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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, December 27, 2022

पुस्तक समीक्षा | कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 27.12.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक आर. के. तिवारी के व्यंग्य संग्रह "कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ" की समीक्षा... 
पुस्तक समीक्षा
अनुभूत घटनाओं से उपजे मौलिक व्यंग्य  
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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व्यंग्य संग्रह  - कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ
लेखक   - आर. के. तिवारी
प्रकाशक - स्वयं लेखक (द्वारिका विहार काॅलोनी के पीछे, कैला माता मंदिर के पास, तिली वार्ड, सागर म.प्र.-140002)
  मूल्य      - 175/-
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यूं तो साहित्य की कोई भी विधा आसान नहीं होती है, उस पर व्यंग विधा तो और भी आसान नहीं है। व्यंग लेखन एक दुरूह कार्य है। व्यंग्य में हास-परिहास के साथ आलोचना का पुट भी रहता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य की सटीक परिभाषा दी है- ‘‘व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहां बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठे।’’ यानी व्यंग्य तीखा व तेज-तर्रार कथन होता है जो हमेशा सोद्देश्य होता है और जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है। वहीं हरिशंकर परसाई ने व्यक्ति व समाज में उपस्थित विसंगति को लोगों के सामने लाने में व्यंग्य को सहायक माना है। उनके अनुसार, ‘‘व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है।’’
हिन्दी में व्यंग्य लेख का बहुत लम्बा इतिहास नहीं है किन्तु जब से हिन्दी में व्यंग्य लेखन का आरम्भ हुआ तब से उसने उत्तरोत्तर लोकप्रियता पाई है। वस्तुतः व्यंग्य की धारा पद्य से गद्य की ओर बही है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यंग्य विधा ने पद्य का साथ छोड़ दिया हो। आज भी गद्य और पद्य दोनों में समान रूप से असरदार व्यंग्य लिखे जा रहे हैं। व्यंग्य विधा आज साहित्य की केन्द्रीय विधाओं के समीप आ गई है। व्यंग्य विधा के बारे में ज्ञान चतुर्वेदी का यह कथन बहुत गहन अर्थ रखता है-‘‘वैसे इन दिनों बहुत सारा व्यंग्य ऐसा लिखा भी जा रहा है कि पूछने की तमन्ना तो हमारी भी होती है कि ऐसा व्यंग्य किसलिए? पर मैं उम्मीद करता हूं कि सम्पादक इतना कड़वा सवाल करने से कतराएगा. सहृदय सम्पादक का काम ऐसे प्रश्नों से आखें मींचे रहना है जिनसे सामना करने से स्वयं व्यंग्यकार छुपते फिर रहे हैं. तो क्या सम्पादक आश्चर्य कर रहा है कि यह आजकल क्या चल रहा है कि व्यंग्य इतना लिखा जा रहा है यह विधा साहित्य के केंद्र में न भी आ गयी हो पर यह ‘सेंटरस्टेज’ के आसपास तो मंडराने ही लगी है. वह दौर कब का जा चुका है जब इस बात का स्यापा पीटा जाता था कि हाय, व्यंग्य स्पिरिट मात्र है और लोग इसे फालतू ही विधा मनवाने पर आमादा हैं. व्यंग्य को तो परसाई जैसे लोग ही विधा का दर्जा दिलाकर चले गये जो कदाचित, संकोच में ही इसे मात्र स्पिरिट कहते रहे।’’
वैसे जिन्होंने हिन्दी साहित्य में व्यंग्य के गद्य लेखन को पहचान दिलाई उनमें कुछ प्रमुख नाम हैं- हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, प्रेम जन्मेजय, के.पी. सक्सेना, रवीन्द्र नाथ त्यागी, डॉ सुरेश आचार्य ज्ञान चतुर्वेदी, गिरीश पंकज, विवेकरंजन, पंकज प्रसून, जयजीत ज्योति अकलेचा आदि। इस श्रृंखला में अनेक नवोदित व्यंग्यकारों की कड़ियां जुड़ती जा रही हैं। इसी क्रम में व्यंग्यविधा का एक नवोदित नाम है आर.के. तिवारी।
‘‘कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ’’ लेखक आर के तिवारी की छठीं पुस्तक ए्वं पहला व्यंग्य संग्रह है। लेखक आर के तिवारी एक्सीडेंटल व्यंग्यकार नहीं हैं, उनकी कहानियों और उपन्यास में भी उनकी व्यंजनाशक्ति स्पष्ट दिखाई देती है। दिलचस्प बात यह है कि उनके व्यंग्यों में कथा साहित्य का आनन्द लिया जा सकता है। अर्थात् आर.के. तिवारी के व्यंग्य कथात्मक शैली के हैं। यही कारण है कि उनके कुछ व्यंग्य लेख के बजाए व्यंग्य कथा का भान देने लगते हैं। फिर भी इन व्यंग्यों की सब से बड़ी विशेषता यह है कि ये सुनी-सुनाई घटनाओं के आधार पर नहीं बल्कि अनुभूत घटनाओं के आधार पर लिखे गए हैं। जब व्यंग्य यथार्थपरक होते हैं तो उनका असर भी गहरा और व्यापक होता है। ऐसे व्यंग्यों में दृश्यात्मकता भी अधिक होती है। उदाहरण के लिए इस संग्रह के नाम के शीर्षक वाला व्यंग्य ही ले लिया जाए- ‘‘कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ’’। इस व्यंग्य में लेखक ने एक ऐसे वैवाहिक वर्षगांठ समारोह का रोचक विवरण प्रस्तुत किया है जो पचासवीं वर्षगांठ के रूप में मनाया जा रहा है। वे गोया आंखों देखा हाल बताते हुए लिखते हैं कि ‘‘मेरा पूरा ध्यान मंच पर चल रहे कार्यक्रम पर था। मैंने देखा दादू आज बहुत खुश लग रहे थे शायद पुरानी यादों में खो रहे थे, या मन में लड्डू फूट रहे थे फिर मैंने गौर से अम्मा दुलैया को देखा। अम्मा दुलैया ही कहेंगे। लगा, आज इनके लड़कों ने इन्हें भी ब्यूटी पार्लर की सैर करा दी। इसीलिए ही चेहरा बहुत चमक रहा था पर मेरी नजर गले पर पड़ गई, जहां की काली स्याही-सी गर्दन साफ दिखाई दे रही थी। हां, लाल बढ़िया साड़ी में जरूर खूब जंच रही थीं। यह बात अलग थी कि वह एक चलती फिरती पुतरिया सी भले ही लग रही थीं, पर बहुत खुश दिख रही थीं।’’
इसी व्यंग्य में वे खुद पर व्यंग्य करने से भी नहीं चूके हैं। लेखक के साथ समारोह में पहुंचे उनके गुरुवर मित्र कटाक्ष करते हैं कि -‘‘तुम क्या समझे, तुम साठ के हो कर लाल बाल कर के लड़का बन जाहो?’’
स्वयं पर कटाक्ष के बहाने व्यंग्यबाण चलाने की कला इस संग्रह के अन्य व्यंग्यों में भी देखी जा सकती है।
संग्रह में कुल इकतालीस व्यंग्य हैं। इनमें कई व्यंग्य साहित्यिक आयोजनों जैसे पुस्तक लोकार्पण, कविगोष्ठी आदि को आईना दिखाते हैं। लेखक ने एक श्रोता और दर्शक की भांति इन आयोजनों के परिदृश्य को देखा, अनुभव किया और आकलन करते हुए अपने व्यंग्यों में इनका कच्चा-चिट्ठा खोला है कि सभागार में उपस्थित लोग किस प्रकार समयखाऊ उद्बोधनों से बोर होते हैं। वहीं श्रोता भी वक्ताओं को सुनने के बजाए वहां से जाने का समय ढूंढते रहते हैं। यहां तक कि कुछ श्रोता तो इस बात की ताक में रहते हैं वे आयोजक की दृष्टि में आ जाएं ताकि दूसरे दिन समाचार में उनका नाम जुड़ जाए।
एक व्यंग्य है ‘‘नौ-दो ग्यारह’’। जिसमें व्यंग्यकार ने मूल विषय को छोड़ कर इधर-उधर की चर्चा करने और अनावश्यक उदाहरणों द्वारा अपनी विद्वता के झंडे गाड़ने का प्रयास करने वाले वक्ताओं पर कटाक्ष किया है। व्यंग्यकार अपने जिस साथी के साथ एक पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम में पहुंचा है, वह साथी व्यंग्यकार को समीक्षक वक्ता के बारे में जानकारी देता है कि ‘‘अभी जिन समीक्षक का नाम लिया गया है, दो घंटे तो उन्हीं को समीक्षा में लगेंगे शायद आप वाकिफ नहीं हो।’’ इसके बाद व्यंग्यकार ने उक्त समीक्षक के संबंध में लिखा है कि ‘‘जब वे शुरू करते हैं तो लगता है हिंदी भाषा चल रही है। तभी लगने लगता है संस्कृत भाषा है। फिर थोड़ी देर में बीच-बीच में उर्दू की शेरो-शायरी करते हुए एक-दो कहावतें बुंदेली भाषा की भी कहने लगते हैं, और फिर जब समीक्षा अपने चरम पर पहुंचती है तो वह पुराने दादी मां के किस्से कहानी पर विचरण करती हुई, काव्य का रूप ले लेती है। पर इसमें भी एक विडंबना यह कि वे काव्य उस बेचारे कवि की पुस्तक के नहीं होते।’’
आर. के. तिवारी ने अपने व्यंग्यों में मुहावरों का रोचक प्रयोग किया है। व्यंग्य ‘‘फांकुओं की बैठक’’ में वे लिखते हैं-‘‘कम से कम इन्हें छठी का दूध याद आ जाएगा कि मुंह बजाना और गोली चलाना अलग बात है।’’
इसी तरह व्यंग्य ‘‘नहले पर दहला’’ में कहावत का दिलचस्प प्रयोग देखें-‘‘अरे आप क्या कह रहे हैं गुरुवर? क्या समीक्षा की पुस्तक का प्रकाशन हो रहा है उनका! मेरी बात सुन कर गुरुवर बोले, अरे भाई रामलाल आप आश्चर्य क्यों कर रहे हैं? मैंने कहा, आश्चर्य की ही तो बात है, वह इसलिए कि जहां तक मुझे ज्ञात है मैंने उनको समीक्षा करते कभी नहीं देखा-सुना! तब गुरूवर बोले, क्या हुआ भाई! एक कहावत है कि शादी भले नहीं हुई, पर बारातें खूब की हैं।’’
 व्यंग्यकार ने राजनैतिक, सामाजिक, सार्वजनिक और आर्थिक सहित लगभग हर क्षेत्र की विद्रुपताओं, विसंगतियों पर अपनी पारखी नजर डाली है। आज नवोदित रचनाकारों का ध्यान अपने रचनाकर्म को साधने के बजाए सम्मानपत्र प्राप्त करने के जुगाड़ में लगा रहा है। इस प्रवृति पर लेखक ने तंज़ यिका है। ‘‘गफ़लत’’ शीर्षक व्यंग में आर के तिवारी लिखते हैं- ‘‘आलोचना शब्द ही अपने आप में बुरा सा लगता है, जिसे कोई नहीं सुनना चाहता। आने वाली हमारी पीढ़ी कविताएं नहीं तुकबंदी और चुटकुले तक ही सीमित रह जाएंगी। कभी घरों में पुस्तकों के कारण अलमारियों में जगह नहीं रहती थी, पर अब तो वह जगह सम्मान पत्रों ने ले ली है। और एक दिन आने वाली पीढ़ी उन्हें भी पुस्तकों की तरह रद्दी में बेच देगी उनसे उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा।’’
इस व्यंग्य संग्रह में हिन्दी के साथ ही लेखक के बुंदेली व्यंग्य भी शामिल हैं। इन व्यंग्यों में आंचलिकता की मिठास और चुटीलापन है। जैसे एक व्यंग्य है-‘‘पर्यावरण को ढोल: गदिया पे आम नईं जमत’’। लेखक ने लिखा है कि -‘‘सरकार की सबरी योजनाएं धरी रईं। नें नए-नए जंगल लगे और जो लगे सो बे जमतई मरत गए, काए उनखों टेम पे पानी नईं मिलो। पानी देबे वारो पानी के घूंट सबरो पइसा शराब में पी गओ। कोनऊं-कोनऊं पेड़ तो कागजों में लगे, तो कोनऊं भटारों पे लगे, जिने पानी तक नईं मिलो। बे मरत गए, भटारें मुंडी की मुंडी बनी रईं।’’
पर्यावरण पर केन्द्रित यह व्यंग्य समस्या को अपनी दृष्टि से व्याख्यायित करता है। व्यंग्य का दीर्घकाय शीर्षक है-‘‘कल चमन था आज एक सहरा हुआ/अब वहां जंगल कि मेवा कहां’’। इसमें लेखक ने गांवों के शहरीकरण और असली जंगल की जगह कांक्रीट के जंगल पर अपनी पीड़ा व्यक्त की है। एक अंश देखिए-‘‘ हमारी ससुराल से कोसों दूर तक एक भी पेड़ दिखाई नहीं देते हैं। बस, एक दो मुंडी (टीले), पहाड़ियों की चोटियां ही बच पाई है, जहां अब भी इंसान अपनी पोक मशीनों और जेसीबी मशीनों से घात लगाए इंतजार कर रहा है कि कब मौका मिले और वह उसको भी समतल कर नेस्तनाबूद कर दें।’’
जहां तक व्यंग्यकार आर. के. तिवारी की शैली का प्रश्न है तो वह रोचकता लिए हुए है किन्तु उसमें जो कमी है भूमिका में ही उनके संज्ञान में लाया गया है। व्यंग्य विधा के पुरोधा डॉ सुरेश आचार्य ने संग्रह की भूमिका लिखते हुए निष्पक्षता का परिचय दिया है तथा लेखक की  व्यंगशैली की विशेषताओं और कमियों दोनों को रेखांकित किया है। डॉ आचार्य लिखते हैं कि ‘‘श्री आर के तिवारी अपने आसपास की गड़बड़ियों और विडंबना से भली भांति परिचित है। उनकी निरीक्षण शक्ति सूक्ष्म और बैठक है। उनकी रचनात्मक ऊर्जा हमें प्रभावित करती है। हां, उनमें एक प्रकार की एकरसता दिखाई देती है जो कदाचित वातावरण के चित्रण की दृष्टि से आवश्यक हो। कुल मिलाकर उनके नए व्यंग संग्रह का देश, समाज और हिंदी जगत में स्वागत होगा। उनसे यह आग्रह जरूर करूंगा कि व्यंग निबंध थोड़ा विस्तृत हो। यह मंगलमय होगा।’’
इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यंग्य संग्रह ‘‘कुन्जीदाऊ की शादी की पचासवीं वर्षगांठ’’ के लगभग सभी व्यंग्य रोचक हैं और मनन-चिंतन जगाने वाले हैं। पुस्तक का आमुख आकर्षक है और पाठक को पुस्तक पढ़ने के लिए आमंत्रित करता प्रतीत होता है। निमिष आर्ट्स एण्ड पब्लिकेशन का मुद्रण साफ-सुथरा और सुरुचिपूर्ण है। लेखक ने आत्मकथ्य में आरम्भ में ही अपनी अभिलाषा व्यक्त करते हुए यह पंक्ति लिखी है कि-‘‘अभी हसरत और बाकी है, कुछ और कर गुज़रने की।’’ तो लेख की यह अभिलाषा पूर्ण हो तथा वे पाठकों के लिए शीघ्र ही अपना अगला व्यंग्य संग्रह लाएं, यही कामना है। यूं भी वर्तमान परिवेश मौलिक हास्य और परिमार्जन से दूर होता जा रहा है और यह कमी व्यंग्यविधा ही पूरी कर सकती है क्योंकि व्यंग्य में हास्य भी होता है और कटाक्ष के द्वारा परिमार्जन का रास्ता भी दिखा दिया जाता है। प्रस्तुत संग्रह के लेख समाज को आइना दिखाने में समर्थ हैं। इन र लेखों की सम्प्रेषणीयता आश्वस्त करती है कि ये लेख पाठकों से जुड़कर उनकी चेतना को झकझोरेंगे। इस दृष्टि से आर. के. तिवारी के व्यंग्य न सिर्फ रोचक हैं अपितु हर व्यक्ति सेे आत्मावलोकन एवं आत्मनिरीक्षण का आग्रह करते हैं। ये व्यंग्य संग्रह न केवल पठनीय हैं बल्कि असरदार भी हैं।
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