी थी, जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं -

एक महामानव चला गया...
हे मित्र! हम अनुभव करेंगे
तुम्हारी उपस्थिति की कमी का
हम अनुभव करेंगे तुम्हारी
उस वाणी का
जो हर बार तुम्हारे मुख से निकल कर
तुम्हारे विचारों की गर्जना करती थी
हम कैसे, किस भाषा में व्यक्त करें
अपने इस दुख को
और हम कैसे भूल सकेंगे
इस शोकपूर्ण दिन को?

इस प्रकार देश की एकता और अखण्डता के लिए समर्पित डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूप में एक राष्ट्रवादी व्यक्तित्व सदा के लिए सो गया किन्तु उनके द्वारा जलाई गई देशप्रेम की अलख आज भी सतत् रूप से जल रही है।
      उल्लेखनीय है कि मैंने अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: श्यामा प्रसाद मुखर्जी’’ में उनके जीवन और विचारों पर विस्तृत शोधात्मक तथ्य प्रस्तुत किए हैं। यह पुस्तक दिल्ली के सामयिक प्रकाशन से 2015 में प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तकालयों, पुस्तक की दूकानों तथा ऑनलाईन भी उपलब्ध है। दरअसल, मुझे लगता है कि युवा पीढ़ी को अतीत के उन तथ्यों से परिचित होना चाहिए जिन पर वर्तमान की स्थितियां टिकी हुई हैं। साथ ही इन तथ्यों को बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी राजनीतिक चश्में के पढ़ा जाना चाहिए तभी हम अपने अतीत की भूलों को भी पहचान कर उन्हें वर्तमान में सुधार सकेंगे।        
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#श्यामाप्रसादमुखर्जी 

Tuesday, November 29, 2022

पुस्तक समीक्षा | थ्रिलर, हाॅरर पढ़ने वालों के लिए एक दिलचस्प उपन्यास | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 29.11.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई प्रस्तुत है आज 29.11.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका शोभा शर्मा के उपन्यास "एक थी मल्लिका" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
थ्रिलर, हाॅरर पढ़ने वालों के लिए एक दिलचस्प उपन्यास 
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास     - एक थी मल्लिका
लेखिका     - शोभा शर्मा
प्रकाशक     - फ्लाई ड्रीम्स पब्लिेकेशन, जैसलमेर, राजस्थान
मूल्य        - 150/-
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शोभा शर्मा एक ऐसी लेखिका हैं जिन्हें महाविद्यालय में नाटक ‘‘अग्नि लीक’’ में सीता का अभिनय करने पर पुरस्कृत किया गया था। उन्हें लेखन से हमेशा लगाव रहा है। उनकी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं जो आमतौर पर पारिवारिक परिवेश की कहानियां रही हैं। स्वयं के पारिवारिक जीवन को सम्हालते हुए और अध्यापनकार्य करते हुए शोभा शर्मा ने अपनी लेखन यात्रा को सतत जारी रखा और एक चैंका देने वाला उपन्यास लिखा ‘‘एक थी मल्लिका’’। यह उनके पूर्व लेखन से हट कर हाॅरर और थ्रिलर उपन्यास है। इसमें हवेली है, भूत-प्रेत हैं, तंत्र-मंत्र हैं और अतीत का कड़वा, काला सच भी है जो रोंगटे खड़े करने की क्षमता रखता है।
वस्तुतः जो गोपन रहता है, वही कौतूहल जगाता है। गहन अंधकार इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जिसमें व्यक्ति कुछ भी देख नहीं पाता है और यह अज्ञात उसके मन में कौतूहल के साथ-साथ भय का संचार भी करता है। इसीलिए प्रायः व्यक्ति गहरे अंधेरे में जाने से डरते हैं। मन में सोया पड़ा यही डर अनुकूलता पा कर जाग उठता है और मन में भूत, प्रेत, ड्रैकुला आदि नानाप्रकार की डरावनी छवियां उभरने लगती हैं। अंग्रेजी में ऐसे उपन्यास बहुत लिखे गए और जिन्होंने दुनिया भर की भाषाओं में अनूदित हो कर धूम मचाया। इनमें कुछ हैं-स्टीफन किंग का ‘‘कैरी’’, शर्ली जैक्सन का ‘‘द हंटिंग ऑफ हिल हाउस’’, कॉरमैक मैकार्थी का ‘‘ब्लड मेरिडियन’’, रिचर्ड मैथेसन का ‘‘हेल हाउस’’, विलियम पीटर बैट्टी का ‘‘द एक्साॅकर््िस्ट’’, जे एंसन का ‘‘एमिटीविले हॉरर’’ आदि। वैसे, दुनिया का सबसे मशहूर हाॅरर उपन्यास माना जाता है आयरिश लेखक ब्राहम स्टोकर का ‘‘ड्रैकुला’’। यह कहा जाता है कि ‘‘ड्रैकुला’’ पात्र रोमानिया (वैलाचिया) के राजकुमार व्लाड थर्ड पर आधारित था। राजकुमार व्लाड को रोमानिया में एक हीरो की तरह माना जाता था, लेकिन अपने दुश्मनों के प्रति उसकी क्रूरता ने उसे हाॅरर उपन्यासों का कालजयी खलनायक बना दिया। एक रक्तपिपासु पिशाच। वस्तुतः राजशाही के समय में अपने दुश्मनों के साथ भांति-भांति की क्रूरता बरती जाती थी। जो ज़मींदार या राजा स्वभाव से ही क्रूर होते थे वे निर्दोषों को भी अमानवीय यातना भरी मौत देते थे। जिससे यह किंवदंतियां प्रचलित होती गईं कि क्रूरतापूर्वक असमय मार दिए जाने या मरने को विवश किए जाने वाले की आत्माएं अतृप्त रह जाती हैं और वे प्रेत योनि में इसी संसार में भटकती रहती हैं। संसार भर के राजमहल और हवेलियां जानलेवा षडयंत्रों के किस्सों से भरी पड़ी हैं। इसीलिए ब्रिटेन के अधिकांश पुराने महल प्रेतबाधा से ग्रसित माने जाते हैं। भारत में भी कई ऐसे किले और पुराने भवन हैं जिनमें आत्माओं के पाए जाने के किस्से जुड़े हुए हैं। इन किस्सों के पीछे वह भयावह सच विद्यमान है जिन्होंने अतीत के पन्ने निर्दोषों के रक्त से रंगे। मार कर या जीवित दीवारों में चुनवा दिया जाना, सुंदर स्त्रियों को भोग्यावस्तु की तरह प्रयोग में लाना और फिर उनका अस्तित्व विलीन कर देना-यह सब राजशाही का एक घिनौना पक्ष रहा है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ऐसे घृणित षडयंत्रों में मात्र पुरुषवर्ग लिप्त रहता रहा हो। रनिवास की रानियां और जमींदारों की पत्नियंा भी घिनौने प्राणलेवा षडयंत्रों में पीछे नहीं रहती थीं। कभी राजनीति के नाम पर, तो कभी रनिवास में वर्चस्व बनाए रखने की ललक में तो कभी, मात्र ईष्र्या-द्वेष के वशीभूत। राजनीतिक षडयंत्रों के मामले में मुगल शासक अकबर का लालन-पालन करने वाली माहमअंगा के षडयंत्र इतिहास में दर्ज़ हैं।
‘‘एक थी मल्लिका’’ उपन्यास में किसी राजपरिवार के षडयंत्र का नहीं वरन ज़मींदार परिवार की हवेली में रचे गए षडयंत्र और उससे उपजे हत्याकांड सामने आते हैं। उपन्यास के बारे में और कोई चर्चा करने से पूर्व यह बता देना जरूरी है कि इसमें बुंदेलखंड के टीमकगढ़ की एक हवेली से जुड़ी कथा को उठाया गया है। लेखिका स्वयं टीकमगढ़ की रहने वाली हैं इसलिए वहां के इतिहास, भूगोल से वे भली-भांति परिचित हैं और इसीलिए उपन्यास में उस क्षेत्र में प्रचलित परंपराओं, लोकाचार, बोली और अंधविश्वासों का बखूबी उपयोग किया है। इससे उपन्यास अधिक विश्वनीय प्रतीत होने लगता है।
उपन्यास का आरंभ एक हवेली से होता है, जिसके पास से गुज़रते हैं दो ऐसे हलवाइए जो शादी-विवाह की कैटरिंग में काम करते हैं। वे दोनों एक अनुबंध पर उस गांव में खाना बनाने आते हैं। दिन भर व्यंजन पकाने के बाद वे दोनों खुली हवा में टहलने निकल पड़ते हैं। वे टहलते-टहलते एक हवेली के पास से गुज़रते हैं कि तभी उन्हें किसी का मधुर स्वर सुनाई देता है। एक स्त्री का स्वर जो उन दोनों से कहती है-‘‘ओ लाला! इते तौ आओ! हमाए जूड़ा कौ गुलाब गिर गौ है ड्योढ़ी पै, उठायैं तो ल्याईऔ!’’ वे दोनों देखते हैं कि उनके सामने सुर्ख़ लाल ताज़ा गुलाब गिरा हुआ है। वे सिर उठा कर देखते हैं तो ऊपर झरोखे पर एक स्त्री दिखाई देती है। ‘‘सुंदरी सोलहों श्रृंगार किए बैठी थी, उस पर मुस्कुरा कर आग्रह भी किए जा रही थी,‘‘तनक आइयो तौ ऊपर...ओ लाला!’’
‘‘दोनों की रगों में सनसनसहट होने लगी, कनपटियां गर्म हो उठीं, दिल जोरों से धड़क कर खुद से ही बग़ावत कर बैठे। आंखों के डोरे गुलाबी हो उठे। पता नहीं क्या हो जाए आज की रात....पता नहीं, बहत कुछ होने वाला है। ... सोलह श्रृंगार किए झरोखे पर बैठी, खनकती आवाज़ में सुंदरी गलाब लेकर ऊपर आने का आग्रह करती है, मुस्कुराती है तो इन परदेसी राजू, जग्गू के मन में हलचल मच जाती है। वे बेताब हो उठते हैं ऊपर जाने को। उस सुंदरी के साहचर्य को। ऐसा मौका उन्हें फिर और कब मिलेगा? ...सच बखूबी चित्रित किया है कि किस प्रकार साधन और शक्ति सम्पन्न लोग गरीब और असहाय घरों की सुंदर अवयस्क लड़कियों को भी अपने घर की कथित बहू बना कर ले जाया करते थे। वर की अनुपस्थिति में उसकी निर्जीव तलवार या कटार से वधू का विवाह करा दिया जाना घोर अन्याय था। लेकिन राजशाही के समय में यह अन्याय परिपाटी बना कर स्थापित कर दिया गया था। बुंदेलखंड में इसी मुद्दे पर एक लोककथा प्रचलित है जिसे ‘‘दशामता की कथा’’ के नाम से जाना जाता है। यद्यपि इस लोककथा को अब व्रतकथा के रूप में बांचा जाता है। इस कथा में एक निःसंतान सेठ द्वारा दूर देश की एक कन्या को अपने ऐसे पुत्र की तलवार के साथ ब्याह कराकर ले आता है जिस पुत्र का अस्तित्व भी नहीं है। उस कन्या को ससुराल पहुंच कर सच्चाई का पता चलता है। बहरहाल, यह कथा तो सुखांत पर पहुंचती हैं किन्तु वास्तविक जीवन की हर कथा सुखांत नहीं रही। यही कड़वा, घिनौना सच सामने आता है जब मल्लिका आपबीती सुनाना आरंभ करती है।
प्रकाशक ने ‘‘एक थी मल्लिका’’ को ऐतिहासिक हाॅरर उपन्यास की श्रेणी में रखा है। जो सही है क्योंकि इस उपन्यास के हर मोड़ पर एक सस्पेंस मिलता है। इसके दिलचस्प पहलू बुंदेली परिवेश और बुंदेली बोली का प्रयोग भी है जो इसे और अधिक रोचक बना देता है। भूत-प्रेत पर आधारित सामग्री पसंद नहीं करने वाले  पाठकों को यह अंधविश्वास से भरा हुआ उपन्यास लग सकता है किन्तु यदि इसे मनोरंजन और अतीत की कटु सच्चाई के दृष्टिकोण से पढ़ा जाए तो यथार्थ की अनेक पर्तें खुलती हुई मिलेंगी। उपन्यास के कलेवर के बारे में और अधिक बता कर उसका थ्रिल और सस्पेंस खत्म नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी यह कहा जा सकता है कि यह उपन्यास बुंदेलखंड की हवेलियों के षडयंत्रकारी अतीत से परिचित कराता है। स्त्री के प्रति होने वाले अन्याय का रोंगटेखड़े कर देने वाला चेहरा दिखाता है। ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट, भूत-प्रेत के साथ ही डर की प्रतीत खूंखार काली बिल्ली भी इस उपन्यास में मौजूद है। यानी हाॅरर, थ्रिलर उपन्यास पसंद करने वालों के लिए ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का एक फुल पैकेज़ है यह उपन्यास।     
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Sunday, November 27, 2022

कवि नरेश मेहता जन्मशती पर राष्ट्रीयसंगोष्ठी में विषय विशेषज्ञ डॉ (सुश्री) शरद सिंह

"जब अनुभव, संवेदनाएं और विचार एकसाथ काम करते हुए किसी काव्य का सृजन करते हैं तो वह कविता युगसाक्षी काव्य के रूप में प्रकट होती है। नरेश मेहता ने अपने युग को न केवल जिया अपितु अतीत के कथानकों पर रख कर विश्लेषित और आंकलित भी किया। चाहे ‘‘संशय की एक रात’’ हो या ‘‘प्रवाद पर्व’’ हो, वे गद्य या पद्य के शिल्प से ऊपर उठ कर मानव प्रजाति के सांस्कृतिक विकास के धनात्मक एवं ऋणात्मक पक्ष को सामने रखने का पूरा यत्न करते हैं। ... नरेश मेहता उस ‘‘भाव-प्रजाति के कवि’’ थे जो किसी वाद या खेमे में स्वयं को खड़ा किए बिना अपनी बात रखने का साहस रखते थे।" विषय विशेषज्ञ के रूप में मैंने अपने ये विचार रखे  महाराज छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर के हिंदी विभाग एवं केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा कवि नरेश मेहता के जन्म शताब्दी के अवसर पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम दिन के प्रथम तकनीकी सत्र में । 25 नवंबर 2022 को।
     मेरा विषय था, "कवि नरेश मेहता और उनकी भाव-प्रजाति"।
      सत्र अध्यक्षता डॉ देवेंद्र शुक्ल अध्यक्ष सूचना एवम् भाषा प्रौद्योगिकी विभाग, केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा ने की। मेरे यानी डॉ (सुश्री) शरद सिंह के साथ ही, निराला पीठ के निदेशक डॉ श्रीराम परिहार ने, सागर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के आचार्य आनंद प्रकाश त्रिपाठी, ग्वालियर के डॉ विष्णु अग्रवाल ने अपने विचार रखे। सत्र का संचालन किया हिंदी विभाग की प्रो गायत्री बाजपेयी ने। संगोष्ठी के संयोजक थे प्रो बहादुर सिंह परमार जी ।
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डॉ हरिसिंह गौर जयंती 2022 | डॉ (सुश्री) शरद सिंह


मित्रो, गौर जयंती पर दिनभर की गहमागहमी के बाद रात को विश्वविद्यालय परिसर में मेले-सा माहौल देखते ही बनता है... अपने पितृपुरुष डॉ हरिसिंह गौर जी के जन्मदिन मनाने का उत्साह...

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Article | Climate Change and Our Eating Behavior | Dr (Ms) Sharad Singh | Central Chronicle


Article
Climate Change and Our Eating Behavior
-    Dr (Ms) Sharad Singh
Writer, Author & Social Activist
Blogger - "Climate Diary Of Dr (Ms) Sharad Singh"

Sometimes such things also have such a deep impact on each other that we cannot even think about them. When someone says that our food habits have a profound effect on the climate, we find it strange to hear it. Humans have been associated with food since the dawn of their existence. Food keeps him alive. But the same food is now having a negative impact on the climate in the form of a carbon footprint. Let us see how our food habits affect the climate and how we can bring changes in our food habits.

What connection could there be between climate change and our eating habits? It sounds weird too. But the truth is that our eating behavior also has a positive or negative impact on climate change. What we eat, and how that food is produced, affects our health but also the climate. Now it needs to be understood a little openly. Actually, food needs to be grown and processed, transported, distributed, prepared, consumed, and sometimes disposed of. Each of these steps creates greenhouse gases that trap the sun’s heat and contribute to climate change. About a third of all human-caused greenhouse gas emissions is linked to food.

Climate scientists say change, including moderating our diets, is exactly what's needed to bring down greenhouse gas emissions from food. That means eating less red meat and more plant-based foods. Producing plant-based foods generally results in fewer greenhouse gas emissions and requires less energy, land, and water. Opting for seasonal fruits produce rather than buying, say, non-seasonal fruits can also make a difference. Meat, cheese and eggs have the highest carbon footprint. Fruit, vegetables, beans and nuts have much lower carbon footprints. If we move towards a mainly vegetarian diet, we can have a large impact on our personal carbon footprint.
The largest chunk of food-related greenhouse gases comes from agriculture and land use. For instance - methane from cattle’s digestive process, nitrous oxide from fertilizers used for crop production, carbon dioxide from cutting down forests for the expansion of farmland, other agricultural emissions from manure management, rice cultivation, burning of crop residues, and the use of fuel on farms. With this, a share of the greenhouse gas emissions are caused by refrigeration and transport of food, industrial processes such as the production of paper and aluminum for packaging, the management of food waste too. Then there are several other stages in a food system directly or indirectly responsible for carbon emissions. For instance, felling forests to make way for farms and pastures removes a major carbon sink and thus indirectly contributes to emission load in the atmosphere. Running farm machinery on fossil fuels and manufacturing of agrochemicals and fertilisers too emit greenhouse gases.
The climate impact of food is measured in terms of greenhouse gas emissions intensity. The emissions intensity is expressed in kilograms of “carbon dioxide equivalents” – which includes not only CO2 but all greenhouse gases – per kilogram of food, per gram of protein or per calorie. Animal-based foods, especially red meat, dairy, and farmed shrimp, are generally associated with the highest greenhouse gas emissions. This is because meat production often requires extensive grasslands, which is often created by cutting down trees, releasing carbon dioxide stored in forests. Cows and sheep emit methane as they digest grass and plants.The cattle’s waste on pastures and chemical fertilizers used on crops for cattle feed emit nitrous oxide, another powerful greenhouse gas. Shrimp farms often occupy coastal lands formerly covered in mangrove forests which absorb huge amounts of carbon. The large carbon footprint of shrimp or prawns is mainly due to the stored carbon that is released into the atmosphere when mangroves are cut down to create shrimp farms.

Plant-based foods – such as fruits and vegetables, whole grains, beans, peas, nuts, and lentils – generally use less energy, land, and water, and have lower greenhouse gas intensities than animal-based foods.
76% of the world's population gets most of its daily nutrients from plants—yet climate change is already causing droughts and flooding that can destroy staple food crops. If extra CO2 in the atmosphere makes those crops less nutritious, it will be even harder to feed the world's growing population. Increased water scarcity due to climate change reduces the capacity to produce food and its quality, which has serious implications for food security, nutrition and health. In Ethiopia alone 9.7 million people are currently in need of emergency food aid. The more climate changes and the more that extreme climate events become commonplace, the more food we lose on an annual basis. According to the UN's Food and Agriculture Organization, roughly one-third of the food produced by farmers is lost between the field and the market in low- and middle-income countries.
So, how can food-related emissions are reduced? Indeed, reducing emissions from the food sector requires changes at all stages, from producers to consumers. By including more and more vegetarian foods in our diet, we can significantly reduce greenhouse gas emissions. Consuming higher amounts of low-emitting substances—beans, chickpeas, lentils, nuts, and grains—as opposed to high-emitting substances—meat and dairy products such as butter, milk, cheese, meat, coconut oil, and palm oil. We can significantly reduce our environmental impact by making small changes in our eating habits. This change will be beneficial for both health and climate from every point of view. In the last decade, the trend towards being vegetarian has increased in developed western countries like America and Britain. There is no religious reason behind this but the desire to reduce the carbon footprint. That is why even those people who have been eating meat for generations are becoming vegan. Such efforts make a lot of sense towards reducing the carbon footprint in the climate. Therefore, we should also pay attention to the behavior of our food so that we too leave at least a carbon footprint.
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(27.11.2022)
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Thursday, November 24, 2022

श्री के. एस. नूर , एडमिरल भारतीय नौसेना (रिटा.) जी के साथ 'टी-पार्टी' - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

मित्रो, कभी-कभी चौंका देने वाली घटना हो जाती है। शुरुआत सामान्य थी... एक आत्मीय आमंत्रण प्रिय साहिबा नासिर जी की ओर से जिसमें उन्होंने घर पर आमंत्रित किया था अपने बड़े भाई  श्री के. एस. नूर , एडमिरल भारतीय नौसेना (रिटा.) जी के साथ एक 'टी-पार्टी' के लिए। एक सैन्य डिसिप्लिन वाली पार्टी की कल्पना थी और एडमिरल नूर के  स्वभाव का अनुमान लगाना कठिन था। लेकिन जब मैं बहन साहिबा जी के घर पहुंची और नूर साहब से जब परिचय कराया गया तो उनकी सादगी सहजता देखकर मैं चकित रह गई। कुछ चर्चा- परिचर्चा के बाद और पर्तें खुलीं, तो पता चला कि नूर साहब ख़ुद भी बेहतरीन शायरी करते हैं। वे कहानियां भी लिखते हैं। उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। यह सब जानना सुखद आश्चर्य था। मैंने भी उन्हें अपनी तीन पुस्तकें भेंट की।
     शेरो-शायरी और गानों का दौर चला। 
     बाहरहाल, इस ख़ुशनुमा मुलाक़ात की जो सबसे यादगार बात थी वह यह कि नौसेना के सर्वोच्च पद से सेवानिवृत्त होने वाला व्यक्ति भी एकदम सरल और सहजता भरा हो सकता है, यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। नूर साहब का हंसमुख स्वभाव बिलकुल अपनी बहन साहिबा जी और बहनोई  नासिर सिद्दकी की तरह। 
 
   🌷Thank you very much Sahiba Nasir ji for a pleasant tea party  ☕

बतकाव बिन्ना की | अपने किसान भैया भौतई जिगरा वारे आएं | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"अपने किसान भैया भौतई जिगरा वारे आएं"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की      
अपने किसान भैया भौतई जिगरा वारे आएं                             
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
            ‘‘काए भैयाजी! बड़ी हांफी-सी आ रई, काए कां से भगत चले आ रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी। ठंड परन लगी मनो उनके माथे पे पसीना चुचुआ रओ हतो।
‘‘ने पूछो बिन्ना! रामधई गोड़े दुखन लगे, कम्मर पिरान लगी। जे कै लेओ के हाड़-गोड़ सबई कछू पिरा रए।’’ भैयाजी ऊंसई हांफत-हांफत बोले।
‘‘चलो लेओ! जो ठंडो पानी पियो! कछु अच्छो लगहे।’’ मैंने भैयाजी को पानी को गिलास थमा दओ।
‘‘अरे मोरी बिन्ना! जे ठंडे पानी से कछू न हुइए। चाय-माय पिलाओ सो कछू जान में जान आए।’’ भैयाजी कही।
‘‘हऔ, चाय सोई पिला दे रई।’’ मैंने भैयाजी से हंस के कही औ चाय बनाबे के लाने किचन में चली गई।
‘‘लेओ, जे रही आपकी चाय!’’ मैंने भैयाजी खों कप पकरा दओ। तब लों भैयाजी सुस्ता चुके हते।
‘‘चलो, अब आप बताओ के किते से आ रए जो इत्ते थक गए? मों देख के ऐसो लग रओ के मनो कोनऊं ने कुचर-कुचर के मारो होय।’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘ऐसई समझ लेओ बिन्ना! अपने जे किसान भैया हरें बड़े जिगरा वारे कहाने, ने तो हमाए तो दोई दिना में राम नाम सत्त भओ जा रओ हतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसो ने कहो भैयाजी! शुभ-शुभ बोलो! राम नाम सत्त होएं आपके दुस्मन के। मनो जे किसान भईयन की बात कां से आ गई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘आने कां से? अरे, तुमने अखबार में पढ़ो हुइए के आजकाल सरकार किसानों के लाने यूरिया बांट रई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो, आप को का करने? आपके कोन से खेत आएं?’’ मैंने भैयाजी खों टोकों।
‘‘मोय नई चायने रओ। बाकी मोरो संग वारो आए न वो, रामचरण, ऊके खेत आएं। ऊने मोसे कई के संगे चलो! उते लेन में लगे-लगे जी सो उकता जात आए। अपन दोई रैहें सो चाए बतकाव करहें, चाए काना-दुआ खेलहें। तुमाओ खर्चा-पानी हमाई तरफी से। हमसे सोई सोची के आजकाल कछु खास काम सो है नईं, सो रामचरण के संगे घूम आएं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अच्छो करो!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘का अच्छो करो! हमाई मति मारी गई रई के ऊकी बातन में आ गए। वा सो हर साल जात रैत आए, सो ऊको सब पतो आए। मनो हमें सो कछु पतो नई रओ। हमने सोची के ऊके संगे जाबी, घूमबी, फिरबी। दोई जने बतकाव करबी औ अच्छो माल-टाल छानबी। काए से के ऊकी घरवारी ने मुतकी चीजें बना के संगे बांध दई रई।’’ भैयाजी बातन लगे।
‘‘फेर?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘फेर का! काल दुफारी बाद लो उते पौंचे। कछु नईं तो एक-डेढ़ किलोमीटर लम्बी लेन लगी रई। हम दोई जने ट्रेक्टर की ट्राली पे बैठ के काना-दुआ खेलने लगे। इत्ते में दो-चार जने औ आ गए। बे ओरें चा रए हते के ऊमें पइसा लगाओ जाए। बाकी हमने कै दई के हमें जुआ-पट्टी नईं करने! टेम पास की खेलने होय सो खेलो, ने तो फूटो इते से। बे ओरे हम ओरन से पैले से उते मौजूद रए, सो बे पैलऊं भौत बोर हो चुके रए। सो, बे बिना पइसा की खेलबे खों राजी हो गए। दिन ढर गओ, रात हो आई, मनो हम ओरन को नंबर ने आओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर?’’ मैंने पूछी।
‘‘फेर जे के, रात को खुल्ले में हम दोई जने डरे हते। गरम हुन्ना-लत्ता सो ले गए रए, फेर बी जाड़ो लगत रओ। जेई में एक बड़ी उम्मर के किसान भैया हते सो उनकी तबीयत बिगर गई। हम ओरने को लगो के कहूं बे निपट ने जाएं। सो, दो-तीन जने उनको ले के अस्पताले दौड़े। अपने रामचरण भैया के बे पैचान वारे हते सो रामचरण सोई उनके संगे चलो गओ। औ जात-जात मोसे कै गओ के ऊको नंबर को खयाल मोय रखने परहे। सो, जे चिंता में मोय नींद लो नई आई। रई बिछावन की, सो, बा ट्राली पे चाए कोनऊ टाईप को गद्दा डाल लओ जाए, रैतो सो पथरई घांई। अखीर लोहा, सो लोहा ठैरो। ऊ पे जे ठंड के दिना में, खुल्ले में लोहा औरई जुड़ान लगत आए। ने तो मोसे लेटत बन रओ हतो औ ने बैठत बन रओ हतो। कैसऊं ने कैसऊं रात कटी। भुनसारे होतई साथ समस्या जे आई के, अब जो दिसामैदान के लाने निकरत हों सो कऊं रामचरण को नंबर ने आ जाए, औ अपने रामचरण भैया तबलों लौटे ने हते।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे तो वाकई बड़ी वारी समस्या आ गई रई।’’ मैंने भैयाजी से कही। औ कहत साथ मोय हंसी सोई आ गई।
‘‘तुमें हंसी-ठींठीं सूझ रई! तुम उते होतीं, सो पता परती।’’ भैयाजी खिझात भए बोले। फेर आगे बतान लगे, ‘‘बो तो कओ के कछू देरी में रामचरण आ गओ। सो हम दिसामैदान खों दौड़े। जबलों हम कुल्ला-मुखारी कर के लौटे, रामचरण ने चाय बना लई हती। बो सयानों आती बेरा अपने संगे दूध, चायपत्ती लेत आओ रओ। ने तो उते होटल की कट से बी कट चाय पी के सो हमाओ कछू न होतो। रामधई! हम दोई जने ने उते लुटिया भर-भर के चाय पी। रामचरण की घरवारी ने निमकी, शकरपारे रख दए रए, सो बे खाए। मनो फेर के दुफारी होन लगी पर रामचरण को नंबर ने आओ। हमने रामचरण से कही के भैया, जे दो बोरी यूरिया के लाने काय अपने दो दिना खराब कर रए? चलो, दूकान से ले लइयो। सो बो कैन लगो के ई समै पे कहूं ने मिलहे। इतई से लेने परहे। जो तुम थक गए हो सो घरे लौट जाओ! बाकी हम तो यूरिया ले केई लौटबी। हमने ऊसे कही के ऐसे कैसे हो सकत आए? संगे आएं हैं सो संगे लौटबी।’’  
‘‘औ का! बिलकुल सही कई आपने!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘अरे का बिन्ना! कैने को सो कै दई, मनो रात में जो ठंड लगी रई, ऊसे हाथ-गोड़े पिरा रए हते। घर में अच्छी-साजी गद्दा-पल्ली पे सोअत आएं, पर उते तो पथरा घांईं लोहा की ट्रली हती। मोरो तो जी सो घबड़ान लगो रओ, मनो रामचरण खों छोड़ के आओ बी नईं जा रओ हतो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘फेर कबे मिलो यूरिया?’’ मैंने भैयाजी कही।
‘‘आज भुनसारे नंबर लगो। हमने दोई बोरी लादी ट्राली में औ उते से ऐसे भागे, मानो कोनऊं भूत दिखा गओ होय। ऊने पैले मोरे घर मोय पोंचाओ, फेर बो अपने घरे चलो गओ। तुमाई भौजी को हमने आपबीती सुनाई सो बे हमाए अंसुवा पोंछन के बजाए बिगर परीं के कोन ने कई रई जाबे की। अब कहूं तुमाई तबीयत बिगर गई सो का हुइए! अब तुम तो जानते हो बिन्ना के जब तुमाई भौजी बिगरत आएं सो उते से भागबे मेंई भलाई रैत आए। तभई तो हम तुमाए इते भाग आए। तुमाई भौजी ने सो हमें चाय की बी नईं पूछी।’’ भैयाजी बोले।
 ‘‘खैर, भौजी की छोड़ो आप, उनको कैबो बी सही आए। आपको खेत में, खुल्ला में सोबे की आदत सो आए नईं। कहूं कछू ज्यादा ठंड-मंड लग जाती, सो सल्ल बींध जाती। मनो भैयाजी, आपने सही कई, के अपने किसान भैया हरें भौतई जिगरा वारे आएं।’’ मैंने भैयाजी से कही।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। मनों जे यूरिया-मूरिया बांटबे को कोनऊं और सही तरीका होने चाइए। अच्छो रै के खुल्ला बाजार में सब्सिडी दे के कम दोम पे बिकन देंवें। जोन खों जब लगे सो वो तभई उठा ले। बाकी ईकी बारीकी सो अपने किसान भैया जानत हुइएं, मोरे सो न खेत आएं औ न मैंने कभऊं खेती करी। बाकी जे है के दूसरन की पीड़ा में मोरो जी दुखत आए। तो अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(24.11.2022)
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