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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, December 13, 2022

पुस्तक समीक्षा | केदारनाथ अग्रवाल का काव्य | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 13.12.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक डाॅ. महेश तिवारी के शोध ग्रंथ "केदारनाथ अग्रवाल का काव्य" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
केदारनाथ अग्रवाल की काव्य- विशेषताओं को रेखांकित करती पुस्तक  
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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शोधग्रंथ  - केदारनाथ अग्रवाल का काव्य
लेखक    - डाॅ. महेश तिवारी
प्रकाशक     - वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002
मूल्य        - 350/-
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आलोचनाकर्म अपने आप में एक दुरूह कर्म है। आलोचना कार्य करते समय अगर कोई सबसे बड़ी बाधा आती है, तो है भावनात्मकता की। एक आलोचक को तटस्थ और कठोर होना पड़ता है। अतः उस समय यह कार्य और अधिक कठिन हो जाता है जब एक पूर्व स्थापित, पूर्व प्रतिष्ठित कवि के काव्यकर्म पर कोई शोधात्मक पुस्तक लिखी गई हो। वह भी ऐसे लेखक के द्वारा जो आलोचक के आत्मीय परिजन के समान रहा हो और अब संसार से विदा ले चुका हो। ‘‘केदारनाथ अग्रवाल का काव्य’’ ऐसी ही एक पुस्तक है जिसमें कवि केदारनाथ अग्रवाल के काव्य को शोध-संज्ञान में लिया गया है और जिसके लेखक डाॅ. महेश तिवारी इस पुस्तक के प्रकाशित हो कर उनके हाथों तक पहुंचने के ठीक दस-पंद्रह दिन पहले इस संसार से विदा ले चुके थे। चूंकि डाॅ. महेश तिवारी सागर शहर में अपने आत्मीय व्यवहार को ले कर लोकप्रिय रहे अतः उनके द्वारा अपनी इस पुस्तक को न देख पाना सभी के लिए दुखद रहा। शायद हम इसीलिए नियति अथवा प्रारब्ध का हवाला दे कर स्वयं को समझाने का रास्ता ढूंढ निकालते हैं। सो, जब यह पुस्तक समीक्षा हेतु मेरे पास आई तो मेरे लिए यह चुनौती थी कि मैं अपना आलोचनाकर्म ईमानदारी से कर सकूंगी या नहीं? किन्तु ईमानदारी मेरे स्वभाव में ही है अतः इस पुस्तक को पढ़ कर समीक्षा करते समय मैंने अपनी भावनात्मकता को आड़े नहीं आने दिया और सदा कि भांति एक कठोर आलोचक की भांति अपने कर्तव्य को पूरा किया।

केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में प्रगतिशीलता की एक ऐसी धारा प्रवाहित होती दिखाई देती है जिसमें अव्यवस्थाओं के प्रति ललकार के साथ आंतरिक कोमलता भी निहित है। वे प्रगतिशील आंदोलन की कविताओं की भांति प्रकृति को छोड़ कर नहीं चलते हैं वरन वे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करते हुए मनुष्यों के अमानवीय व्यवहार की बात करते हैं। केदारनाथ अग्रवाल की इस काव्यात्मक खूबी को लेखक डाॅ. महेश तिवारी ने बड़ी बारीकी से जांचा और परखा है। इस जांच-परख के सिलसिले में वे स्वयं केदारनाथ अग्रवाल के गांव, घर जा पहुंचें, जहां उन्होंने न केवल केदारजी की रचना प्रक्रिया को निकट से देखा बल्कि अपने प्रश्नों के उत्तर भी सीधे उन्हीं से पा लिए। इस बात का दूसरा पक्ष यह भी है कि इस पुस्तक में डाॅ. महेश तिवारी का अपने विषय के प्रति समर्पण एवं श्रम भी अनुभव किया जा सकता है।

यह पुस्तक कुल सात अध्यायों में निबद्ध है। पहला अध्याय है-‘‘केदारनाथ अग्रवाल: जीवनवृत्त, रचनाएं एवं विचारधारा’’। एक पाठक जिस कवि के रचनाकर्म के बारे में पढ़ने जा रहा हो, वह यह भी जानने को जिज्ञासु रहेगा कि वह कवि कहां रहता था? उस कवि का जीवन कैसा था? उसने किस-किस विधा में कौन-कौन-सी और कितनी रचनाएं लिखीं? पाठक को प्रायः यह जानने में भी रूचि रहती है कि जिसके बारे में वह पढ़ने जा रहा है, उस कवि की विचारधारा क्या थी? इन सभी बुनियादी प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए डाॅ. महेश तिवारी ने पहले अध्याय की सामग्री संजोई है। इसमें केदारनाथ अग्रवाल के जन्म से ले कर अध्ययन, आजीविका और महाप्रयाण तक का पूरा विवरण मौजूद है। उनके दादा, परदादा तक के बारे में जानकारी इसमें दी गई है। इसी अध्याय में केदारनाथ अग्रवाल को मिले पुरस्कारों एवं सम्मानों का विवरण है। रचना वर्ष की जानकारी सहित उनकी गद्य एवं पद्य रचनाओं का उल्लेख है।
       केदारनाथ अग्रवाल की विचारधारा के संबंध में डाॅ. महेश तिवारी ने लिखा है कि - ‘‘प्रगतिशीलता को कवि ने अपने जीवन में दीर्घकालीन अनुभवों के दौरान ग्रहण किया है। इलाहाबाद तथा कानपुर प्रवास में उन्होंने जीवन को तथा मनुष्य को अधिक निकट से देखने का सुयोग प्राप्त किया और इन्हीं दिनों उनका सम्पर्क मार्क्सवाद विचारधरा के साथ हुआ। मार्क्सवाद को इस समय जितना कुछ समझ सके थे, उसकी अनेक बातों को उन्होंने औद्योगिक नगर कानपुर के जीवन में घटित होते हुए देखा। फलस्वरूप मार्क्सवाद दर्शन के प्रति केदारनाथ की जिज्ञासा प्रबल होती गई और बांदा आने के बाद उन्होंने माक्र्सवाद का विधिवत अध्ययन किया।’’
इस प्रकार डाॅ महेश तिवारी ने कवि के काव्य पर चर्चा करने के पूर्व उनकी विचारधरा के निर्माण की प्रक्रिया से बड़ी सहजता से परिचित करा दिया है। या यूं कहें कि केदारनाथ के काव्य को समझने के लिए एक ज़मीन तैयार कर दी है।

पुस्तक का दूसरा अध्याय है-‘‘छायावादोत्तर हिन्दी कविता’’। सन 1936 के बाद छायावाद युग की समाप्ति के लक्षण दिखाई देने लगते हैं और इसके बाद आरंभ होता है उत्तर छायावादी काव्य का युग। उत्तर छायावादी काव्य के साथ ही प्रगतिवाद का आरंभ भी हो जाता है और इसीलिए पूर्ण प्रगतिवाद आते-आते  कविताएं यथार्थ के और करीब पहुंच जाती हैं। इसी अध्याय में प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन कि भारत में प्रगतिशील लेखक संघ के रूप में स्थापना, प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशनों एवं प्रयोगवादी कविता के सिद्धांत पक्ष को भी रखा गया है। ‘‘तार सप्तक’’ के रूप में अज्ञेय द्वारा आरंभ किए गए कविता संकलनों की जानकारी भी इस अध्याय में है। कवि केदारनाथ अग्रवाल और प्रगतिशीलता के पारस्परिक संबंध पर टिप्पणी करते हुए डॉ महेश तिवारी ने लिखा है कि- ‘‘कवि केदारनाथ अग्रवाल का संबंध यद्यपि मुख्य रूप से प्रगतिशील कविता से है फिर भी अपनी काव्य यात्रा में उन्होंने नई कविता के भी स्वस्थ पक्षों के प्रति अपना आग्रह प्रकट किया है।’’

तीसरा अध्याय है- ‘‘प्रगतिशील काव्यादर्श और केदारनाथ अग्रवाल के काव्य संबंधी विचार’’। इस अध्याय में डॉ. महेश तिवारी ने केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं को प्रगतिशील धारा की कविताएं सिद्ध करते हुए उन्हें प्रगतिशील धारा का एक समर्थ रचनाकार माना है। लेखक ने केदारनाथ के काव्य दर्शन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है - ‘‘कवि न केवल माक्र्सवादी दर्शन का अनुयायी है बल्कि वह दृढ़तम जीवन का दर्शन भी स्वीकार करता है। कवि की इस माक्र्सवादी आस्था को उसके समूचे कृतित्व में देखा जा सकता है। माक्र्सवाद ने उसे जीवन और साहित्य को समझने और प्रस्तुत करने की वैज्ञानिक दृष्टि और सही विधि प्रदान की है।’’
         डाॅ. तिवारी ने तीसरे अध्याय में केदारनाथ अग्रवाल के काव्यादर्शों से परिचित कराने के कारण स्पष्ट किए हैं। वे लिखते हैं कि “केदारनाथ अग्रवाल जिस प्रगतिशील काव्यधारा से संबद्ध हंै, वह माक्र्सवादी दर्शन से अनुप्राणित है। स्वयं माक्र्सवादी जीवन दर्शन के अनुयायी हैं। ऐसी स्थिति में उनके काव्य का विस्तृत अनुशीलन करने के पूर्व माक्र्सवाद द्वारा प्रस्तुत प्रगतिशील काव्यादर्शों और कवि के काव्य संबंधी अपने विचारों की एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करना आवश्यक है।’’

चतुर्थ अध्याय में ‘‘केदारनाथ अग्रवाल की कविता’’ शीर्षक से उनके समस्त काव्य से परिचित कराया गया है। इस अध्याय में लेखक ने केदारनाथ अग्रवाल के सन 1947 से 1997 तक के काव्य संग्रहों का परिचय दिया है। उन्होंने लिखा है कि प्रथम तीन काव्य संग्रह ‘‘युग की गंगा’’ (1947) ’‘नींद के बादल’’ (1948) ‘‘लोक और आलोक’’ (1957) छायावाद के रोमांटिक पद से प्रारंभ होकर प्रगतिवाद की मंजिल तक उसके पहुंचने की सूचना देते हैं। डाॅ. तिवारी लिखते हैं कि- ‘‘कवि के परवर्ती कविता संग्रह उसकी प्रगतिशील काव्यधारा से पूरी तरह जुड़े हुए हैं। परंतु कवि की प्रतिभा की कुछ अत्यंत विशिष्ट रेखाएं भी देखने को मिलती हैं। विभिन्न काव्य संग्रह की कविताओं में न केवल काव्य की प्रगतिशील भाव धारा अधिक परिपक्व, संतुलित और आकर्षक रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई है बल्कि उसकी कविताओं में एक ऐसे नए शिल्प सौंदर्य को भी प्रमुखता मिली है। जिसमें एक स्तर पर उसके काव्य को अधिक सहज बनाकर प्रस्तुत किया है तथा दूसरे स्तर पर कवि की इस क्षमता को भी प्रमाणित किया है कि उसमें भाव सौंदर्य के साथ-साथ कला और शिल्प के सौंदर्य को समन्वित करने की पूरी प्रतिभा है।’’
इसी अध्याय में केदारनाथ अग्रवाल के काव्य संग्रह ‘‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’’, ‘‘आग का आईना’’, ‘‘गुल मेहंदी’’, ‘‘आधुनिक कवि-16’’, ‘‘पंख और पतवार’’, ‘‘हे मेरी तुम’’, ‘‘मार प्यार की थापें’’,  ‘‘बंबई का रक्त स्नान’’, ‘‘कहंे केदार खरी खरी’’, ‘‘जमुन जल तुम’’, ‘‘अपूर्वा’’, ‘‘बोल बोल अबोल’’, ‘‘जो शिलाएं तोड़ते हैं’’, ‘‘आत्मगंध’’, ‘‘अनिहारी हरियाली’’, ‘‘खुली आंखें खुले डैने’’, ‘‘पुष्पदीप’’, ‘‘वसंत में प्रसन्न हुई पृथ्वी’’ तथा ‘‘कुहूकी कोयल खड़े पेड़ की देह’’ की कविताओं पर विस्तृत टिप्पणियां प्रस्तुत की गई है।

पंचम अध्याय में है-‘‘केदारनाथ अग्रवाल के काव्य का वस्तुपक्ष’’ तथा छठें अध्याय में ‘‘केदारनाथ अग्रवाल का शिल्पपक्ष’’ विवेचित किया गया है।

सातवां अर्थात् अंतिम अध्याय उपसंहार का है जिसमें लेखक ने अपनी पुस्तक का सार-संक्षेप प्रस्तुत करते हुए केदारनाथ अग्रवाल के काव्य पर अपने निष्कर्ष दिए हैं। महेश तिवारी केदारनाथ अग्रवाल की कविता पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि ‘‘केदार का काव्य कुंठाहीन काव्य है। वह संकीर्णता से परे प्रशस्त दिशाओं की ओर गतिशील होने वाला काव्य है।’’  लेखक ने केदार के काव्य की शाश्वतता के पक्ष में उन्हीं की एक कविता का यह अंश दिया है-ं

 मुझे इंसान प्यारा है/ इंसान का दिल प्यारा है
बहुत प्यारा है /बहुत प्यारा है
बजाएं धन, दौलत और मकान दुकान के
मेरे दोस्त/ मैं अभी बहुत साल जिउंगा
और मरा भी तो/ तुम्हारी उम्र में लगातार जिऊंगा
पीढ़ी पर पीढ़ी/इसी हिंदुस्तान में रहूंगा।

पुस्तक की भूमिका आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, आचार्य एवं पूर्व अध्यक्ष हिन्दी विभाग, अध्यक्ष संस्कृत विभाग, डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर ने लिखा है। उन्होंने केदारनाथ अग्रवाल के काव्य पर अपने विस्तृत विचार सामने रखते हुए इस पुस्तक के बारे में लिखा है कि -‘‘उन्होंने (अर्थात् डाॅ. तिवारी ने) इस कृति में केदारनाथ अग्रवाल के प्रगतिशील चिंतन, उनके सामाजिक सरोकार, प्रकृति प्रेम, मानवीय सौंदर्य व प्रेम, लोक चेतना आदि विभिन्न पहलुओं से हमें परिचित कराया है। केदार की वैचारिकी के आलोक में दलित, शोषित, पीड़ित और स्त्री के प्रति ग्रहण संवेदनशीलता और सहानुभूति ही नहीं दिखाया है, अपितु जनता के प्रतिरोधी स्वर को भी रेखांकित किया है। वस्तुनिष्ठ भाषा और काव्य की गहन समझ के आधार पर डॉ. तिवारी ने केदारनाथ अग्रवाल के काव्य का जो मूल्यांकन किया है, वह अत्यंत सारगर्भित और आलोचकीय है। विवेक का परिचायक है।’’

डाॅ आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ने लेखक के जिस कौशल की ओर संकेत किया है, उसी कौशल के कारण इस पुस्तक के कलेवर और शिल्प में जो परिपक्वता है उसने मेरे आलोचकीयकर्म को धर्म संकट से बचा लिया। मुझे इस पुस्तक में ऐसा कोई तत्व नहीं मिला जिसके कारण मुझे आलोचकीय कठोरता बरतनी पड़े। यह पुस्तक कवि केदारनाथ अग्रवाल की काव्य विशेषताओं को सहजता, सरलता, रोचकता और बड़े ही चातुर्यता से प्रस्तुत करती है। इस एक पुस्तक को पढ़ कर ही केदारनाथ अग्रवाल के विचारों और उनकी कविताओं को भंली-भांति समझा जा सकता है। इस दृष्टि से यह पुस्तक न केवल पठनीय अपितु संदर्भ ग्रंथ के रूप में संग्रहणीय भी है।  
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