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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, February 14, 2023

पुस्तक समीक्षा | खिमलासा के क्षेत्रीय इतिहास पर एक नायाब पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 14.02.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक श्री केशव रावत  की पुस्तक "बुंदेलखंड की उपकाशी खिमलासा" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
खिमलासा के क्षेत्रीय इतिहास पर एक नायाब पुस्तक
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - बुंदेलखंड की उपकाशी खिमलासा
लेखक   - केशव रावत
प्रकाशक - (स्वयं द्वारा) 4-3, चांदोरकर कम्पाउंड खिमलासा, जिला सागर (मप्र) - 470118
           (मोबा.9617633611)
मूल्य   - 100/-
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खिमलासा राजस्व की दृष्टि से मध्यप्रदेश के सागर जिले की एक साधारण-सी तहसील है लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से यह तहसील असाधारण है। दुर्भाग्यवश क्षेत्रीय इतिहास लेखन के प्रति हमारी उदासीनता ने अतीत के अनेक ज्ञान को सामने आने ही नहीं दिया है। आज भी कई ऐसे भौगेालिक क्षेत्र हैं जिनके इतिहास से हम भली-भांति परिचित नहीं हैं। क्षेत्रीय इतिहास के सामने आने में प्रायः दो समस्याएं बाधा बनती हैं-पहली समस्या गहन शोध द्वारा इतिहास लेखन की रुचि की कमी और दूसरी समस्या यदि किसी शोधकर्ता द्वारा अथक श्रम कर के क्षेत्रीय इतिहास की पुस्तक लिख ली जाए तो पहले तो उसे उचित प्रकाशक नहीं मिलते हैं और जब वह येनकेन प्रकारेण अपनी पुस्तक प्रकाशित करा ले तो उसे पर्याप्त प्रचार और उपलब्धता नहीं मिलती है। कई बार पांडुलिपियां प्रकाशन की प्रतीक्षा में वर्षों रखी रह जाती हैं। यदि कोई उन्हें प्रकाशित कराने की रुचि लेता है तो वे बच जाती हैं अन्यथा धीरे-धीरे नष्ट हो जाती हैं। हमने ऐसे अनेक हस्तलिखित दस्तावेज़ खो दिए हैं। बुन्देलखंड में यह समस्या कुछ अधिक ही रही है। एक ऐसी ही कृति प्रकाशित होने की प्रतीक्षा में वर्षों तक रखी रही लेकिन फिर उसके दिन फिरे और एक संस्कृतिप्रेमी ने उसे प्रकाशित कराने का बीड़ा उठाया। यह पुस्तक थी दीवान प्रतिपाल सिंह द्वारा लिखी गई ‘‘बुंदेलखंड का इतिहास’’, जिसे व्यक्तिगत रुचि ले कर बुंदेली संस्कृति के संरक्षक डाॅ बहादुर सिंह परमार ने प्रकाशित कराया। पुस्तक का सम्पूर्ण कलेवर कुल बारह खंडो में प्रकाशित हुआ है।
बुंदेलखंड के भीतर अनेक रियासतें रही हैं जिनका अपना-अपना गौरवशाली इतिहास है। इन रियासतों का ऐतिहासिक वैभव अतीत के राजनीतिक उतार-चढ़ाव के कारण दबा दिया गया अथवा तोड़-मरोड़ कर लिखा गया। लेकिन कई बार क्षेत्रीय प्रेम के वशीभूत अन्य विषयों के स्नातक अथवा स्नातकोत्तर ज्ञानी भी इतिहास लेखन का गंभीरकार्य पूरे दायित्व के साथ करते हैं। इसी श्रेणी की एक पुस्तक है ‘‘बुंदेलखंड की उपकाशी खिमलासा’’। इसमें खिमलासा के इतिहास, स्थपत्य एवं संस्कृति को लेखबद्ध किया गया है। इसके लेखक हैं केशव रावत तथा इस पुस्तक का संपादन किया है राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शशिनंदन रावत ने। एक मानक पत्रिका के आकार की कुल 64 पृष्ठों की यह पुस्तक संक्षेप में खिमलासा का समग्र इतिहास समेटे हुए है। हिन्दी साहित्य के प्राध्यापक केशव रावत को खिमलासा का इतिहास लिखने की प्रेरणा कहां से मिली यह एक दिलचस्प प्रकरण है। इस संबंध में उन्होंने अपने प्राक्कथन में जानकारी देते हुए यह भी बताया है कि खिमलासा का बुंदेलखंड की उपकाशी होना इस पुस्तक के लेखन के मूल में है। लेखक ने अपने प्राक्कथन में लिखा है कि -‘‘मां का आंचल ही नहीं छूट पाया था कि मैं अपनी मौसी की गोद में ललितपुर चला गया था। बालपन से किशोरावस्था पार करने तक मैंने कई बार अपनी मौसी से यह कहते सुना था कि खिमलासा किसी युग में काशी बनारस का ही एक हिस्सा था। 26 जून 1968 के नवभारत टाइम्स में नई दिल्ली से प्रकाशित एक लेख उपकाशी खिमलासा पढ़ा, जिससे मौसी की बात की पुष्टि हुई। किंतु बात फिर प्रश्नवाचक हो गई कि आखिर कौन-सा युग था वह जब खिमलासा काशी बनारस का अंग रहा होगा?’’
आगे लेखक ने लिखा है कि -‘‘30 वर्षों से अनेकों प्रश्न कई बार मेरे भी मन में उपजे। कुछ के तो समाधान ढूंढ निकाले किंतु अधिकांश के उत्तर एक दीर्घकाल अवधि तक अंतध्र्यान रहे। कई सूत्र ढूंढे, अनेक चर्चाएं की, इतिहास विधि, पंडितों आचार्यों से तर्क-वितर्क में कई बार हताश भी हुआ। इसी बीच मुझे एक दिन अचानक पंचांग की व पांडुलिपि हाथ लगी जिसे अचलो बाई स्वयं अपने हाथों से लिख कर तैयार करती थी। मौसी की बात सब सच सिद्ध हो गई। साक्षात होकर परंतु जिज्ञासा की आग में घी पड़ गया। अब खिमलासा की स्थापना और अस्तित्व पर फिर प्रश्नचिन्ह हो गया।’’
इस प्रकार साहित्य एवं शिक्षा का एक स्नातकोत्तर विद्वान स्वरुचि से इतिहास लेखन में प्रविष्ट हो गया। जब कोई व्यक्ति रुचि ले कर कोई काम करता है तो उसका परिणाम भी सटीक और सार्थक निकलता है। पं. केशव रावत ने इस बात के तथ्य ढूंढ निकाले कि खिमलासा को उपकाशी क्यों कहा जाता रहा है? विक्रम संवत 1878 में अचलो बाई द्वारा तैयार किए गए हस्तलिखित पंचाग के छायाचित्रों सहित लेखक ने इस बात को स्पष्ट किया है कि खिमलासा को उपकाशी का दर्ज़ा कैसे प्राप्त हुआ था। इस तथ्य को जानने के लिए इस पुस्तक को पढ़ना उत्तम रहेगा। किन्तु अचलो बाई कौन थी? इस बारे में लेखक ने जो जानकारी दी है उसका उल्लेख करना यहां समीचीन होगा। लेखक ने लिखा है कि डाॅ. हीरालाल रायबहादुर ने अपनी पुस्तक ‘‘सागर सरोज’’ में जिले के जिन चैदह रत्नों की चर्चा की है उनमें से एक रत्न का जन्म खिमलासा में हुआ था और वह थी विदुषी अचलो बाई। खिमलासा उस समय वेद-वेदांग के अध्ययन का केन्द्र था जिसके कारण काशी के विद्वानों से खिमलासा का सीधा संपर्क था।
पुस्तक की प्रस्तावना में प्रसिद्ध पुराविद एवं इतिहासकार स्व. कृष्णदत्त वाजपेयी ने खिमलासा के प्राचीन नाम की जानकारी दी है। उनके अनुसार खिमलासा का प्रचीन नाम ‘‘क्षैम्मोल्लासा’’ था। मुगलकाल में यहां दुर्ग तथा अन्य इमारतों का निर्माण हुआ और इसका नाम खिमलासा पड़ गया। प्रो. वाजपेयी तथा पं. केशव रावत के प्रमाण सत्य पर आधारित हैं क्योंकि बुंदेलखंड की प्रचीनता निर्विवाद है। इस भू-भाग पर प्रागैतिहासिक मानवों ने निवास किया जिसके प्रमाण सागर जिले में ही आबचंद की गुफाओं के भित्तिचित्र में मिलते हैं। सागर के एरण नामक स्थान से मौर्यकालीन सिक्के तथा गुप्तकालीन प्रतिमाएं मिली हैं। वैसे खजुराहो को बनाने या बसाने वाले चंदेलवंश के बारे में जो कथा है वह भी बुंदेलखंड को काशी से जोड़ती है। यह कथा उस रात से आरम्भ होती है जब वाराणसी के गहरवार राजा इंद्रजीत के राजपुरोहित की अतिसुन्दर कन्या हेमराज अर्थात हेमवती अपनी सखियों के साथ सरोवर में जल-क्रीड़ा कर रही थी। चन्द्रमा ने हेमवती को देखा तो वह उसके सौंदर्य पर मुग्ध हो गया। उसने हेमवती के सम्मुख विवाह प्रस्ताव रखा और उसी रात हेमवती ने चन्द्रमा के साथ गंधर्व विवाह कर लिया। चन्द्रमा ने हेमवती से कहा था कि वह कालिंजर के पास आसु नामक जगह में पहुंच कर अपनी संतान को जन्म दे। हेमवती ने केन नदी के तट पर स्थित आसु ग्राम में आ कर एक पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम रखा चन्द्रवर्मा। उसी चन्द्रवर्मा ने चंदेलवंश की स्थापना की। महाभारत महाकाव्य में बुंदेलखंड का उल्लेख उसके प्रचीन नाम दशार्ण के रूप में मिलता है। मैंने अपना उपन्यास ‘‘शिखण्डी’’ लिखते समय महाभारत का अध्ययन कर के पाया कि शिखंडी का विवाह जिस कन्या के साथ कराया गया था, वह दशार्णनरेश हिरण्यवर्मा की पुत्री हिरण्यमयी थी। बुंदेलखंड के इसी प्राचीनतम भू-भाग में बसे हुए खिमलासा की प्राचीनता पर भी कोई संदेह नहीं किया जा सकता है।
‘‘बुंदेलखंड की उपकाशी खिमलासा’’ की पूर्ण सामग्री चार परिशिष्ट और 49 शीर्षकों में विभक्त है। लेखक ने प्रत्येक तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत किया है। जहां आवश्यक हुआ, वहां दस्तावेज़ और इमारतों के छायाचित्र भी समाहित किए गए हैं। इससे इस पुस्तक की प्रमाणिकता एवं मूल्यवत्ता बढ़ गई है। लेखक ने खिमलासा का इतिहास प्रागैतिहासिक युग से आरंभ किया है। इसके बाद पौराणिक काल के साथ ही गुप्त, मुगल, चंदेल, गोंड आदि साम्राज्यों की जानकारी देते हुए बुंदेला शासक महाराज छत्रसाल के समय का विवरण है। फिर पेशवाओं का आगमन और इसके बाद अंग्रेजी शासन के समय की स्थिति का वर्णन है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अंत में स्वतंत्रता संग्राम में खिमलासा के योगदान का भी जिक्र किया गया है।
परिशिष्ट दो में स्थापत्य की जानकारी दी गई है। खिमलासा में वास्तु कला एवं स्थापत्य कला के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। जिनमें प्रमुख हैं- किला, नगीना महल, पंचपीर की दरगाह, इबादत खाना, ईदगाह, डोयला जलाशय, बारादरी और गौरी मठ आदि।
परिशिष्ट 3 में संस्कृति की जानकारी दी गई है। समूचे बुंदेलखंड की भांति खिमलासा में भी सदा सांप्रदायिक सद्भाव रहा। यहां हिंदू संस्कृति फूली-फली। किंतु अन्य धर्म एवं संप्रदाय भी विकसित हुए। वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, मुस्लिम आदि मिलजुल का निवास करते रहे।
परिशिष्ट 4 में भौगोलिक विवरण दिया गया है इसमें जलवायु तथा उद्योग-धंधों की भी जानकारी दी गई है। संदर्भ सूची के उपरांत हालैंड की पर्यटक रियाना का पत्र रखा गया है जिसमें पत्र-लेखिका ने नगीना महल का सुंदर रेखा चित्र बनाया है।
ऐतिहासिक वैभव एवं पर्यटन की दृष्टि से पुस्तक में दी गई विशेष स्थलों की जानकारी महत्वपूर्ण है। यह पुस्तक खिमलासा के प्रति जिज्ञासा जगाने वाली, रुचि पैदा करने वाली तथा प्राचीन वैभव से परिचित कराने वाली एक महत्पूर्ण इतिहास पुस्तक है। इसे खिमलासा की गाईड-बुक के रूप में भी काम में लाया जा सकता है। पुस्तक में जिस प्रकार तथ्यों के साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं, उनसे पता चलता है कि लेखक ने कितनी मेहनत और लगन से अपने क्षेत्रीय इतिहास को लेखबद्ध किया है। इस पुस्तक को लिख कर लेखक केशव रावत ने इतिहास के खोए हुए पन्नों को फिर ढूंढ निकाला है तथा उपकाशी के रूप में उसकी प्राचीन महत्ता को पुनः स्थापित किया है। प्रत्येक तथ्य रोचक शैली में प्रस्तुत किए गए हैं। यह पुस्तक पठनीय है, संग्रहणीय है तथा चर्चा में बने रहने योग्य है, ताकि इस पुस्तक से लोग खिमलासा के महत्व से परिचित हो सकें। इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखक पं. केशव रावत ने खिमलासा का इतिहास लिख कर बुंदेलखंड की एक और ऐतिहासिक महत्ता को रेखांकित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है जिसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं।                 
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