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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, March 29, 2023

चर्चा प्लस | टेक्नोलाॅजी हमारे लिए है या हम टेक्नोलाॅजी के लिए? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
टेक्नोलाॅजी हमारे लिए है या हम टेक्नोलाॅजी के लिए?
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                   
       पर्यावरण की बहुत सीधी सरल परिभाषा है कि- वह वातावरण जिसने हमें चारो ओर से घेर रखा हो। लेकिन आज पर्यावरण से अधिक हम टेक्नोलॉजी से घिरे दिखाई देते हैं। घर से ले कर बाहर तक हम टेक्नोलॉजी पर आश्रित होते जा रहे हैं। चाहे रसोईघर हो या स्नानघर, चाहे परिवहन हो या कार्यालय हर जगह टेक्नोलाॅजी का बोलबाला है। गोया हम एक पंगु हैं और टेक्नोलाॅजी हमारी बैसाखियां। यह समझना कठिन है कि हमारे लिए टेक्नोलाॅजी है या हम टेक्नोलाॅजी के लिए हैं? बेशक़ टेक्नोलाॅजी से हम पीछे नहीं हट सकते हैं। यह हमारे बहुमुखी विकास के द्वार खोलती है लेकिन कहीं हम स्वतः इसके गुलाम तो नहीं बनते जा रहे हैं? 
 
वह दूसरे शहर में रहती है। वह जब कभी सागर आती है तभी उससे मिलना हो पाता है। अभी पिछले दिनों वह सागर आई हुई थी। उसके आने की सूचना मुझे नहीं थी लेकिन अचानक एक आयोजन में उससे भेंट हो गई। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई उसे देख कर। हम आजूबाजू बैठ गए। उसने मुझे बताया कि वह स्किल डेव्हलपमेंट की ऑनलाइन क्लासेस चलाती है। विदेशों में भी उसके छात्र हैं। मुझे यह जान का अच्छा लगा और गर्व का भी अनुभव हुआ। एक भारतीय नारी विदेशी छात्र-छात्राओं को स्किल डेव्हलपमेंट की आॅनलाईन शिक्षा दे रही है। कुछ वर्ष पहले तक स्थिति यह थी कि हमें विदेशों से स्किल डेव्हलपमेंट की शिक्षा लेनी पड़ती थी। मगर अब हम विकसित टेक्नोलाॅजी के सहारे तेजी से आगे बढ़ते जा रहे हैं। अभी हमारी बात शुरू ही हुई थी और मैं उसकी बात सुन कर गर्व ही कर रही थी कि वह बोल उठी-‘‘साॅरी, मेरे एक सेशन का समय स्टार्ट हो गया है, मुझे इसे देखना ही पड़ेगा।’’ इतना कह कर वह सभागार से बाहर चली गई। हां, अपना हैण्डबैग जरूर अपनी सीट पर छोड़ गई ताकि उसकी सीट पर कोई और कब्ज़ा न कर ले। उसके इस तरह सभागार से बाहर जाने पर मैंने सोचा कि आखिर वह आॅनलाईन क्लासेस चला रही है तो उसका अपने काम के प्रति जिम्मेदार रहना भी जरूरी है। मुझे लगा कि वह थोड़ी देर में वापस आ जाएगी। कार्यक्रम आरम्भ हो गया। मेरा ध्यान कार्यक्रम पर केन्द्रित हो गया। कार्यक्रम लगभग समाप्त होते-होते वह सभागार में वापस आई।
‘‘अब अगला सेशन रात को साढ़े ग्यारह बजे रहेगा। उसमें अमेरिकी शहरों के स्टुडेंट्स हैं। तो फिलहाल तब तक के लिए मेरी छुट्टी है। कैसा रहा कार्यक्रम? मैं तो आ कर भी अटैण्ड नहीं कर पाई। खैर तुमसे मुलाकात हो गई। यही उपलब्धि रही।’’ वह मुस्कुराते हुए बोली। तब तक कार्यक्रम पूरा समाप्त हो गया था और हमारी वहां से रवानगी का समय आ गया था।
‘‘चलो, फिर मिलती हूं।’’ कह कर वो अपने रास्ते चल दी और मैं अपने रास्ते।
यह कैसी भेंट थी? आयोजन में उसकी यह कैसी उपस्थिति थी? उससे विदा लेने के बाद से ही मैं सोच में पड़ गई। फिर मेरे मन में विचार आया कि वह तो आर्थिक लाभ के लिए अपना समय इन्टरनेट को समर्पित किए हुए है लेकिन उन लोगों के बारे में क्या कहा जाए जो आमने-सामने बैठ कर भी मोबाईल, टेबलेट या लैपटाॅप पर फिल्में देखते, नेट-चैट करते रहते हैं।

मुझे याद है कि मैं एक बार उत्कल एक्सप्रेस से दिल्ली से सागर लौट रही थी। एसी-2 कोच में चार बर्थ में मेरी सामने वाली सीट पर एक सरदार जी थे जो अमृतसर से पुरी जा रहे थे, उनकी ऊपर वाली सीट पर एक युवक था जो झांसी तक जा रहा था और मेरे ऊपर वाली सीट पर एक महिला थी जिसे मथुरा जाना था। सरदार जी हम चारों में उम्र में बड़े थे लेकिन जल्दी ही वे हम लोगों से घुलमिल गए। हम राजनीति को ले कर अनावश्यक बहसें करते रहे। वह महिला भाजपा समर्थित थी। उस युवक का तो पता नहीं लेकिन मैं और सरदार जी किसी पार्टी विशेष के नहीं थे फिर भी टाईमपास के लिए उस महिला से इस तरह बहस करने लगे गोया हम विपक्षी दल के हों। वह महिला भी एक कुशल राजनीतिज्ञ की भांति डटी रही। उसे भी बहस में मजा आ रहा था। कुछ देर में बाजू की बर्थ से भी दो सज्जन आ गए और बहस में शामिल हो गए। उनमें से एक उस महिला के समर्थन में बोलने लगा। उस समय ऐसा लग रहा था कि जैसे हम सब एक शहर के हों, परस्पर पूर्व परिचित हों। जब उस महिला के उतरने का समय आया तो मैंने और सरदार जी ने बाकायदा उस महिला से माफी मांगी कि हम यूं ही बहस कर रहे थे, यदि हमारी किसी बात का बुरा लगा हो तो दिल पे मत लीजिएगा। वह मुस्कुराते हुए बोली,‘‘मैं तो आप लोगों की आभारी हूं कि आप लोगों से बहस कर के मेरा अच्छा-खासा अभ्यास हो गया। मुझे बुरा बिलकुल नहीं लगा है।’’
हम सबने मुस्कुराते हुए उसे विदा किया। इसके बाद बचे हुए हम लोग काफी देर तक अलग-अलग मुद्दों पर चर्चाएं करते रहे। फिर देर रात हम लोग सो गए। मैं थोड़ी देर ही सो पाई क्योंकि मेरा स्टेशन फिर जल्दी ही आ गया था। मुझसे पहले वह युवक झांसी में उतर चुका था। दो बर्थ के यात्री बदल चुके थे। मेरी बर्थ पर भी कोई और पहुंचा होगा। बस, वे सरदार जी लम्बी यात्रा में थे। दूसरे दिन उन्होंने किसी और से बहस कर के समय काटा होगा। लेकिन सच तो ये है कि आपसी चर्चाओं में समय का पता ही नहीं चला था।
इसके माह भर बाद मुझे भोपाल जाना पड़ा। दमोह से भोपाल तक चलने वाली उस रेल के एसी चेयर कोच में यात्रियों के आमने-सामने बैठने की व्यवस्था थी। लगभग तीन-साढ़े तीन घंटे का रास्ता मुझे तेरह घंटे के समान लगा। मेरी बाजू वाली सीट पर बैठी महिला ईयरफोन लगाए मोबाईल पर कोई कार्यक्रम देख रही थी, मेरे सामने बैठी युवती लैपटाॅप पर कुछ काम कर रही थी। उसके बाजू में बैठा युवक भी मोबाईल में किसी से चैट पर व्यस्त था। वह बीच-बीच में मुस्कुरा उठता था। अब यह पता नहीं कि उसकी जिससे चैटिंग हो रही थी वह उसकी वास्तविक दोस्त थी या कोई आभासीय दोस्त? मुझे पूरे समय मोबाईल में घुसे रहना पसंद नहीं है। जाहिर है कि मेरी यात्रा बोरीयत भरी रही। दुर्भाग्य से यह अबोलेपन का आलम अब घर के भीतर बैठक से ले कर बेडरूम तक फैलता जा रहा है।
 
आजकल कार्पोरेट दुनिया में काम करने वाले पति-पत्नी अपने बेडरूम में भी अपने-अपने मोबाईल और लैपटाॅप में व्यस्त रहते हैं। भोजन की मेज पर बैठा परिवार भी अपने-अपने मोबाईल पर यूं जुटा रहता है मानो खाने से अधिक जरूरी हो मोबाईल पर समय देना। ऐसे में जब कोई बड़ा किसी बच्चे को टोंकता है या कोई बच्चा किसी बड़े से कोई बात करने की कोशिश करता है तो दोनों के बीच झड़प की स्थिति बन जाती है। सच तो ये है कि जब हम मोबाईल पर सोशल मीडिया की दुनिया में घूम रहे होते हैं तो ठीक उस समय हम अपनी दुनिया में अनसोशल हो चुके होते हैं। हमें उस समय किसी की पोस्ट पर कामेंट देना अधिक जरूरी लगता है, बनिस्बत अपनी मां, पिता, भाई या बहन की बात सुनने के।
टेक्नोलाॅजी के प्रभाव की चर्चा को मैंने रोजमर्रा की ज़िन्दगी से इसलिए शुरू की क्योंकि टेक्नोलाॅजी से होने वाले बड़े-बड़े नुकसान तो हमें साफ दिखाई देते हैं लेकिन अनजाने में हम जिस तरह टेक्नोलाॅजी के शिकंजे में जकड़ते जा रहे हैं उस पर हमारा ध्यान प्रायः नहीं जाता है। यह सच है कि कंप्यूटर, स्मार्टफोन, लैपटॉप, नोटपैड, इत्यादि गैजेट्स ने हमारी शिक्षा प्रणाली को और बेहतर और आसान बना दिया है। हम इंटरनेट के माध्यम से जिस विषय या वस्तु को चाहे उसे मोबाइल या लैपटॉप में पढ़ सकते हैं। नयी तकनीकी के चलते ही दुनिया भर में फैली कोरोना महामारी में भी बच्चे घरों में रहकर भी अपनी क्लासेस करते रहे है। वर्क फ्राम होम की प्रणाली ने लाखों लोगों की नौकरियां बचाए रखीं और अर्थव्यवस्था को भी सहारा दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह सब बिना टेक्नोलाॅजी के सम्भव नहीं था।

लेकिन टेक्नोलाॅजी के कुछ और भी नकारात्मक पहलू हैं जिन्हें हम नकार नहीं सकते हैं। जैसे टेक्नोलाॅजी से बनाए गए एसी, फ्रिज आदि हमारे वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसों से ओजोन परत को नुकसान पंहुचा रहे हंै। विभिन्न प्रकार की नई तकनीक के कारण हमारी व्यक्तिगत सूचनाएं का गलत हाथों में पड़ने का खतरा बना रहता है। यहां तक कि बड़े सस्थानों जैसे बैंक, उद्योग, आदि की सुरक्षा को खतरा रहता है। टेक्नोलाॅजी से होने वाले नुकसान में यह भी है कि इसने विचारशीलता और कल्पनिकता को कम कर दिया है। आज हम संख्याओं का जोड़ लगाने के लिए पहाड़े नहीं पढ़ते हैं बल्कि कैल्कुलेटर खोल कर झट से गुणा-भाग, जोड़-घटाना कर लेते हैं। इससे दिमाग की गणतीय क्षमता का समुचित उपयोग नहीं हो पाता है। किसी भी विषय के बारे में जानकारी को याद रखने की बजाए हम इंटरनेट के ‘सर्च इंजन’ पर निर्भर हो गए हैं। हम ‘‘एलेक्सा’’ जैसे वाईस कामांड डिवाईस को आदेश दे कर सोचते हैं कि टेक्नोलाॅजी को हमने अपना सेवक बना लिया है जबकि ठीक इसके उलट हम टेक्नोलाॅजी के गुलाम बनते जा रहे हैं। एक अदद लोरी सुनने के लिए अगर बच्चे को मां पर निर्भर होने के बजाए ‘‘एलेक्सा’’ पर निर्भर होना पड़े तो यह मानवीय संवेदनाओं को गंभीर क्षति पहुंचने जैसा है।

दरअसल सोशल मीडिया अर्थात् फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम को ईज़ाद किए जाने के पीछे उद्देश्य था ‘‘कनेक्टिंग पीपुल्स’’ यानी लोगों को आपस में जोड़ना, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में रह रहे हों। ऐसा हुआ भी। हम घर बैठे दुनिया के दूसरे छोर पर बैठे अपरिचित से जुड़ने लगे लेकिन अपने आस-पास मौजूद लोगों से बेख़बर हो गए। कोई भी आविष्कार आमतौर पर अच्छे उद्देश्य को ही ले कर किया जाता है लेकिन उसके गुलाम बन कर हम उसे अपने ही विरुद्ध उपयोग में लाने लगते हैं। सो, इसमें दोष टेक्नोलाॅजी का नहीं वरन हमारा है या हमारी उस आदत का है जो हमें अधिकार प्राप्त करने के वहम में गुलाम बना देती है। हमने टेक्नोलाॅजी की मदद से सौ से अधिक मंजिलों की इमारतें बनानी शुरू कर दीं और फिर उसी टेक्नोलाॅजी की मदद से यानी लिफ्ट से उन मंजिलों तक पहुंचने का रस्ता बनाया। लेकिन यदि लिफ्ट में खराबी आ जाती है तो पंद्रहवी मंजिल में रह रहा इंसान भी जहां के तहां अटक कर रह जाता है। वह पंद्रह मंजिल की सीढ़ियां न तो चढ़ सकता है और न उतर सकता है। छोटे से ले कर बड़े-बड़े उपकरण भी कम्प्यूटर टेक्नोलाॅजी पर आधारित होती है। ऐसे में यदि कम्प्यूटर टेक्नोलाॅजी में कोई इंफेक्शन आ गया तो सारी व्यवस्था एक झटके में चरमरा सकती है।

हम यह क्यों भूलते जा रहे हैं कि मनुष्य ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहयोगी हो सकता है, कोई मशीन या कोई टेक्नोलाॅजी नहीं। हम अपनी जगह उसे न दें, इसी में हमारी भलाई है। हमारी मनुष्यता, हमारी संवेदना, हमारी विचारशीलता, हमारी चैतन्यता आदि सभी कुछ तभी तक सुरक्षित है जब तक हम टेक्नोलाॅजी को अपने ऊपर हावी न होने दें। मानवीय संवाद, मानवीय संवेदना और मानवीय स्पर्श से बढ़ कर कोई टेक्नोलाॅजी नहीं हो सकती है और न होनी चाहिए। अर्थात् हम टेक्नोलाॅजी को इस्तेमाल करें, टेक्नोलाॅजी हमें नहीं।
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