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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, February 23, 2023

बतकाव बिन्ना की | आ रओ नांय से मांय होबे को सीजन | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"आ रओ, नांय से मांय होबे को सीजन.!"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
आ रओ, नांय से मांय होबे को सीजन..!           - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

        ‘‘भैयाजी, आपको ऐसो नई लग रओ के चुनाव को मौसम शुरू होबे वारो आए।’’ मैंने भैयाजी से पूछीं। भैयाजी ऊ टेम पे बैठ के अपने हाथ के नखून काट रए हते।
‘‘तुमें लग रई के चुनाव को सीजन आबे वारो आए? तुम्हें दिखा नई रओ के सीजन आई गओ। सबलौं दोंदरा मचन लगो। बाकी तनक दो घड़ी गम्म खाओ औ हमें नखून काट लेन देओ। ऐसो ने होय के तुमाई बातन में पर के हम अपनी उंगलियां काट लेंवे।’’ भैयाजी ने मोसे कही और अपनो नखून काटन लगे।
‘‘हऔ भैयाजी! आप नखून काट लेओ फेर बात करबी। बाकी आपको नखून काटत देख के मोय हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को निबंध याद आ गओ।’’ मैंने कही।
‘‘कोन सो निबंध?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘अरे बोई, ‘नाखून क्यो बढ़ते हैं?’। मैंने बताई उनके लाने।
‘‘हऔ स्कूले में पढ़ो सो हमने सोई रओ, मनो का हतो ऊमें?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘ ऊमें द्विवेदी जी की छोटी बिटिया ने उनसे पूछ लौ के नखून काय बढ़त आएं? लेओ बिंध गई सल्ल! अब द्विवेदी जी सो हते सोंस-फिकर वारे, सो बे सोसन लगे के बात तो सई पूछ रई बिटिया के नखून काय बढ़त आएं? बस, फेर का हती बे सोसत-सोसत पौंच गए अपन ओरन के पुरखा बंदरा लौं। फेर उनको लगो के जे नखून सो जनावर होबे की निसानी आए। सो उन्ने जेई-जेई में पूरौ निबंध लिख डारो।’’ मैंने शार्टकट में निबंध सुना दऔ।
‘‘हऔ, अब मोय सोई याद आ गओ। एक जे निबंध हतो औ एक बो वारो रओ, बख्शी जी को।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, समझ गई। आप डाॅ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी को ‘क्या लिखूं’ निबंध की कै रए न?’’ मैंने भैया जी से पूछी।
‘‘हऔ, उमें दो मोडियां रईं जिन्ने बख्शी जी के लाने दो टापिक दए हते लिखबे के लाने।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सही कई। ऊमें एक रई नमिता औ एक रई अमिता। नमिता ने बख्शी जी से कई के ‘‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं’’ पे निबंध लिख देओ औ अमिता  बोली के ऊको ‘‘समाज सुधार’’ पे निबंध चाउने। जे सुन के बख्शी जी सोंस में पर गए के मनो दूर के ढोल सुहावने तो लगत आएं पर का इत्ते सुहावने के ऊपे पांच पेज को निबंध लिखो जा सके? ऊंसई समाज सधार सो इत्तो बड़ो विषय आय के ऊको पांच पेज में कैसो सुलटाओ जा सकत आए? बड़ों नोनो निबंध रओ।’’ मैंने ऊ निबंध के बारे में बता डारो।
‘‘तुमें सोई पूरौ निबंध याद कहानो!’’ भैयाजी मोपे खुस होत भए बोले।
‘‘बो का आए के जोन चीज मजेदार रैत आए बो याद रै जात आए। अब का आजकाल के जे नेता हरे याद रैहें?’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, घूम-फेर के आ गई ने मुद्दे पे। चलो, हमाए नखून सोई कट गए। अब बतकाव करी जा सकत आए।’’ भैयाजी अपनो गमछा झटकारत भए बोले।
‘‘बतकाव का करना आए? आपई बताव के 2014 के चुनाव में को-को कां-कां से ठाड़ो भओ रओ, जे कोनऊं खों याद हुइए का? औ अब जैसो-जैसो चुनाव करीब आहे सबरे नांव ऐसे रटा दओ जाहें के मनो पचास बरस लौं ने भूलहें। अबई टीवी वारे सबई खों बुला-बुला के उनको चैखटो दिखाहें।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ सो ठीक तो आए। काय से के चुनाव के बाद उनमें से एकई-दो जने के चैखटा दिखा जाएं सो  सो भौत कहानें। जीतबे के बाद कोनऊं पलट के ने देखहें औ ने दिखाहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे बताओ भैयाजी के आप कोन मुद्दा पे अपनो वोट दैहो?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘कोनऊं मुद्दा पे नईं।’’ भैया जी बोले।
‘‘मने?’’
‘‘मने जे के, मुद्दा-फुद्दा पे कछू नई रखो। अब तुमई देख लेओ के गरीबी, बेरोजगारी घांई मुद्दा सो, सात पीढ़ी पैलऊं से चले आ रए, औ सात पीढ़ी बाद लौं चलहें। काम सो बो वारो हुइए जोन पे खात-पीयत को जुगाड़ हो सके।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अब ऐसो बी नइयां! अब कछू ज्यादई बोल रए।’’ मैंने कई।
‘‘कैसो ऐसो नइयां? तुम जे कैसे कै रईं?’’ भैयाजी ने मोसे पूछी।
‘‘आपई देख लेओ, अपने ई छोटे से शहर में कित्ती सारी गाड़ियां दौड़न लगीं। इत्ते माल खुल गए। जे सब देख के ऐसो नई लगत के अपने इते से गरीब कऊं मों छिपा के चली गई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ जरूर! काय का सड़क पे कोनऊं पैदल चलबे वारो तुमें दिखात नइयां का? औ जो खींसा में माल ने होय सो उते माल में को पूछ रओ? सबरे माल नोई जा सकत आएं बिन्ना! तनक अपनी आंखे खोल के देखो! लोगन खों रोजी-रोजगार नोई मिल रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, मोय सो सब दिखात आएं मनो मोय लगो के कऊं कोनऊं मोय पुरानो जमाने को ने समझन लगे के मैं आज लौं बेई मुद्दा पकरे बैठी दिखा रई।’’ मैंने भैयाजी से अपनी मन की बात कहई दई।
‘‘सो ऊंमें का? जोन दिनां जे मुद्दा खतम हो जेहें, ऊ दिना इनको कहूं सिरा आबी। बाकी अबे सो इनसे कभऊं छुटकारा होत दिखात नइयां।’’ भैयाजी बोले।
‘‘मनो चुनाव टेम पे भौतई मजो आत आए। सबरे नांय के मांय भगत फिरत दिखात आएं। मने ई पार्टी वारे ऊ पार्टी में औ ऊ पार्टी वारे ई पार्टी में। औ इत्तई नईं, चुनाव के बाद लौं नांय से मांय होत रैत आंए। मनो नांय से मांय होबे को सीजन चल रओ होए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, अब अगली साल बड़ो वारो चुनाव हुइए। जेई से तो अबई से दोंदरा मचन लगो। अब बख्शी जी जो आजकाल होते तो बे लिखते के ‘‘चुनाव कैसे जीतूं’’। काय से के चुनाव के टेम पे दूर के ढोल सोई कान पे बजन लगत आएं औ समाज सुधार को तो ट्रेंड चलन लगत आए। सोसल तीडिया वारो, असली वारो नोईं।’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘हऔ, औ जो द्विवेदी जी होते सो बे लिखते के ‘‘लोग चुनाव क्यों लड़ते हैं?’’ काय से के चुनाव के टेम पे कछू लोगन के भीतर को जनावर खंाई-खांई करन लगत आए।’’ मैंने सोई कई।
‘‘चलो, आन देओ चुनाव, मजो आहे।’’ भैयाजी बोले।
बात सो सही आए के मजो भौत आत आए चुनाव टेम पे। ऊ टेम पे चार दिनां के लाने लगन लगत आए के अपने सबरे विकास के काम हो जेहें। काय से के चुनाव बाद तो ठैरे टांय-टांय, फिस्स-फिस्स! सो जो कछू हुइए, देखबी, मजे लेबी। बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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