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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, January 19, 2023

बतकाव बिन्ना की | बात को हो गओ बातन्ना | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"बात को हो गओ बातन्ना"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
बात को हो गओ बातन्ना                                                      
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
हर बेरा जेई कहो जात आए के संकरात के संगे मुट्ठी भर ठंड चली जात आए। मनो ई बेरा सो मुट्ठी भर ठंड जाबे के जांगा बोरी भर के ठंड चली आई। संझा होत-होत ज्वान-जहान लों कंपन लगत, सो बूढ़ों-ठाढ़ों की तो ने पूछो। पैलऊं संझा होत-होत घरों में गुरसी जला लई जात्ती। ऊ टेम पे टीवी, मोबाईल ने हतो। सो सबरे गुरसी खों घेर-घार के बैठ जात्ते और गपियात रैत्ते। अब सो एक कमरा में दो जने बैठे होंय सो अपनो-अपनो मोबाईल पे टिपियाबे में जुटे रैत आएं। बाकी कल संझा बड़ो मजो आओ। भऔ का, के संझा की बिरियां भैयाजी ने मोय टेर लगाई। मैंने सोची के कछु काम हुइए।
‘‘आओ भैयाजी!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘आ नईं रै हम! तुमाई भौजी ने अलाव जलाई है औ तुमें बुलाओ है।’’ भैयाजी ने कही।
अलाव की सुन के मोय मजो आ गओ। जाने कितेक साल हो गई के मैंने अलाव नईं तापो।
‘‘हऔ चलो!’’ मैं तुरतईं तैयार हो गई। सूटर सो पैनई रखों हतो, शाल सोई संगे धर लई। कहूं मूंड ढंाकबे परो सो काम आहे।
भैयाजी के घर के भीतर वारे आंगन में पौंच के मैंने देखी के उते एक बड़े से लोहा के तसला में भौजी ने अलाव जला रखो हतो। उनको भीतर को आंगन कच्चो आए सो कोनऊं सल्ल ने हती।
‘‘जे अच्छो करो भौजी आपने!’’ मैंने भौजी से कही।
‘‘तुमईं तो एक दिना कै रई हतीं के आजकाल अलाव तापबे खों नईं मिलत। सो, हमने सोची के हमाई ने जला लें अलाव! आग तापबी, मोंमफली औ भूंजा खाबी औ खूबई गपियाबी। काय कैसी रई?’’ भौजी मुस्कात भई बोलीं।
‘‘रामधई भौजी! आप जैसी भौजी सबई खों मिले! मोरो तो जे सब सुनई के जी जुड़ा गओ।’’ कैत भए मोरी आंखन में अंसुआं भर आए।
‘‘चलो लेओ! चा पियो!’’ भैयाजी जबलों चाय बना लाए। मनो भैयाजी बड़ी नोनी चाय बनाउत आएं।
‘‘औ का चल रई बिन्ना? एक दिना तुम बता रई हतीं के तुमाए एक जान-पैचान के प्रोफेसर साब कोनऊं पुरानी पोथी ढूंढ रए। मिल गई उने?’’ को जाने कां से भैयाजी खों याद आ गई।
‘‘हऔ! एकाद ठइयां मिली, बाकी ढूंढ रए। होत का आए के इते लोगन खों देत नईं बनत। अब आपई सोचो के मनो आपके बब्बा की लिखी भई कोनऊं पोथी आए। आपको ऊकी कोनऊं समझ नईयां, सो आप का करहो? जा तो रद्दी वारे खों बेंच देहो, जा फेर कहूं चोखरवां के लाने छोड़ देहो। अरे, ईसे सो साजो आए के ऊ पोथी कोनऊं ऐसे मानुस खों दे देओ जो ऊकी पूछ-परख करे। ऊको फेर के छपवा देवे। ईसे का हुइए के सबरों खों पता परहे के आपके बब्बा कित्ते नोने कवि हते। मगर काय खों, इते तो कोनऊं से मांगों सो बो ऐसे हेरत आए के मनो ऊसे कोनऊं गलत बात कर दई होय।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, पोथी से मोय याद आई, बो एक कोन सी कविता तुम सुनात रैत्ते?’’ भौजी बोल परीं औ भैयाजी से पूछन लगीं,‘‘बा पोथन्ना-मोथन्ना टाईप ऊमें कछु रओ!’’
‘‘अच्छा बो!! समझ गए हम के तुम कोन सी कविता की बात कर रईं। बो, कविता नोई कहनात आए।’’ भैयाजी खुस होत भए बोले।
‘‘हऔ, कछू होय, कविता चाए कहनात, तुम तो हमें बोई सुनाओ! मुतकी सालें हो गईं, सुनी नइयां तुमसे।’’ भौजी खांे मनो अपने पुराने दिन याद हो आए।
‘‘कोन सी कहनात?’’ मोय सोई सुनबे की ललक भई।
‘‘अरे तुमने सोई सुनी हुइए। बाकी अब उत्ती नई बोली जात। बो जे आए-
इक हते राम, इक हते रावन्ना,
जे हते ठाकुर, वे हते बामन्ना।
उनने उनकी हरी लुगाई,
उनने उनकी नास कराई।
बात को हो गओ बातन्ना,
तुलसी ने लिख दई पोथन्ना।’’
- भैयाजी ने कहनात सुना दई।
‘‘अरे हऔ! ऐसी कई तो जात्ती पैले! कैसी मजे-मजे की कहनात चलत्तीं पैले औ कोनऊं बुरौ नईं मानत्तो! जे सो सब हंसी-मजाक की बतकाव रईं।’’ं मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, औ तुमें पतो नइयां के तुमाई भौजी ईके जवाब में कोन सी कहनात कैत्तीं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘कोन सी?’’ मैंने पूछी।
‘‘अपनी भौजी सेई पूछो!’’ कैत भए भैयाजी हंसन लगे।
‘‘हऔ, ईमें हंसबे की का बात? मोय सोई जवाब आत्तों। जब जे ई वाली कहनात जे सुनात्ते सो मैं कैत्ती-
आग लगे तोरी पोथिन मैं ।
जिउ धरौ मोरो रोटिन में ।।’’
‘‘भौतई नोनी भौजी! जे तो पूरो ठक्का ठाई जवाब ठैरो!’’ मैंने भौजी की तारीफ करी।
‘‘चलो जेई पे एक औ कहनात सुनो!’’ अब भैयाजी खों जोश आ गओ कहानो। बे कहनात सुनात भए बोले-
‘‘ अत कौ भलौ न बोलबो, अत की भली न चुप्प ।
 अत कौ भलौ न बरसबो, अत की भली न धुप्प ।।’’
‘‘अईई! ई जड़कारे में पानी बरसबे वारी कहनात सो आप बोलोई नईं। मोय सुन केई ठंड लगन लगी।’’ मैंने भैयाजी से ठिठोली करत भई कई।
‘‘हऔ, सो जे सुनो!’’ भैयाजी खों मनो कहनात को पिटारो खुल गओ। बे सुनान लगे-
            ‘‘ कंडा बीने लक्ष्मी,  हर जोतें धनपाल,
अमर हते सो मर गये, रए ठनठन गोपाल।’’
‘‘हऔ, ईकी सो पूरी किसां आए। मोय पतो आए।’’ मैंने कही औ उने पूरी किसां सुना दई।
सो ई टाईप से कल संझा से जो अलाव की बैठक लगी सो रात एक बजे तक चलत रई। हमने तीन-चार दफे सो चाय पी। चना के भूंजा खाए औ मोंमफल्ली खाई। भौजी ने मुंगौड़ी सोई बनाई रई, सो बे खाईं। रामधई बरसों बाद इत्तों मजो आओ के का बताएं। कभऊं-कभऊं आप ओरन खों सोई ऐसो करो चाइए। खूबई किसां याद आहें औ खूबई कहनातें याद आहें। औ खूबई बात को बतन्ना बनहे।
मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। मैंने सोई सोच लई आए के अगली मंगल खों मोए मोरी तरफ से अलाव-पार्टी रैहे जीमें भैयाजी औ भौजी चीफ गेस्ट हुइएं। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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