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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, April 13, 2023

चर्चा प्लस | आवारा पशुओं की समस्या और हम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
आवारा पशुओं की समस्या और हम
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                   
        हम पशुओं का आदर करते हैं। गौ को अपनी माता मानते हैं। हम यह सहन नहीं कर पाते हैं कि गौ माता को कोई ज़रा भी चोट पहुंचाए। हम कुत्तों को सड़क पर आवारा घूमते देखते हैं तो हमें उन पर दया आती है। जब कभी कोई आवारा कुत्ता किसी वाहन से कुचल कर मर जाता है तो हमें उसकी इस बेरहम मौत पर दुख होता है। हमारे भीतर पशुओं के प्रति कोमल भावनाएं हैं लेकिन ये भावनाएं अकसर सोई हुई क्यों रहती हैं? कभी सोचा है? विदेशी सड़कों पर आवारा पशु नहीं घूमते लेकिन हमारे देश की सड़कें हमेशा आवारा  पशुओं  से सुसज्जित रहती हैं। कभी सोचा है कि कहां से आते हैं ये आवारा पशु और क्या है आवारा पशु अधिनियम? मेरे इस लेख के आइने में आप अपने शहर का प्रतिबिम्ब देख सकते हैं।    
मेरा सागर शहर उन अनेक भारतीय शहरों में से एक है जो आवारा पशुओं की समस्याओं से रोज़ ही दो-चार होता रहता है। हां, डेयरी विस्थापन की प्रक्रिया अन्य शहरों की भांति सागर में भी आरम्भ हो चुकी है। यह बात और है कि इस प्रक्रिया को क्रियान्वित होने में दो-तीन दशक तो निकल ही गए हैं। बहरहाल, मसला डेयरी में पाले जाने वाले पशुओं का नहीं है। वे तो डेयरी से भ्रमण के लिए निकाले भी जाते थे तो उनका एक फिक्स टाईम था। मसला तो है उन आवारा गौ वंशियों का और कुत्तों का है जो सड़कों पर जीवनयापन करते रहते हैं। चलिए कुत्तों को मान लिया जाए कि वे पीढ़ियों से हमारे देश में आवारागर्दी करते आ रहे हैं। फिर जब से माननीया मेनका गांधी जी ने यह कानून बनवा दिया कि आवारा कुत्तों को नगरपालिका वाले ज़हर की गोलियां दे कर न मारें, तब से उनकी संख्या में अच्छा-खासा ईज़ाफ़ा हुआ। मैं स्वयं भी पशु हत्या का विरोध करती हूं। किसी भी पशु को ज़हर खिला कर मार देना कोई मानवीय विकल्प नहीं है। इसके लिए इस प्रावधान को बढ़ावा दिया गया कि आवारा कुत्तों का बंध्याकरण किया जाए। लेकिन मसला क्या है कि हमारे देश में अच्छे-अच्छे प्रावधान तो बहुत हैं किन्तु उनके क्रियान्वयन में अनेक झोल रहते हैं। इन झोलों के चलते कुत्ते आज भी बड़ी संख्या में गांवों और शहरों में घूम रहे हैं और सड़कों पर भटकते गौवंशी अपने दुर्भाग्य को जी रहे हैं।

  वेद-पुराण उठा कर देख लें कि हमारे गौवंशी कभी आवारा नहीं रहे। वे या तो पशुपालकों की पशुशाला में होते थे या फिर ऋषि-मुनियों के आश्रमों की पशुशाला में। गौवंशियों में विशेष रूप से गौदान पुण्य का कार्य माना जाता था। ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि गोहत्या महापाप है औ यह मनुष्य के वध के समान है -
आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु (ऋग्वेद 7/56/17)

‘‘स्कंद पुराण’’ के अनुसार ‘गौ सर्वदेवमयी और वेद सर्वगौमय हैं।’’ वहीं ‘‘श्रीमद् भगवद्गीता’’ में भगवान कृष्ण ने स्वयं को कामधेनु कहा है- ‘धेनुनामस्मि कामधेनु’ अर्थात मैं गायों में कामधेनु हूं। वेदों में यह भी माना गया कि -‘‘गावो विश्वस्य मातरः।’’ अर्थात् गाय विश्व की माता है।
 
ऋग्वेद 6/48/13 के अनुसार गौ प्रत्यक्ष में तो केवल दूध देती है, परन्तु परोक्ष में विश्व को जैविक कृषि के द्वारा भोजन भी देती है। ऋग्वेद 1/29 का पहला मंत्र कहता है कि अल्पज्ञ यानी बुद्धिहीन और साधनविहीन व्यक्ति भी गौवंश का पालन करने से हजारों प्रकार के वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, कर्मठ बनते हैं और फिर वे यशस्वी और ऐश्वर्यशाली बनते हैं। इसीलिए हमने गौवंश को सदा सम्मान दिया। आज भी अनेक लोग ऐसे दिख जाएंगे जो गौमाता के सामने पड़ने अथवा उनके पास से गुज़रते समय उनका स्पर्श अपने माथे से लगा कर उन्हें सम्मान देते हैं। लेकिन कभी सोचा है कि वह भावना कहां गई जिसमें गौमाता को पशुशाला में रख कर सम्मान सहित पालने का चलन था। आज अनेक ऐसी गायें सड़कों पर दिख जाती हैं जो अब दूध देना बंद कर चुकी हैं यानी पशुपालक के लिए अनुपयोगी हो गई हैं। अनेक ऐसे बैल दिख जाते हैं जो किसी भी उपयोग के न होने के कारण सड़कों पर मरने-खपने के लिए छोड़ दिए जाते हैं। वे दूसरों को चोट पहुंचाते हैं और खुद भी चोट खाते हैं। उनकी इस दशा के लिए हम स्वार्थी मनुष्य जिम्मेदार हैं यानी जो हमारे काम के नहीं हैं, हमें उनकी परवाह नहीं है।

कई आवारा गाएं हमारे घर के दरवाज़े तक आ पहुंचती हैं। हम पुण्य कमाने की भावना से उन्हें दो रोटी या बचा हुआ भोजन दे देते हैं। क्या उनका इतना बड़ा शरीर उस दो रोटी या बचे हुए भोजन पर टिका रह सकता है? हमने अपनी गौ माता को भिखारिन बना दिया है। दो रोटी की भीख के लिए वे हमारे दरवाज़े पर आ खड़ी होती हैं। बात कहने, सुनने या लिखने में कटु है लेकिन सच यही है। गौवंशियों के सड़कों पर बैठे रहने या आपस में लड़ने से आए दिन सड़क दुर्घटनाएं होती रहती हैं। हम उस समय गौवंशियों को कोसते हैं जबकि उनको कोसना भूल जाते हैं जो इस तरह गौवंशियों केे सड़कों पर होने के लिए जिम्मेदार हैं।

अभी कुछ दिन पहले की घटना है। चैत्र नवरात्रि के समापन के ठीक दूसरे दिन मुझे नर्मदातट पर बने तीर्थस्थान बरमान जाने का अवसर मिला। बरमान तक आने-जाने में नेशनल हाईवे 44 से हमने यात्रा की। अलग-अलग दो स्थानों दो गायों के मृत शरीर देखने पड़े जो किसी वाहन से टकरा कर मरी थीं। स्पष्ट है कि कोई भी वाहन चालक गौवंशियों को कुचल कर मारना नहीं चाहेगा लेकिन यदि अचानक सड़क पर वे आ जाएं और हाईवे पर तेज चलते वाहन के चालक चाहकर भी उन्हें बचा नहीं सकते हैं। मुझे वे दोनों दृश्य देख कर दुख हुआ। पता नहीं कौन थे उनके असली मालिक जिन्होंने सड़क पर भटकने के लिए उन गायों को छोड़ दिया था।
 
मेरे शहर के मकरोनिया उपनगर में अर्द्धसाप्ताहिक सब्जी हाट भरता है। अर्द्धसाप्ताहिक यानी सप्ताह में दो दिन- बुधवार और रविवार को। ग़ज़ब का दृश्य होता है वहां का। खरीददारों की भारी भीड़ के बीच बड़े-बड़े सींगों वाले गाय-बैल सब्जियों पर झपट्टा मारते रहते हैं। सब्जीवाले उन्हें डंडे मार कर भगाते हैं तब वे गौवंशी खरीदारों से टकरा जाते हैं। गौवंशियों के पेट की भूख उन्हें ढीठ बनने को विवश कर देती है। वे मार खाते हैं और झपट्टा मारते रहते हैं। भूख और मार का यह डरावना खेल चलता रहता है। चलिए सब्जीबाजार छोड़ कर यदि मुख्य मार्गों पर चलें तो वहां भी बीच सड़क पर गौवंशी बैठे मिल जाएंगे। जिन्हें लोग मज़ाक में ‘‘आरटीओ’’, ‘‘डिवाईडर’’ और न जाने क्या-क्या कहते हैं। लेकिन गौवंशी कोई मज़ाक नहीं बल्कि जीवित प्राणी हैं। हम उनकी जिन्दगी के साथ बेहिचक खिलवाड़ कर रहे हैं।

मुझे याद आता है कि बचपन में मैंने अपनी मां से कांजीहाउस के बारे में सुना था। वे बताती थीं कि कांजीहाउस वह जगह है जहां आवारा घूमते पशुओं को पकड़ कर बंद कर दिया जाता है। वहां उन्हें खाना-पीना दिया जाता था और उनका पूरा ध्यान रखा जाता था। शाम के बाद पालतू पशुओं के मालिक अपने पशुओं को ढूंढते हुए कांजीहाउस पहुंचते थे। इससे उनके असली मालिक का पता चल जाता था और उन मालिकों को फटकार लगाने के साथ, उनसे जुर्माना भी वसूला जाता था। अब मुझे ‘‘कांजीहाउस’’ शब्द ही सुनने को नहीं मिलता है।
 
बात करें यदि आवारा कुत्तों की तो इसके लिए बाकायदा अधिनियम है। भारतीय दंड संहिता की धारा 428 और 429 और 1960 के पशु क्रूरता अधिनियम में किसी भी जानवर को अपंग बनाना या चोट पहुंचाना अवैध है। सड़कों पर कुत्तों, बिल्लियों और गायों को जानबूझकर घायल करना वाहनों के लिए भी अवैध है। यदि कोई व्यक्ति जो इन कानूनों का उल्लंघन करते हुए पकड़ा जाता है, उसकी सूचना स्थानीय पशु संरक्षण समूह और पुलिस को दी जा सकती है। उपरोक्त धाराओं के तहत भी मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। इसके तहत आवारा पशुओं को रखने वाले लोगों को राज्य सरकार प्रतिदिन 30 रुपये (महीने में 900 रुपये) देती है। पीसीए अधिनियम, 1960 की धारा 11(1) (प) और धारा 11(1) (जे) के तहत आवारा पशुओं को स्थानांतरित करना अवैध है। बोरियों में भरकर अपने क्षेत्र से दूर फेंकना भी अपराध है। पीसीए अधिनियम, 1960 की धारा 11 (1) (एच) के तहत, जानबूझकर आवारा कुत्तों को भूखा मारना और उनका आश्रय छीन लेना अवैध है। लेकिन दूसरी ओर यही आवारा कुत्ते मनुष्यों को काट लेते हैं। कमजोर पशु, छोटे बच्चों को इनसे विशेष खतरा रहता है। इसलिए बेहतर है कि पशुओं को आवारा स्थिति में न रहने दिया जाए। उन्हें आवास प्रदान किया जाए जैसा कि योरोप और अमेरिकी देशों में होता है।
पशुओं के साथ नैतिक व्यवहार के पक्षधर लोगों का संगठन है प्यूपिल फाॅर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स यानी पेटा। यह संगठन आवारा पशुओं के हित में काम करता है। इसका मुख्यालय यूएसए के वर्जिनिया के नॉर्फोल्क में स्थित है। विश्व भर में इसके लगभग 20 लाख से अधिक सदस्य हैं। भारत में भी पेटा के सदस्य बड़े शहरों में कार्यरत हैं। उनका कार्य स्वयंसेवी होता है।

हमारे तमाम नियमों, कानूनों एवं संवेदनाओं के बावजूद सड़कों पर आवारा पशु भटक रहे हैं। क्या हमें यह नहीं सीखना चाहिए कि जिन विदेश की सड़कों से हम अपने देश की सड़कों की तुलना करते हैं वहां आवारा पशुओं की समस्या से कैसे निपटा जाता है? अमेरिका की सड़कों पर आवारापशु दिखाई नहीं देते हैं क्योंकि वहां पशुओं को आवारा छोड़ना अपराध है और इसके लिए कड़ा दंड दिया जाता है। वहां तो पालतू पशुओं यानी पालतू कुत्तों को बाहर घूमाते समय गंदगी फैलाना भी अपराध है। ऐसा करने वाले को जुर्माना भरना पड़ता है, वरना जेल की सज़ा काटनी पड़ती है। हमने इस बात में उनके जैसे बनने में रुचि नहीं दिखाई है। सुबह-सवेरे अच्छे-भले सभ्रंात, सुशिक्षित लोग अपने अच्छी नस्ल के कीमती कुत्तों को यहां-वहां पौटी कराते दिखाई दे जाते हैं। क्या यह सम्य नागरिकता की निशानी है? या फिर अपने उन पालतू कुत्तों के जीवन से खिलवाड़ नहीं है जिनके लिए एक ओर सब कुछ हाईजेनिक रखते हैं लेकिन पौटी कराने के लिए गंदी जगहों में ले जाते हैं। वहीं इंसानों की सेहत के लिए भी खतरा बढ़ाते हैं। ऐसे लोग आवारा पशुओं की भला क्या चिंता करेंगे?
 
हम में से अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें आवारापशु अधिनियम की कोई जानकारी नहीं है। इस बारे में सरकार की ओर से भी न तो कोई गंभीरता से जानकारी दी जाती है और न कोई कड़ाई बरती जाती है। आवारा पशुओं के लिए सुरक्षित शेल्टर्स की भी बहुत कमी है। कांजीहाउस तो समाप्तप्राय हैं। नगरनिगम या नगरपालिका के कर्मचारियों को आवारा पशु पकड़ने का कोई विधिवत प्रशिक्षण भी नहीं दिया जाता है अतः ड्यूटी लगने पर वे अपनी जान जोखिम में डालते हुए जैसे तैसे कार्य करते हैं। हम स्मार्टसिटी या शहरों के सौंदर्यीकरण का चाहे जितना राग अलाप लें किन्तु जब तक आवारापशुओं की समस्या को हल नहीं कर लेते तब तक सारी प्रगति अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाने जैसी ही होगी।     
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