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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, December 8, 2022

चर्चा प्लस | समान नागरिक संहिता के कठिन रास्ते में वोट बैंक | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
समान नागरिक संहिता के कठिन रास्ते में वोट बैंक
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       हमारे देश की विशेषता है, विविधता में एकता। इस विविधता पर हम गर्व करते हैं। फिर भी कभी-कभी यह विविधता कानूनी परेशानियां पैदा कर देती है। तब प्रश्न उठने लगता है कि जब भारत के सभी नागरिक एक समान हैं तो उन पर एक-सा कानून लागू क्यों नहीं होता? देश की स्वतंत्रता के बाद से ही यह प्रश्न सुगबुगाता रहा है लेकिन वोट बैंक टूटने का डर जोख़िम उठाने नहीं देता है। लेकिन एक बार फिर आवाज़ उठ रही है, वह भी सत्तापक्ष की ओर से। क्या सत्तापक्ष जोखिम उठा सकेगा? क्या वोट बैंक टूटने का भय सच या मिथ्या? चलिए देखते हैं कि क्या कठिनाइयां हैं समान नागरिक संहिता में।
सबसे पहले तो समझना होगा कि समान नागरिक संहिता दरअसल है क्या? विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में ऐसे कानून लागू हैं। समान नागरिक संहिता से संचालित पन्थनिरपेक्ष देशों की संख्या बहुत अधिक है-जैसे कि अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की , इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट, जैसे कई देश हैं जिन्होंने समान नागरिक संहिता लागू किया है। भारत में समान नागरिक संहिता लागू नहीं है, बल्कि भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के लिए एक व्यक्तिगत कानून है, जबकि मुसलमानों और इसाइयों के लिए अपने कानून हैं। मुसलमानों का कानून शरीअत पर आधारित है अन्य धार्मिक समुदायों के कानून भारतीय संसद के संविधान पर आधारित हैं।
समान नागरिक संहिता (यूसीसी अर्थात यूनीफाॅर्म सिविल कोड) पर देश में पहली बार ब्रिटिश सरकार ने सन 1885 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए अपराधों, सबूतों और अनुबंधों जैसे विभिन्न विषयों पर भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता लाने की आवश्यकता पर बल दिया था। यद्यपि इसमें भी वह अपने मूल उद्देश्य को भूली नहीं और उसने रिपोर्ट में हिंदू और मुस्लिमों के व्यक्तिगत कानूनों को इस एकरूपता से बाहर रखने की सिफारिश की। अन्यथा फूट डालो, राज करो का उनका उद्देश्य पूरा कैसे होता? फिर सन 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए बी.एन. राव समिति गठित की गई। बी.एन. राव समिति  ने कई सिफारिशें की। इन सिफारिशों के आधार पर हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिए निर्वसीयत उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित एवं संहिताबद्ध करने हेतु वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में एक विधेयक को अपनाया गया। यद्यपि मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के अपने अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे। जिन्हें यथावत रहने दिया गया।
देश की स्वतंत्रता के बाद से समान नागरिक संहिता की मांग समय-समय पर उठाई जाती रही है। इसके तहत ऐसे कानून की अनुशंसा की जाती है जिसमें किसी धर्म, लिंग और लैंगिक झुकाव की परवाह नहीं की जाएगी। जवाहरलाल नेहरू ने भी समान नागरिक संहिता का समर्थन किया था लेकिन उन्हें कई वरिष्ठ नेताओं द्वारा विरोध का सामना करना पड़ा था। जिससे मामला जहां के तहां अटक गया था। कानून में समरूपता लाने के लिए विभिन्न न्यायालयों ने भी कई बार अपने निर्णयों में कहा कि सरकार को एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए।
वर्तमान में भारत में गोवा ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां समान नागरिक संहिता लागू है। यह अवश्य है कि अधिकांश भारतीय कानून, सिविल मामलों में एक समान नागरिक संहिता का पालन करते हैं, जैसे- भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882, भागीदारी अधिनियम, 1932, साक्ष्य अधिनियम, 1872 आदि। वैसे राज्यों ने कई कानूनों में संशोधन किए भी हैं परंतु धर्मनिरपेक्षता संबंधी कानूनों में अभी भी विविधता है।
भारत में हिन्दुओं के लिए हिन्दू कोड बिल लाया गया था। देश में इसके विरोध के बाद इस बिल को चार हिस्सों में बांट दिया गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे हिन्दू मैरिज एक्ट, हिन्दू सक्सेशन एक्ट, हिन्दू एडॉप्शन एंड मैंटेनेंस एक्ट और हिन्दू माइनोरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट में बांट दिया था। समय के साथ इसमें और संशोधन हुए और इस कानून ने महिलाओं को सीधे तौर पर सशक्त बनाया। इनके तहत महिलाओं को पैतृक और पति की संपत्ति में अधिकार मिला। भिन्न जातियों के लोगों को परस्पर वैवाहिक संबंध बनाने का अधिकार मिला। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया कि कोई व्यक्ति एक पत्नी  के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकता है।
वहीं देश के मुस्लिमों के लिए मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड बनाया गया। इसके अंतर्गत शादीशुदा मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को महज तीन बार तलाक कहकर तलाक दे सकता था। यद्यपि मुस्लिम पर्सनल लॉ में तलाक के और भी तरीके दिए गए हैं, लेकिन उनमें से तीन बार तलाक भी एक प्रकार का तलाक माना गया है, जिसे अब भारतीय कानून के विरुद्ध घोषित किया जा चुका है। देखा जाए तो तीन तलाक की पृष्ठभूमि में भी अप्रत्यक्ष रूप से बहुविवाह प्रेरणा का काम करता रहा है। मुस्लिम पसर्नल लॉ विशेष परिस्थिति में एक से अधिक पत्नियां रखने की भी अनुमति देता है।
यहां फिर उल्लेख करना आवश्यक है कि समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में है। इसमें नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा। सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है। समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा।
बाबा साहब अम्बेडकर, जिनके प्रयासों से हिन्दू कोड बिल पारित हो सका था, उन्होंने कहा था कि ‘‘मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि किसी धर्म (मजहब) को यह विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार क्यों दिया जाना चाहिए। ऐसे में तो धर्म, जीवन के प्रत्एक पक्ष पर हस्तक्षेप करेगा और विधायिका को उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से रोकेगा। यह स्वतंत्रता हमें क्या करने के लिए मिली है? हमारी सामाजिक व्यवस्था असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है। यह स्वतंत्रता हमे इसलिए मिली है कि हम इस सामाजिक व्यवस्था में जहां हमारे मौलिक अधिकारों के साथ विरोध है वहाँ सुधार कर सकें।’’ क्योंकि हिन्दू कोड बिल लाने के पीछे उनका उद्देश्य तत्कालीन परिस्थितियों में हिन्दू महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करना था।  
ऐसे कई चर्चित मामले सामने आए जब तीन तलाक और बहुविवाह को चुनौती दी गई। सन 1985 में शाहबानो मामला, 1995 में सरला मुद्गल मामला आदि। इन मामलों के दौरान यह बात उठाई गई कि ‘तीन तलाक’ और बहुविवाह जैसी प्रथाएं एक महिमहिलाओं के सामजिक सम्मान को चोट पहुंचाने के साथ ही उनमें असुरक्षा की भावना बढ़ाती हैं। याचिकाकर्ताओं द्वारा इन्हें महिलाओं के मौलिक अधिकारों का भी हनन माना गया। याचिकाकर्ताओं ने विवाह, तलाक, भरण-पोषण और गुजारा भत्ता (पूर्व पत्नी या पति को कानून द्वारा भुगतान किया जाने वाला धन) को विनियमित करने वाले व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता की मांग की थी। याचिकाओं में तलाक के कानूनों के संबंध में विसंगतियों को दूर करने और उन्हें सभी नागरिकों के लिए एक समान बनाने तथा बच्चों को गोद लेने एवं संरक्षकता के लिए समान दिशा-निर्देश देने की मांग की गई थी। यहां याद रखने योग्य बात है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है, ‘‘राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।’’
अतः यदि आज समान नागरिक संहिता की बात फिर से उठाई जा रही है तो इसे वर्तमान सामाजिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए न कि उस परिप्रेक्ष्य में जब हिन्दू कोड बिल या मुस्लिम पर्सनल लाॅ लागू किए गए। स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। आज एक से अधिक विवाह परिवार की आर्थिक स्थिति को बुरी तरह से बिगाड़ देता है। बहुपत्नियां यानी बहुत सारे बच्चे। इस मंहगाई में सबका भरण-पोषण करना और उन्हें अच्छा जीवन दे पाना कठिन है। यह माना जा रहा है कि समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की हर धर्म की महिलाओं की स्थिति में सुधार आएगा। कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे। नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं, बच्चों के साथ ही पुरुषों की स्थिति में भी सुधार आएगा।
एक समान नागरिक संहिता पूरे देश के लिए एक कानून सुनिश्चित करेगी जो सभी धार्मिक और आदिवासी समुदायों पर उनके व्यक्तिगत मामलों जैसे संपत्ति, विवाह, विरासत, गोद लेने आदि में लागू होगा। इससे हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून आवेदन अधिनियम (1937) जैसे धर्म पर आधारित मौजूदा व्यक्तिगत कानून तकनीकी रूप से भंग हो जाएंगे।
कुछ राज्यों ने समान नागरिक संहिता लागू किए जाने की दिशा में प्रयास आरम्भ कर दिए हैं जिनमें एक है उत्तराखंड। लेकिन वह इसे लागू करने में जल्दबाजी नहीं करना चाहते हैं तथा जनमत पर आधारित परामर्श और सुझावों पर कार्य करना चाहते हैं। इसीलिए उत्तराखंड के लिए समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का मसौदा तैयार करने वाली विशेषज्ञों की समिति का कार्यकाल छह महीने के लिए बढ़ा दिया गया। अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) राधा रतूड़ी द्वारा जारी एक आदेश में कहा गया कि समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने के उद्देश्य से गठित समिति का कार्यकाल अगले साल 27 मई तक बढ़ा दिया गया है। इस संबंध में राज्य में 30 विभिन्न स्थानों पर लोगों के साथ परामर्श किया जा चुका है और अब तक लगभग 2.25 लाख सुझाव प्राप्त हुए हैं। यद्यपि सार्वजनिक परामर्श प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है, समिति समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने से पहले सुझावों का विस्तार से अध्ययन करेगी।
वहीं मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने भी समान नागरिक संहिता लागू किए जाने का पक्ष लेते हुए स्पष्ट कहा कि ‘‘एक से ज्यादा शादी कोई क्यों करे? एक देश में दो विधान क्यों चलें? एक ही होना चाहिए। समान नागरिक संहिता में एक पत्नी रखने का अधिकार है, तो एक ही पत्नी होनी चाहिए।’’
एक बात तो स्पष्ट है कि भाजपा अथवा भाजपा समर्थित कुछ राज्य समान नागरिक संहिता को ले कर बहुत उत्साहित हैं, शेष राज्यों में इसी उत्साह की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा है। राजनीति विश्लेषक इस बात पर भी नज़र गड़ाए हुए हैं कि आगामी आम चुनावों में इसका कैसा असर पड़ेगा? लोकतंत्र में कोई भी कानून जबरन नहीं लादा जा सकता है। किसी भी कानून को बदलने या लागू करने के लिए संबंधित समुदायों की सहमति भी जरूरी होती है। फिर यह तो धर्म और समाज दोनों से संयुक्त रूप से जुद्दा मुद्दा है। इसलिए इसकी राह आसान नहीं है।
इस संदर्भ में यदि विदेशी परिदृश्य देखा जाए तो मुस्लिम बाहुल्य देश जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान और इजिप्ट आदि  समान नागरिक संहिता कानून को अपने यहां लागू कर चुके हैं। अर्थात् इस तरह का कानून धर्म की राह में बाधा नहीं पहुंचाता है अपितु आम नागरिकों के अधिकार को बढ़ाता है। कानून विशेषज्ञों का मानना है कि लगभग अप्रासंगिक होते जा रहे जिन पुराने पर्सनल लाॅ के कारण जिन अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है, वे अधिकार भी इस कानून के लागू होने पर प्राप्त हो सकेंगे। देश में जब भी किसी नवाचार की बात होती है तो कुछ विरोध के स्वर भी बुलंद होते हैं। यही तो लोकतंत्र की विशेषता है। यह विशेषता किसी भी कानून को लागू करने के लिए पुख़्ता धरातल तैयार करती है। विरोध की एक कठिन राह से गुज़र कर जो कानून लागू होता है, वह ठोस और असरदार परिणाम भी देता है। यही आशा की जा सकती है समूचे देश में समान नागरिक संहिता लागू किए जाने की उतार-चढ़ाव वाली प्रक्रिया से। यूं भी जो कानून सभी नागरिकों को समान कानूनी अधिकार दे उसे स्वीकार किए जाने में कोई विशेष बाधा नहीं आनी चाहिए बशर्ते राजनीतिक दलों द्वारा अपने वोट बैंक टूटने का भय अस्वीकार कर दिया जाए। 
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