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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, November 2, 2022

चर्चा प्लस | प्रकृति की महत्ता स्थापित करती है आंवला नवमी | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस 
प्रकृति की महत्ता स्थापित करती है आंवला नवमी
            - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
   आंवला नवमी पर आंवला बहुत कुछ याद दिलाता है। आंवले का प्राश, आंवले का चूर्ण, आवंले का अचार, आंवले का मुरब्बा, आंवले का जूस आदि। ऋषि-मुनियों का स्मरण कराते हुए सुंदर पैकेजिंग में बेचा जाता है और हर उपभोक्ता उसे बड़ी खुशी से खरीदता है। उसे पता है कि ये सब उसकी सेहत को संवारेंगे। लेकिन कभी क्या कोई व्यक्ति यह जानने का प्रयास करता है कि उसके शहर में आंवले के कितने पेड़ बचे हैं? या फिर क्या वह कभी सोचता है कि अपना घर बनवाते समय वह एक छोटा-सा हिस्सा खुले आंगन के रूप में छोड़ सकता था उस आंवले के पेड़ के लिए, जो उसे छांह भी देता और सेहत भी देता। विडम्बना है कि आज हम प्रकृति से नहीं बल्कि बाज़ार से सेहत खरीदना पसंद करते हैं।
मेरे परिचित का मकान बन रहा था। वे प्लाट ले कर मकान बनवा रहे थे। मैंने उनके मकान का लेआउट प्लान देखा तो पूछे बिना नहीं रह सकी कि इसमें आपने खुला आंगन क्यों नहीं रखा? वे बोले, ‘‘क्या करना है? टेरेस में कुछ गमले रखवा लेंगे। वहां सुंदर भी दिखेंगे वे।’’ मैंने दबे स्वर में आग्रह किया कि ‘‘वैसे घर में ख्ुाला आंगन हो तो थोड़े बड़े पेड़, पौधे, बेलें आदि लगाई जा सकती हैं।’’ उन्होंने मुझे आड़े हाथों लेने का प्रयास किया-‘‘आपने भी तो नहीं रखा है खुला आंगन।’’ मैंने उन्हें याद दिलाया कि मेरा घर प्लाट के रूप में नहीं बल्कि बिल्डर द्वारा बनाई गई काॅलोनी में मकान के रूप में पजेशन में आया था। फिर भी हम लोगों ने घर से लगा हुआ तिकोना हिस्सा दस हज़ार रूपए अतिरिक्त दे कर (उस समय की कीमत के हिसाब से) खरीदा था जिसमें अमरूद, पपीता, सेम, गुड़हल, केला आदि फल-फूल के पेड़-पौधे लगाए थे। ज़्यादा बड़ा और खुली जमीन वाला मकान हम लोगों की माली हैसियत से बाहर था अतः थोड़े और रूपये दे कर छोटे मकान में ही यह सुविधा मिलना एक नेमत थी उस समय। चूंकि जमीन के उस हिस्से की सिचुएशन कुछ इस प्रकार की थी कि जब बाजू वाला मकान दुमंज़िला बना तो जमीन का वह हिस्सा पूर्णरूप से छाया में आ गया और हमें अपना बगीचा ख़त्म करना पड़ा। जाहिर है जिसका बाजू में मकान है, वह तो अपनी सुविधानुसार उसका विस्तार करेगा ही। यह उसका अधिकार है। घर के सामने के हिस्से में जहां पूरी धूप आती है वहां पहले से ही निर्माण था अतः खुला आंगन हमारे लिए स्वप्न बन कर रह गया। इसका आज भी मुझे दुख है।
आज जब मैं किसी ऐसे व्यक्ति को देखती हूं जो बड़ा प्लाट खरीदता है और उस पर पूरे में कमरे खड़े कर देता है तो मेरे मन करता है कि मैं उससे आग्रह करूं कि थोड़ी-सी ज़मीन खुले आंगन के लिए भी रखें, जिसमें नींबू, आंवला जैसे पेड़ लगाए जा सकें। लेकिन यह आग्रह घनिष्ठ परिचितों से ही कर पाती हूं, सबसे नहीं। लोग सोचेंगे कि मैं टोंका-टांकी कर रही हूं। इसीलिए जब आंवला नवमीं जैसे त्योहर आते हैं तब मैं सोच में पड़ जाती हूं कि हम इस अवसर की जिस कथा को सुनते हैं, उसे कितना समझते हैं? चलिए आपको आंवला नवमीं की कथा याद दिला देती हूं जो व्रत के दौरान कही-सुनी जाती है। यह बहुप्रचलित कथा है आंवल्या राजा की।
एक राजा था जिसका नाम था आंवल्या राजा। उसका नियम था कि वह रोज सवा मन आंवले दान कर के ही भोजन ग्रहण करता था। इससे उसकी प्रजा तो स्वस्थ रहती थी लेकिन राजकोष से बहुत सारा धन खर्च हो जाता था। इसलिए एक दिन उसके बेटे-बहू ने सोचा कि राजा इतने सारे आंवले प्रतिदिन दान करते रहेंगे तो एक दिन सारा खजाना खाली हो जायेगा। इसीलिए बेटे ने राजा से कहा कि उसे इस तरह दान करना बंद कर देना चाहिए। बेटे की बात सुनकर राजा को बहुत दुःख हुआ। राजा ने महल त्याग दिया और रानी के साथ जंगल में चला गया। अब उसके पास दान करने लायक आंवले नहीं थे अतः उसने भोजन का त्याग कर दिया। इससे राजा कमजोर हो कर मरणासन्न अवस्था में जा पहुंचा। तब भगवान ने देखा कि इस तरह तो राजा मर जाएगा और एक पुण्यकार्य हमेशा के लिए बंद हो जाएगा। अतः भगवान ने रातों-रात उस जंगल में राजा-रानी के लिए एक बड़ा महल बना दिया जिसमें आंवले के पेड़ों से भरा हुआ उद्यान था। सुबह राजा ने देखा तो वह बहुत खुश हुआ। उसने पास के गंाव जा कर सवा मन अंावला दान किया और भोजन ग्रहण किया। फिर तो याचक उसके महल के दरवाजे पर स्वतः आने लगे। इधर राजा के बेटा-बहू को एक अच्छे कार्य को रोकने के बदले दण्ड मिला कि उनके राज्य पर दूसरे राजा ने आक्रमण कर दिया। राजपाट छिन जाने पर जीवन चलाने के लिए बेटा-बहू को नौकर के रूप में काम ढूंढना पड़ा। अनजाने में वे लोग अपने माता-पिता यानी राजा-रानी के महल जा पहुंचे। दोनों ने एक-दूसरे को नहीं पहचाना। बहू रानी की सेविका बन गई। एक दिन बहू की दृष्टि रानी की पीठ पर मौजूद मस्से पर गई तो वह रोने लगी। रानी ने उससे रोने का कारण पूछा। तब उसने बताया कि किस तरह उसने अपने सास-ससुर को घर से निकालने में अपने पति का साथ दिया था और अब वे लोग कहां होंगे, किस दशा में होंगे यह सोच कर रोना आ गया है। रानी ने बहू की बातें सुनी तो उसे बहू को पहचान लिया और गले से लगा लिया। बहू-बेटा को अपनी गलती का अहसास हो गया था अतः एक बार फिर वे चारों एक साथ मिलजुल कर रहने लगे। इस कथा के अंत में कहा जाता है कि ‘‘हे भगवान, जैसा राजा-रानी का सत रखा वैसा सबका सत रखना। कहने-सुनने वाले सारे परिवार का सुख रखना।’’
देखा जाए तो इस कथा के मूल में अंावला और आंवले का दान है किन्तु समय के साथ इसकी व्याख्याएं बदलती गईं और यह एक ऐसी निपट धार्मिक कथा बन कर रह गई जिसमें पाप और पुण्य को तो रेखांकित किया गया किन्तु अंावले की महत्ता को गौण बना दिया गया। दरअसल, राजा रोज सवा मन आंवला इसलिए दान करता था कि उसकी प्रजा अंावले का सेवन करे और स्वस्थ रहे। अंावला दान करने से रोकने पर वह प्रजा की स्वास्थ्य-सेवा नहीं कर सकता था। स्पष्ट है कि राजा आंवले के औषधीय महत्व से भली-भांति परिचित था। इस दृष्टि से कथा के अंत में यही कहा जाना चाहिए कि राजा आंवल्या के दान के महत्व को समझते हुए किसी न किसी रूप में रोज कम से कम एक आंवले का सेवन करना चाहिए।
एक कथा और है जो जगत्गुरू शंकराचार्य से जुड़ी है। इस कथा के अनुसार एक बार जगद्गुरु आदिशंकराचार्य भिक्षा मांगने एक कुटिया के सामने रुके। वहां एक बूढ़ी माई रहती थी, जो अत्यंत गरीब थी। शंकराचार्य को देने के लिए उसके पास एक सूखे आंवले के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। उसने वही आंवला शंकराचार्य को भिक्षा में दे दिया। यह देख कर शंकराचार्य का मन भर आया। उन्होंने तत्काल 22 श्लोकों का ‘‘कनकधारा मंत्र’’ पढ़ा, जिससे कनकदेवी लक्ष्मी प्रसन्न हो गईं। शंकराचार्य ने लक्ष्मी से कहा कि इस बूढ़ी माई को धन-धान्य से पूर्ण कर दें। किन्तु लक्ष्मी ने बूढ़ी माई की पूर्वजन्म की कथा सुनाते हुए सहायता करने से मना कर दिया कि पिछले जन्म में वह एक कंजूस औरत थी। दान-पुण्य नहीं करती थी इसीलिए इस जन्म में वह अर्थाभाव झेल रही है। तब शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी से कहा कि पिछले जन्म में भले ही इसने दान नहीं किया लेकिन इस जन्म में अपने घर की इकलौती संपत्ति के रूप में मौजूद सूखे आंवले का दान कर के इसने जो पुण्य अर्जित कर लिया है वह इसके सारे अपराधों को क्षमा कर देने योग्य हैं। यह सुन कर लक्ष्मी ने बूढ़ी माई की कुटिया को धन-धान्य से भर दिया। इस कथा के मूल में सिर्फ़ दान का नहीं बल्कि आंवले के दान का महत्व है वरना किसी और फल का नाम क्यों नहीं रखा गया?
जिस तरह हम इन कथाओं को विश्वास से अंधविश्वास की ओर ले गए उसी तरह हमने स्वयं को प्रकृतिपूजक मानते हुए भी खुद को प्रकृति से दूर कर लिया है। हम प्रकृति से शुद्ध तत्व लेने के बजाए प्रोसेस किया हुआ वह प्रोडक्ट खरीदना उत्तम समझते हैं जो आकर्षक पैकेज़िंग में बाजार में बिकता है और जिसमें सेहतमंद और बलशाली बना देने का दावा किया जाता है। आंवला नवमी पर आंवला बहुत कुछ याद दिलाता है। आंवले का प्राश, आंवले का चूर्ण, आवंले का अचार, अंावले का मुरब्बा, आंवले का जूस आदि ऋषि-मुनियों का स्मरण कराते हुए सुंदर पैकेज़िंग में बेचा जाता है और हर उपभोक्ता उसे बड़ी खुशी से खरीदता है। उसे पता है कि ये सब उसके सेहत को संवारेंगे। लेकिन कभी क्या कोई व्यक्ति यह जानने का प्रयास करता है कि उसके शहर में कितने अंावले के पेड़ हैं? या फिर क्या वह कभी सोचता है कि अपना घर बनवाते समय वह एक छोटा-सा हिस्सा खुले आंगन के रूप में छोड़ सकता था उस आंवले के पेड़ के लिए, जो उसे छांह भी देता और सेहत भी देता। विडम्बना है कि आज हम प्रकृति से नहीं बल्कि बाज़ार से सेहत खरीदना पसंद करते हैं। यही कारण है कि हम अपने बागीचे, जंगल आदि नष्ट करते हुए प्रकृति के मौलिक रूप को भूलते जा रहे हैं। हम घरों से पकवान बना कर ले जाते हैं और आंवले के पेड़ के नीचे बैठ कर उसे खा लेते हैं, यह सोचते हुए कि हमने आंवला नवमी मना ली। यह पेड़ भी किसी मंदिर प्रांगण में ही नसीब होता है जहां धार्मिक आस्था के चलते वह बचा रहता है। मान्यता है कि अगर आंवले के पेड़ के नीचे भोजन पकाकर खाया जाए तो सारे रोग दूर हो जाते हैं, इसीलिए आंवले के पेड़ के नीचे खाने की परंपरा चली आ रही है।
आयुर्वेद में आंवले के अनेक गुण गिनाए गए हैं। जैसे- आंवला विटामिन सी का सर्वोतम प्राकृतिक स्रोत है। आयुर्वेद में आंवला सर्वाधिक स्वास्थ्यवर्धक माना गया है। आयुर्वेद के अनुसार आंवला आयु बढ़ाने वाला फल है यह अमृत के समान माना गया है। इसका प्रतिदिन उचित मात्रा में सेवन करने से वृद्धावस्था में भी सेहत बनी रहती है। रक्त में हीमोग्लोबिन की कमी होने पर, प्रतिदिन आंवले के रस का सेवन करना काफी लाभप्रद होता है। यह शरीर में लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण में सहायक होता है, और खून की कमी नहीं होने देता। आंखों के लिए आंवला अमृत समान है, यह आंखों की ज्योति को बढ़ाने में सहायक होता है। इसके लिए चिकित्सक की सलाह पर प्रतिदिन एक चम्मच आंवला के पाउडर को शहद के साथ लेने से लाभ मिलता है। आंवले के सेवन से लंबे समय तक बाल काले और घने बने रहते हैं। दिमागी मेहनत करने वाले व्यक्तियों को वर्षभर नियमित रूप से किसी भी विधि से आंवले का सेवन करना चाहिए। आंवले का नियमित सेवन करने से दिमाग में तरावट और शक्ति मिलती है। यह प्रकृति ही तो है जिसने हमें अपनी सेहत को बनाए रखने के लिए आंवला जैसा तत्व दिया है तो हमें भी प्रकृति की रक्षा करते हुए उसका शुक्रिया अदा करना चाहिए।
आशय यही है कि हम प्रकृति से जुड़े त्योहारों को जी भर कर मनाएं और प्रकृति के लाभकारी तत्वों के महत्व को समझें ताकि उन्हें बचाए रख सकें। प्राकृतिक तत्वों के संतुलन में ही हमारी सेहत और हमारे जीवन का भविष्य निहित है।  
सो, अंत में एक दोहा देखिए-
दिया प्रकृति ने आंवला, सेहत को उपहार।
हम दें सेहत प्रकृति को, प्रकट करें आभार।।
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