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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, April 11, 2023

पुस्तक समीक्षा | शब्दों की छैनी से विसंगतियों को छीलता व्यंग्य संग्रह | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 11.04.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  डॉ नाथूराम राठौर के व्यंग्य संग्रह "कुत्ते बन गए श्वान" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
शब्दों की छैनी से विसंगतियों को छीलता व्यंग्य संग्रह
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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व्यंग्य संग्रह  - कुत्ते बन गए श्वान"
लेखक        - डॉ नाथूराम राठौर
प्रकाशक    - अयन प्रकाशन, जे 19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली -110059
मूल्य       - 300/-
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04 जून 1944 को जिला दमोह के बांसा तारखेड़ा में जन्मे प्रोफेसर डॉ. नाथूराम राठौर ने उच्चशिक्षा विभाग में सेवाकार्य किया तथा शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रोफेसर, विभागाध्यक्ष एवं  प्राचार्य रहते हुए सेवानिवृत्त हुए। भाषाविज्ञान, ललित निबंध तथा व्याकरण पर उनकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। ‘‘कुत्ते बन गए श्वान’’ उनका व्यंग्य संग्रह है जिसमें कुल 40 व्यंग्य संग्रहीत हैं। इस संग्रह की भूमिका सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डाॅ. सुरेश आचार्य तथा साहित्यकार डाॅ. रघुनंदन चिले ने लिखी है। ‘‘दुम हिलाने की संस्कृति’’ जैसे व्यंग्यसंग्रह के कृतिकार डाॅ. सुरेश आचार्य ने अपनी विशिष्ट शैली में डॉ. नाथूराम राठौर के इन व्यंग्यों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि -‘‘‘‘प्रोफेसर एन. आर. राठौर के व्यंग्य- संग्रह ‘कुत्ते बन गए श्वान’ का मैंने आद्यंत और सांगोपांग अध्ययन किया है। चालीस व्यंग्य निबंधों का यह ‘चालीसा’ सचमुच विडंबनाओं, विद्रूपों, विसंगतियों और बेईमानियों के लिए ‘भूत भगाऊ’ रचना है। इन निबंधों के पढ़ने से प्रोफेसर राठौर के बहुपठ और बहुश्रुत विद्वत-व्यक्तित्व की जानकारी प्राप्त होती है। ऐसा रचनाकार जिसे पढ़कर आप अवाक् रह जाते हैं। श्री राठौर में गजब की व्यंग्य प्रतिभा है। उनके विकट अध्ययन-मनन ने उसे बहुत पैनी धार भी दी है, जिसे पढ़कर पाठक चिंतामग्न हो जाता है।’’
डाॅ. रघुनंदन चिले ने व्यंग्य शैली की व्याख्या करते हुए डाॅ राठौर के व्यंग्यों से परिचित कराया है। वे लिखते हैं कि-‘‘कुत्ता शब्द एक अनगढ़, गंवारू तथा खुरदरा शब्द लगता है पर वही बोला-सुना जाता है। कुत्तों को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं थी.... नहीं है परन्तु अभिजात्य-पन का चस्का कुत्तों को भी लगने लगा है। वे श्वान की श्रेणी में अपने आप को अवस्थित करने में लगे हैं। अपनी अस्मिता तथा पहचान को लेकर कुत्ते भी जाग्रत हो गये हैं। समाज को उनके कुत्तेपन की अनदेखी कर उन्हें श्वान का दर्जा दे ही देना चाहिए क्योंकि व्यंग्यकारों की भी यही मंशा है।’’ वे आगे लिखते हैं कि ‘‘डॉ. नाथूराम राठौर की कलम-रवानी श्लाघनीय है। विषय-वस्तु का चयन विविधतापूर्ण है। मानव स्वभाव-व्यवहार तथा सामाजिक संरचना के ताने-बाने का वास्तविक ब्लू प्रिंट लेखक के मन-मस्तिष्क में रहता है। पठनीय तथा प्रवर्तनीय व्यंग्य पाठकों को सुखानुभूति तो करवायेंगे ही, साथ ही झकझोरेंगे भी। यह संकलन व्यंग्य के क्षेत्र में वैचारिक तरंगें निःसृत करेगा तथा समीक्षकों को समीक्षात्मक हस्तक्षेप के लिए आकर्षित भी करेगा।’’
जहां तक व्यंग्य लेखन का प्रश्न है तो वह अपने आप में समाज की वास्तविकता का ब्लूप्रिंट होता है। जो कुछ घटित हो रहा है, वह चाहे अच्छा हो या बुरा हो, व्यंग्यकार के लेखन का विषय बनता है क्योंकि एक व्यंग्यकार व्यवस्थाओं में निरंतर परिष्कार की अपेक्षा रखता है और इसीलिए वह शब्दों की धारदार छेनी से विसंगतियों को छीलता रहता है। यह छीलने की प्रक्रिया तब तक निरंतर जारी रहेगी जब तक कि व्यवस्थाएं सही आकार नहीं ले लेतीं। चाहे शरद जोशी हों या हरिशंकर परसाई हों, सभी व्यंग्यकारों ने शब्दों को ऐसा हथियार बना कर प्रहार किया जिससे चोट तो लगे लेकिन प्रक्रिया अहिंसात्मक रहे। वस्तुतः व्यंग्य चेतना को झकझोरने का काम करते हैं। प्रत्येक पाठक उसकी विषयवस्तु से स्वयं को सहमत पाता है।
‘‘कुत्ते बन गए श्वान’’ में संग्रहीत डाॅ नाथूराम राठौर के व्यंग्यों में विषय की विविधता और पर्याप्त पैनापन है। लेखक ने सामान्य से लगने वाले महत्वपूर्ण बिन्दुओं को अपने व्यंग्यों का विषय बनाया है। लेखक ने संग्रह की भूमिका में स्वयं लिखा है कि -‘‘ व्यंग्य क्या होता है? पिछले तीस-चालीस सालों में व्यंग्य का अर्थ खूब समझा गया है। खूब परिभाषाएं हुई हैं, व्याख्याएं हुई हैं। आचार्य क्षेमेन्द्र के चिंतन से उगता हुआ व्यंग्य काव्य की क्षमताओं का उन्नयन है। हर शब्द और वाक्य व्यंग्य की रंजकता से भरा होता है। भावक की सोच और समझ व्यंग्य को विमोचित करती है। वि़अंग = विकृत अंग या अंगों का निकट अनुभव व्यंग्य होता है। व्यंग्य एक लघुतर ध्वनि है, विकट घन-गर्जन नहीं। गर्जना तो सपाट बुद्धि वालों के लिए होती है। कुंभकर्णी निद्रा की तरह कितना ही पीटो गर्जो उन पर असर नहीं होता। व्यंग्य के तंतु अत्यंत कोमल और संवेदक होते हैं। वीणा की कोमल रागिनी की तरह उसे हृदयंगम किया जाता है। केवल धर्म की पर्तें छीलना व्यंग्य नहीं है या राजनीति की ऊबड़-खाबड़ भूमि को इधर-उधर कर देना भी व्यंग्य का सुकर्म नहीं है। समाज के घावों पर नमक छिड़ककर छोड़ देना भी व्यंग्य का लक्ष्य नहीं हो सकता। व्यंग्य तो बरसते पानी की तरह होता है जो हर ऊंची-नीची जमीन को समतल बना देता है। खाइयों को पाटना, शुष्कता में आर्द्रता और पर्यावरण का संतुलन बनाना व्यंग्य लेखन का बड़ा ध र्म होना चाहिए। पत्थर फेंककर मनःशांति प्राप्त करना या घृणा की जमी हुई मवाद को दूसरे पर उगलना कोई भी मानव धर्म नहीं हो सकता। जीवन जीने के लिए है। धर्म की अर्गलाएं उसे रुद्ध नहीं कर सकतीं और न समाज की सर्पीली फुंफकार उसे विमूर्छित कर सकती है। जीवन का मंगल-रथ सुचारु चलता रहे इसके लिए व्यंग्य उस रथ की धूल-कीचड़ को समाप्त करता है, पथ के कांटों को बटोरता है और धुरी की कर्कशता में स्नेह का आलेपन करता है। प्रस्तुत व्यंग्य-संग्रह में व्यंग्य की गिद्ध दृष्टि राम की विपदा पर भी है और रावण की संपदा पर भी। इसमें शुभ और अशुभ दोनों पक्षों पर नजर है।आसपास के जीवन और जगत को निकट से देखने का प्रयास है। समाज की भोग-जिह्वा, बाहुबलियों के नख, राजनेताओं के दंत, पाखंडियों की वाणी और बैठे-ठालों की टांगों को लथेड़ा गया है। इन सबके लौहधर्म में लगी जंग को छीलने का प्रयत्न है।’’
देखा जाए तो व्यंग्यकार ने अपने व्यंग्यों और पाठकों के मानस के बीच सेतु बनाते हुए भूमिका लिखी है। वे व्यंग्य की चाल, चेहरा, चरित्र - सबकुछ बता देना चाहते हैं, ताकि विधा को ले कर कोई, किसी भी प्रकार का संशय न रह जाए। इसके बाद आती है उनके व्यंग्यों की बारी। अपने व्यंग्य ‘‘फ्लैट का सुख’’ में लेखक ने महानगरीय आवासीय व्यवस्था पर कटाक्ष किया है। महानगरों में न तो इतनी जगह होती है और न सभी के पास इतना धन होता है कि वे स्वतंत्र बंगला खरीद सकें। अधिकांश लोगों को बहुमंजिला इमारत के फ्लैट्स में रहना पड़ता है। ज़मीन और आसमान दोनों से दूर, बीच में त्रिशंकु के समान। लेखक ने लिखा है कि -‘‘यहां फ्लैट के ऊपर फ्लैट हैं। पूर्णतः निरुद्ध। आकाश के कौए और गिद्ध कभी बीट नहीं कर सकते। चिड़ियों का शोरगुल कभी कान खराब नहीं कर सकता। यहां न धरती आपकी, न आकाश आपका। न हवा आपकी, न सूरज आपका।’’
इसी तरह वर्तमान स्थिति को व्यक्त करता हुआ लेख है-‘‘ नारी तुम विज्ञापन हो’’। आज विक्रय की वस्तु चाहे जो भी हो, अर्थात चाहे जूता, चप्पल, जांघिया, शेविंगक्रीम, कोल्डड्रिंक या फिर मोटरकार-हर विज्ञापन में एक महिला माॅडल का होना आवश्यक है। बाज़ार के लिए महिला मानो नुमाइश की वस्तु है। इस प्रवृत्ति पर प्रहार करते हुए लेखक ने चुटीले अंदाज़ में लिखा है कि -‘‘‘‘नारी तुम ‘केवल श्रद्धा हो’ कहने वाले कवि को तो तुम जानते ही होगे। यदि नहीं जानते तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। कविता की आश्काई में पड़कर जिसने अपने बाप का नाम और काम डुबा दिया हो ऐसे आदमी को जानकर क्या करियेगा। और उसने ऐसा सपूत भी तो नहीं जन्मा जो अपने बाप का नाम उजागर करता। नेता या अभिनेता कुछ तो बनता दोनों खानदान को तिलक लगा देते हैं। खैर! ये नारी पूजक प्रसाद थे। जैसे पेशेवर प्रेमियों की नजर नारी के दृश्य अंगों पर नहीं अदृश्य अंगों पर होती है वैसे ही प्रसाद जी भी कुछ भीतर-भीतर टटोलते रहे। यह भेद तो तब खुला जब उन्होंने स्त्री शरीर के भीतर श्रद्धारन की स्थापना कर दी। नारी फूल उठी। आखिर इस यशस्विनी को चाहिये ही क्या प्रेम के पुल और प्रशंसा के बांध । उमड़कर शीघ्र बंध जाती है। सो प्रसाद ने उसकी विवशता का फायदा उठाया। उसे मधु का आधार दे दिया। शहद की पुतली बना दिया। फिर क्या था रस-ग्राहकों की भीड़ लग गई। होल-सोल एजेंट प्रसाद के माल की खूब बिक्री हुई तथा फैक्टरी में ग्रंथों का भारी उत्पादन हुआ। कितना फायदेमंद है नारी का विज्ञापन। आखिर कीमत नारी अंग के समानुपाती जो होती है।’’
संग्रह में एक व्यंग्य है-‘‘ अबे! तेंदू के पत्ते’’। इसकी आरंभिक पंक्तियां पढ़ते ही कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘‘कुकरमुत्ता’’ कविता याद आने लगती है। इस व्यंग्य लेख का स्वर निराला की कविता की भांति है। यह अंश देखिए-‘‘रे तेंदू के पत्ते! तू महान है, श्रेष्ठ है, अनुपम है। तू ईश्वर की अद्भुत कृति है। तेरी सुन्दर कनकाम देह को लाखों ओंठ और करोड़ों अंगुलियां छूने दौड़ती हैं। तू उद्योगपतियों और नेताओं द्वारा पूजित है। मजदूर और मालिक सभी तुझे समान आदर देते हैं। तू संसार भर के मादक योजकों में उत्तम, सहजोपलब्ध और आभिजात्य का है। जब तम्बाखू के पत्तों का ताम्रचूर्ण तेरे स्वर्णगात में आलिप्त हो जाता है तब तू कनकछरी सी देह लेकर बीड़ी के नाम से विज्ञापित होता है। बीड़ी बनकर तू जन-जन के अधरों पर नाचता-फुदकता रहता है।’’
एक बहुप्रचलित दोष है ‘श्रीमती’ शब्द मं छोटी ई की मात्रा लगा कर ‘श्रीमति’ लिखना। इस दोष को आड़े हाथों लेते हुए व्यंग्यकार डाॅ राठौर ने ‘‘श्रीमति?’’ व्यंग्य में लिखा है कि ‘‘मैं श्रीमति से परेशान हूं। श्रीमति लिखने वालों से हैरान हूँ। तमाम श्रीमति वालों से पीड़ित हूं। इन श्रीमति धारकों से प्रपीड़ित इसलिए हूं कि मेरे द्वारा धारित श्रीमती से इनकी बिल्कुल रास नहीं पटती। मेरी श्रीमती बड़े शरीर वाली है। उसमें बड़ी ‘ई’ की मात्रा लगती है। जबकि श्रीमति में छोटी ‘इ’ होती है। अर्थात मेरी श्रीमती बड़ी है उन सबकी श्रीमति छोटी है। यह ‘ती’ और ‘ति’ का भेद श्रीमतियां नहीं जानतीं। पर जबसे मेरी श्रीमती को पता चला कि वह भाषाविदों द्वारा प्रमाणित सच्ची इकाई है तबसे उसका अहं बोलने लगा है। श्रीमती को पता है कि वह अमुक श्रीमान की पत्नी है, वह तीसरे आसमान पर है।’’
संग्रह का शीर्षक व्यंग्य ‘‘कुत्ते बन गए श्वान’’ राजनीतिक व्यंग्य की श्रेणी का है। इसमें मनुष्य की प्रकृति, पद और प्रतिष्ठा के त्रिकोणीय संबंध को उजागर किया गया है। लेखक ने लिखा है-‘‘एक पखवाड़े में ही एक बड़ी सभा बुलाई गई। नियत तारीख को दूरदराज के नामी गिरामी कुकर बिरादरी के सदस्य उपस्थित हो गए। सभी अपनी-अपनी विशेष मुद्रा में बैठे। सबसे पहले यह तय किया गया कि श्वान अधिपति के चित्र को मंच पर रखकर माल्यार्पण किया जावे। प्रश्न उठा कि आदि श्वान कौन है? जिसका चित्र आसंदी पर रखा जावे। पुराणों और इतिहास में खोजने की बात आ गई। किसी ने कहा कि महाराज युधिष्ठिर का श्वान प्रथम पूज्य है जिसने मार्गदर्शक बनकर पांडवों को स्वर्ग तक पहुँचा दिया था। अतः युधिष्ठिर का कुत्ता ही हमारा आदि प्रवर्तक होगा। दूसरों ने आपत्ति की कि इसे अपना प्रवर्तक मानने से तो युधिष्ठिर की ही आराधना हो जाएगी श्वान की नहीं। अतः और कोई नाम सुझाया जावे। विवाद में मामला अनसुलझा ही रह गया।’’ 
डाॅ. नाथूराम राठौर के इस संग्रह ‘‘कुत्ते बन गए श्वान’’ के 40 व्यंग्यों को पढ़ने के बाद यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि वे एक समर्थ व्यंग्यकार हैं। उनकी लेखनी में व्यंग्यविधा के अनुरूप पैनापन है। भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है। विषय में सहजता और जागरूकता का आग्रह है। यह व्यंग्य संग्रह हरिशंकर परसाई और डाॅ सुरेश आचार्य की व्यंग्य परंपरा को आगे बढ़ाने में बखूबी सक्षम है।  
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