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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, May 17, 2023

चर्चा प्लस | जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  

         दोनों ओर की सेनाएं धीरे-धीरे कमर कस रही हैं। इन दोनों सेनाओं के आकार-प्रकार में बेशक़ बहुत अंतर है लेकिन सेना तो आखिर सेना होती है। यह यौद्धिक सेना नहीं है लेकिन उस युद्ध के लिए तैयार हो रही है जिससे लोकतंत्र का निर्णय हुआ करता है। सुनने पढ़ने में विचित्र लग रहा है न? कि लोकतंत्र का चुनाव और सेनाओं का युद्ध के लिए तैयारी करना! पर सच तो यही है। अब आमचुनाव राजनीतिक विचारों के द्वंद्व से कहीं आगे निकल चुके हैं। अब ‘करो या मरो’ वाली स्टाईल में चुनाव लड़े जाते हैं। जो सेना यह जज़्बा नहीं रख पाती है वह हारती है और लोकतंत्र के मंदिर में एक अपमानित की तरह जगह पाती है। लोकतंत्र का वास्तविक ढांचा बहुत पीछे छूट चुका है। पर आज का लोकतंत्र ही ‘‘हमारा लोकतंत्र’’ है। यही सच है, चाहे कटु मानें या मीठा। फिर भी विचार उठता है मन में कि यदि रामधारी सिंह दिनकर आज होते तो वे ‘‘समर शेष है’’ का कौन-सा अध्याय लिखते?         
 
पिछले दिनों जब मौसम बार-बार करवट ले रहा था और बादल घिरने लगते थे, बारिश होने लगती थी, ऐसे सुहाने मौसम में मैंने कुछ निकटवर्ती ग्रामीण अंचलों का भ्रमण किया। बस यूं ही! मामला सिर्फ़ प्रकृति प्रेम का था लेकिन वह कहावत है न कि जहां प्रेम हो वहां प्रेम में खलल डालने वाले भी होते हैं। ये खलल डालने वाले और कोई नहीं बल्कि वे परिस्थितियां थीं, जो मौसम के कारण ही उत्पन्न हुई थीं। खेतों में फसलें कट चुकी थीं। उन्हें गट्ठों के रूप में बांधा जा चुका था। मगर उन्हें खलिहान तक पहुंचाने के पहले ही बारिश और ओला किसानों की मेहनत पर वज्राघात करने लगा। सभी मौसम को दोष दे रहे थे। स्वाभाविक है कि जिसकी हाथ में बंदूक थमा कर चलवा दी जाए वही दोषी ठहरता है, पर्दे के पीछे मौजूद लोग नहीं। मौसम अपनी इच्छा से करवट नहीं ले रहा है, उसे इस अवस्था तक पहुंचाया गया है हमारी अव्यवस्थाओं एवं स्वार्थों ने। खैर, मैं अभी जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण परिवर्तन के कारणों पर चर्चा करने का इरादा नहीं रखती हूं, फिलहाल, मैं चर्चा करना चाहती हूं रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता ‘‘समर शेष है’’ की। इसीलिए मुझे अपने भ्रमण का प्रसंग भी याद आया।
भ्रमण के दौरान मैं एक गांव में के निकट सुस्ताने को रुकी। वहां के एक-दो स्थानीय स्त्री-पुरुष मेरे पास आ खड़े हुए। पहले वे झिझके। मगर जल्दी ही हमारी बुंदेली बतकाव शुरू हो गई और उन्होंने अपनी समस्याएं गिनानी शुरू कर दीं। मैंने उनसे कहा कि आप अपने सरपंच से ये सब ठीक करने को क्यों नहीं कहते? तो उनका कहना था कि ‘‘पैलऊं बे मिलें तो!’’ ‘‘उनके इते पौंचों सो पैलऊं सो बे मिलत नईयां, जो मिल गए सो सुनत नईयां, औ जो कऊं सुन लओ, सो करत नईयां’’। अर्थात् अव्वल तो वे मिलते नहीं हैं, मिल जाएं तो सुनते नहीं हैं, और अगर जो मिल कर सुन भी लिया तो कुछ करते नहीं हैं। इस पर मैंने उनसे कहा कि ‘‘आखिर सरपंच है तो तुम्हारे ही गांव का, तुम्हारे बीच का आदमी। कहीं बाहर से तो आया नहीं है। वह अगर तुम्हारी नहीं सुनता तो बंद कर दो उसका हुक्का-पानी।’’
‘‘हऔ, बो हम ओरन को हुक्का-पानी पैलऊं बंद करा देहै।’’ (वे हम लोगों का हुक्का-पानी पहले ही बंद करा देंगे) वे लोग घबरा कर बोले।
क्या यही वह लोकतंत्र है जिसका हमारे पूर्वजों ने आह्वान किया कि जिसमें दुखी-पीड़ित आमजन अपने ही विजयी प्रतिनिधि से निराश रहे, घबराया हुआ, डरा हुआ रहे? सच तो यह है कि लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप में कीलें ठुंकने का काम कई दशक पहले शुरू हो गया था। आखिर रामधारी सिंह दिनकर ने यूं ही नहीं लिखा कि -
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो,
किसने कहा, युद्ध की बेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊं किसको कोमल गान?
तड़प रहा आंखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

हिन्दुस्तान आज बाज़ार के हवाले है। मानवता कहीं बची है तो उन लोगों में जो कुछ भी कर सकने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। इस तारतम्य में मैं एक घटना का उल्लेख करूंगी। यह घटना मेरे घर कुकिंग गैस का सिलेंडर आने की। कई माह बाद मुझे नया सिलेंडर मंगवाने की ज़रूरत पड़ी। सिलेंडरवाला हाॅकर आया तो वह देखते ही बोला,‘‘अब आपके यहां खाना-वाना नहीं बनता क्या? पहले तो दो-ढाई महीने में सिलेंडर खाली हो जाता था मगर अब तो...।’’
‘‘कोरोना काल में घर के दो सदस्य शांत हो गए।’’ मैंने उसकी बात पूरी होने से पहले ही उसे बता दिया। यह सुन कर वह थोड़ा सकते में आया फिर अपने परिवार की घटना बताने लगा,‘‘अट्ठाईस साल का लड़का था। उसके दो छोटे बच्चे और बीवी बची है। पिछले दो साल से वे लोग जूझ रहे हैं। कोरोना से मरने का जो पैसा मिला था वो उसके ससुराल वालों ने छुड़ा लिए...।’’ वह हाॅकर खाली सिलेंडर पर बैठ कर पसीना पोंछता हुआ मुझे उस पीड़ित महिला का दुख बताता रहा। फिर जब मैंने उसे परंपरागत रूप से कुछ रूपए उसके सेवाकार्य के लिए दिए जो कि ‘ऐच्छिक’ ही रहते हैं, तो वह हिचकते हुए लेने से मना करने लगा। मैंने उससे कहा, ‘‘रख लो! अब तो साल में दो-तीन बार ही मिलेंगे।’’ तो वह उदास भी हुआ और हंस दिया। मेरी पीड़ा वह गरीब हाॅकर समझ रहा था और इसीलिए उसे मुझसे ‘टिप’ लेने में हिचक हो रही थी लेकिन सरकार संवेदनाएं ताक में रख कर चलती है। हां, संवेदना के नाम पर कुछेक योजनाएं जरूर उस चके की भांति राजनीतिक पथ पर दौड़ा दी जाती हैं जैसे गांवों में छोटे बच्चे एक डंडी के सहारे चका दौड़ाते हैं और उसके साथ भी तक तक दोड़ते चले जाते हैं जब तक या तो वह चका न गिर जाए या फिर वे थक न जाएं। हर समय एक न एक चका राजनीति की सुचिक्कन सड़क पर दौड़ता ही रहता है।
यह वही सड़क है जिसकी चर्चा कवि दिनकर ने अपनी कविता में की है। बस, अंतर मात्र इतना ही ही है कि उन्होंने दिल्ली की सड़क को लक्षित किया जबकि आज हर शहर, गांव, कस्बे में वह सड़क दिखाई देती है-
अटका कहां स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा।

उस समय दिल्ली को कोसना आसान था। पर आज हालात दूसरे हैं। आज दिल्ली में ही दो रसोई और दो चूल्हे हैं। वैसे उस हाॅकर को मेरे द्वारा दी जाने वाली राशि सिलेंडर की कीमत के सामने कुछ नहीं थी। सिलेंडर के दाम चुकाए थे पूरे ग्यारह सौ पच्चीस रुपए। भोजन पकाने के सबसे प्रमुख साधन की इतनी अधिक कीमत। इस हाल में तंत्र खुश हो सकता है, प्रजा नहीं। मुझे भी यह कीमत चुकाते हुए गुस्सा आ रहा था। केवल बातों से पेट नहीं भरता है। मंहगी गैस, मंहगा अनाज, मंहगा भोजन। गुस्सा क्यों नहीं आएगा?  
हर तरफ बढ़े हुए टैक्स। दो रूपए के सामान पर चार रूपए जीएसटी। ऑनलाईन शाॅपिंग वाले तो सभी टैक्स का पूरा ब्योरा रसीद में दर्ज़ कर के भेजते हैं ताकि अब समझ जाएं कि मूल हकदार के पास कितना पैसा पहुंच रहा है, कितना सरकारी खजाने में और आप कितने आर्थिक विपदा के शिकार हैं। अब तो ऑफ लाईन वाले भी कीमत का ब्यौरा देने लगे हैं। अब अगर आमजन उसे पढ़ कर भी ख़ामोश रहें और किसी फिल्म पर जुगाली करते रहें तो इसमें किसका दोष है? न टैक्स वसूलने वालों का और फिल्म बनाने वालों का। फिल्मी दुनिया तो हमेशा से व्यवसाय जगत का अभिन्न हिस्सा रही है। अगर किसी की पीड़ा को परोस कर भी उसे रिकार्डतोड़ पैसे मिलते हैं तो उसे इससे परहेज नहीं रहेगा। क्योंकि उसका काम फालोअप लेना नहीं है। उसने तो एक फिल्म बनाई, पैसे कमाए और फिर दूसरी फिल्म की ओर बढ़ ली। हम उनके साथ क्षणिक उत्तेजना में उत्तेजित होते हैं, स्वयं को बौद्धिक मानते हुए खुश होते हैं और इसी में खुद की सच्चाई को भूले रहते हैं। एक दिलचस्प फार्मूला! इसके लिए भी न तो सरकार दोषी है और न फिल्म वाले। आपने अपनी जेबें ढीली कर के टिकट खरीदा है, सिनेमाघर में बैठे हैं, अब आप फिल्म देखें, उस पर विचार करें या पूरे ढाई-तीन घंटे सोते रहें, इससे किसी का कोई लेना-देना नहीं है।
आज एक पल ठहर कर सोचने की जरूरत है कि हम वैमनस्यता की किस दिशा की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं? कट्टरता किसी के भी स्वास्थ्य के लिए उत्तम नहीं होती है। तलवारें चलती हैं तो दोनों पक्ष लहूलुहान होते हैं। फिर हम तो वे लोग हैं जो खून के दरिया से नहा कर आए हैं। हमें मात्र भौगोलिक रूप से नहीं बांटा गया बल्कि हमारा रक्तस्नान कराया गया। ताकि हम उस रक्त की गंध से सदियों तक भ्रमित होते रहें और परस्पर एक-दूसरे पर भरोसा न कर सकें। घायल दोनों हुए लेकिन राजनीति हमेशा इस बात के लिए उकसाया कि ‘‘मेरा घाव तेरे घाव से ज़्यादा गहरा’’। जबकि घाव दोनों के गहरे थे। जरूरत थी कि दोनों सच्चाई को समझ कर एक-दूसरे के घाव पर पश्चाताप के फाहे रखते। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। और हम हैं कि नए घाव गढ़ने में कोताही नहीं बरतते हैं। हम चुनाव को लोकतंत्र के आवश्यक यंत्र की भांति संचालित होते देखने के बजाए, ‘‘20-20’’ के मैच की भांति देखना चाहते हैं। (जिस पर कभी-कभी फिक्सिंग के आरोप भी लगते रहते हैं।) जबकि चुनाव लोकतंत्र की रीढ़ है। पर हम आवश्यकता पढ़ने पर तटस्थता के अपने खोल में जा छुपते हैं। तत्कालीन स्थितियों को देखते हुए कवि ‘दिनकर’ ने लिखा था -      
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान! हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर और मस्जिद दोनों पर एक तार बांधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।

मैं सोचती हूं कि यदि आज राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर होते तो ‘‘समर शेष है’’ का कौन सा अध्याय लिखते? क्या आप सोच कर बता सकते हैं?
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