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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, March 28, 2023

पुस्तक समीक्षा | सच बयानी का सफ़र | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 28.03.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ के काव्य संग्रह "सच बयानी का सफ़र" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
सच की विविधता को मुखर करती कविताएं
समीक्षक - डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - सच बयानी का सफ़र
कवि       - ऋषभ समैया ‘‘जलज’’
प्रकाशक    - प्रिज़्म बुक्स (इंडिया), 58, मुरली लेक सिटी, ओल्पाड, सूरत-394540 (गुजरात)
मूल्य        - 795/-
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ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ सागर नगर के वरिष्ठ कवियों में से एक हैं। 07 सितम्बर 1947 को जन्मे कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ दीर्घ जीवनानुभवों के साथ काव्य सृजन का भी दीर्घकालिक अनुभव रखते हैं। यद्यपि पुस्तक प्रकाशन की दिशा में उनका काव्य संग्रह ‘‘सच बयानी का सफ़र’’ एक लंबे अंतराल के बाद प्रकाशित हुआ है। इस संबंध में कवि ने ‘‘आत्मकथ्य’’ में स्वयं लिखा है कि -‘‘हर एक जीवन यात्रा एक कविता गजलगो अपने काव्य चक्षु से बांचता रहता है और भाषा भेद किए बिना शब्दों में पिरोकर रचना धर्म निबाहता हुआ यात्रा करता रहा है। ‘सच बयानी का सफर’ भी लगभग पचपन वर्षों का काव्य सफर है। कविता, कहानी, गजल कोशिश से नहीं लिखी जाती, वह तो जब निकलती है तो अविरल भाव धारा की तरह। मुझे काव्य संग्रह प्रकाशन का बहुत शौक नहीं रहा।’’

जहां तक सच का प्रश्न है तो सच हमेशा आंदोलित करता है। सच चाहे कितना भी चुभने वाला क्यों न हो, जीवन की सच्चाइयों से चाह कर भी नज़रें नहीं चुराई जा सकती हैं। सच के अनेक प्रकार होते हैं-कड़वा, मीठा, चुलबुला, गुदगुदाता, सुइयां चुभोता और कभी आईना दिखाता। लगभग ये सारे सच इस काव्य संग्रह में अपने अनूठे काव्यात्मक रूप में मिलेंगे। परिवार इस सामाजिक जीवन का सबसे बड़ा सच है। परिवार उसी समय तक एक उम्दा परिवार रहता है जब तक उसके सारे सदस्य परिवार के महत्व को समझते हैं और उसका आदर करते हैं। जिस दिन परिवार के प्रति आदर भावना कम होने लगती है, उसी दिन से परिवार टूटने लगता है। इसलिए कवि ने अपनी रचना के द्वारा परिवार की महत्ता को समझने का आह्वान किया है-
घर को केवल गुज़र-बसर माने हैं जो।
कोहनूर !  कंकर  पत्थर माने हैं जो।
बहुत तरस आता है उनकी बुद्धि पर
अमृत-प्याला बुझा जहर माने हैं जो।
चैन चहक की मस्ती मौज झूमते हैं
अर्पण, अपनापन आदर माने हैं जो।
एक परिवार सदस्यों के पारस्परिक संबंधों से ही तो मिल कर बनता है अतः परिवार की ही भांति संबंधों का सच भी जीवन का महत्वपूर्ण सच होता है। ये संबंध माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री या मित्र-रिश्तेदारों के होते हैं। कवि ‘जलज’ ने अपने इस संग्रह में पिता को समर्पित कुछ रचनाएं संजोई हैं। जिनमें से एक रचना की ये पंक्तियां देखिए। इनमें पिता के अस्तित्व एवं दायित्वों को सामने रखते हुए पिता के लिए एक नूतन उपमा दी गई है कि वे परिवार में सुख-सुविधा की गर्माहट बनाए रखने के लिए उसी तरह लगे रहते हैं जैसे किसी रजाई में धागा तगा हुआ होता है-  
स्मृतियों से बंधे  पिताजी।
दायित्वों से लदे पिताजी।
जीवन की पथरीली राहें
ठिठके फिसले सधे पिताजी। ’
घर-भर की नींदें मीठी हों
रात-रात भर जगे पिताजी।
सुविधाओं की गर्माहट को
खुद रजाई से तगे पिताजी।

जीवन में जितना पिता का महत्व है उतना ही जन्मदात्री मां का भी है। अकसर एक निपट गृहणी मां को लोग ‘‘फालतू की वस्तु’’ मान लेते हैं। जबकि गृहणी मां के दायित्व भी कम नहीं होते हैं। मां के लिए भी ‘‘सांकल कुंडी’’ की एक नई उपमा देते हुए मां की महत्ता को कवि ने बखूबी रेखांकित किया है-
जीवन देने  वाली  है मां।
पालन पोषण वाली है मां।
मन भर नेह परोसा करती
प्रिय भोजन की थाली है मां।
हरी भरी बगिया सबकी है
फ़क़त सींचती माली है मां।
घर द्वारे की सांकल कुंडी
मन चैकस रखवाली है मां।

मां के बाद घर में पत्नी का विशेष स्थान रहता है। चूंकि वह दूसरे परिवार से आई हुई स्त्री होती है अतः उसका दायित्व और विशिष्ट रहता है। वह चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे, वह चाहे तो घर को नर्क बना दे। लेकिन वास्तव में यही पत्नी एक ‘‘डिठौने’’ की भांति अपने परिवार से सभी विपत्तियों को दूर रखती है। कवि ‘‘जलज’’ की इस भावना को ‘‘बीबी’’ शीर्षक इस उनकी ग़ज़ल में देखा जा सकता है-
तन मन शादी-गोना बीबी।
सपना सुखद सलोना बीबी।
धुरी कहें या बाहर घेरा
घर का कोना कोना बीबी।
सीरत से घर स्वर्ग बना दे
नफरत-रोना धोना बीबी।
गिरे नो मुंह पर कालिख पोते
रक्षक बने, डिठौना बीबी।

घर-परिवार से बाहर निकलने पर कवि जब आमजन जीवन पर दृष्टिपात करता है तो उसे यह देख कर ठेस पहुंचती है कि चारो ओर पराएपन का सन्नाटा है। लोग अलगाववादी होते जा रहे हैं। एकता खोखली होती जा रही है और जिससे समूची सभ्यता पर असंवेदनशीलता का ख़तरा मंडराने लगा है। ग़ज़ल की ये पंक्तियां देखिए-
घोर सन्नाटा घिरा है, नेह के हर नीड़ में।
खो गया है आदमी, अलगाववादी भीड़ में।
झुक गई है शर्म से, या बोझ से दोहरी हुई
हो गए नासूर गहरे, सभ्यता की रीढ़ में।
नफरतों की दीमकें, चट कर गईं हैं एकता
घुप्प अंधियारा समेटे, सरपरस्ती सीड़ में।

जीवन का एक सच यह भी है कि लोग हानि के बारे में जानते-बूझते भी धूम्रपान करते रहते हैं। धूम्रपान पर केन्द्रित यह रचना इस संग्रह की महत्वपूर्ण रचना है क्यों कि इसमें उपदेशात्मक ढंग से नहीं वरन अगरबत्ती के धुंए से तुलना करते हुए धूम्रपान के बारे में लिखा गया है-
सिगरेट और अगरबत्ती
दोनों के धुएं में फर्क है
पहला अय्याशी का नमूना है
दूसरा ख़ुशबू का अर्क़ है।
सिगरेट कैन्सर को जन्म देती है
अगरबत्ती महक लुटाती है
सिगरेट मर्सिया पढ़ती है
अगरबत्ती गुनगुनाती है।

कवि ऋषभ समैया ‘‘जलज’’ के इस काव्य संग्रह में दोहे और बुंदेली ग़ज़लें भी हैं। वे उन्मुक्तभाव से काव्य रचते हैं तथा नवीन उपमाएं देते हुए अपनी बात कहते हैं। किन्तु एक सच यह भी है कि इस संग्रह की रचनाएं निश्चत रूप से पठनीय हैं किन्तु आमपाठक के लिए इसे खरीद के पढ़ पाना कठिन है। कुल 86 काव्य रचनाओं के इस हार्डबाउंड संग्रह का मूल्य 795 रुपये है। बड़ी डायरी के आकार में प्रकाशित इस पुस्तक का प्रकाशकीय स्वरूप बेशक़ आकर्षक है लेकिन रचनाओं की सार्थकता तभी है जब वे सभी पाठकों तक सुगमता से पहुंचें। यह पुस्तक यदि पेपरबैक में, कम मूल्य पर होती तो इसकी रचनाओं की पहुंच पाठकों तक बढ़ जाती।
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