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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, May 9, 2023

पुस्तक समीक्षा | विचारों का मौलिक ध्रुव रचती काव्य रचनाएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 09.05.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई   कवि अंबिका यादव के काव्य संग्रह "आसमानों से आगे" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
विचारों का मौलिक ध्रुव रचती काव्य रचनाएं
   - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - आसमानों से आगे
कवि        - अम्बिका यादव
प्रकाशक    - काव्या पब्लिकेशन, अभिनव आर.एच-4, अवधपुरी, भोपाल-462002 
मूल्य       - 160/-
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काव्य भावनाओं का विषय है विचारों का नहीं, परंपरागत रूप से यही माना जाता रहा है किन्तु पिछले कुछ दशक से इस परिवाटी में बदलाव आया है और काव्य में भी विचारों का स्थान बढ़ गया है। भानवाओं के साथ विचारों का सही संतुलन ही वर्तमान काव्य की प्रमुख विशेषता है। ‘‘आसमानों से आगे’’ कवि अंबिका यादव का प्रथम काव्य संग्रह है। इससे पूर्व उनके अनुभव एवं अभिव्यक्ति का दायरा विविधता भरा रहा है। वे पहले बैंक अधिकारी रहे फिर कार्टूनिस्ट, और साथ ही इंक मीडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन एण्ड आई.टी. सागर, म.प्र में अध्यापन कार्य से जुड़ गए। मास कम्युनिकेशन और कार्टून दोनों ही ऐसे क्षेत्र हैं जो विचारों को धारदार बनाने का काम करते हैं। व्यक्ति जो देखता है, अनुभव करता है उसे आकलन, एवं मीमांसा के साथ आमजन के सामने प्रस्तुत कर देता है। समय की नब्ज़ पर उंगली रख कर चलने वाले ऐसे कवि अंबिका यादव ने जब काव्य के क्षेत्र में अपना कलम चलाई तो उसमें भी तीक्ष्णता के दर्शन होने स्वाभाविक थे। जो गलत का विरोध करना जानता है वह किसी भी विधा के क्षेत्र में प्रवेश करे, गलत का विरोध ही करेगा। अंबिका यादव भी अपनी कविताओं के माध्यम से समाज, राजनीति, आर्थिक जगत, वैचारिक जगत आदि जहां भी गलत होता देखते हैं, अपने विरोध का स्वर बुलन्द करते हैं।

कुल 99 काव्य रचनाओं के इस संग्रह में प्रकाशक अजय अग्रवाल सहित डाॅ. आशीष द्विवेदी, डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय, डाॅ. सरोज गुप्ता तथा श्रीटीकाराम त्रिपाठी ने भूमिकाएं लिखी हैं।  अंबिका यादव ने ‘‘ताओ’’ के उपनाम से रचनाएं लिखी हैं। इस संबंध में उन्होंने अपनी भूमिका में बताया है कि -‘‘लाउत्से चीन के मशहूर दार्शनिक थे (2000 ई०पू०) उनका ग्रंथ ताओ के सूत्र के नाम से चीन में मशहूर हैं। लाउत्से का (निक नेम) उपनाम ताओ था। ताओ का यह ग्रंथ दुनिया भर में पढ़ा जाता है एवं इसका अनुवाद चीनी भाषा से विश्व की लगभग सभी भाषाओं में एवं हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध हैं। चीन में लाउत्से, ताओ के सूत्रों की मान्यता हमारे तुलसी, कबीर और गीता की तरह है। मेरा उपनाम ‘ताओ’ लाउत्से से प्रेरित हैं।’’
लाउत्से ने व्यावहारिक जीवन दर्शन दिया। लाओत्से उपाय बताते हुए कहते हैं कि- ‘‘पालथी मार कर बैठ जाएं और भीतर ऐसा अनुभव करें कि एक तराजू है। उसके दोनों पलड़े आपकी दोनों छातियों के पास लटके हुए हैं और उसका कांटा ठीक आपकी दोनों आंखों के बीच, तीसरी आंख जहां समझी जाती है, वहां उसका कांटा है। तराजू की डंडी आपके मस्तिष्क में है। दोनों उसके पलड़े आपकी दोनों छातियों के पास लटके हुए हैं। चैबीस घंटे ध्यान रखें कि वे दोनों पलड़े बराबर रहें और कांटा सीधा रहे। अगर भीतर उस तराजू को साध लिया, तो सब सध जाएगा।’’ लाउत्से ने इसे भीतर की चेतना का संतुलन कहा है। वस्तुतः भीतर की चेतना का संतुलन ही बाहर के असंतुलन को समझने और परखने की क्षमता विकसित करता है। कवि अंबिका यादव ने स्वयं की ग्रहण चेतना में संतुलन स्थापित करने का प्रयास करते हुए बाह्य गड़बड़ियों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है। 

अंबिका यादव की कविताओं का विचार पक्ष सशक्त है किन्तु पता नहीं क्यों उन्होंने शिल्प पक्ष की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया है। इस संबंध में वे अपनी भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘यह पुस्तक जिसे आप ग़ज़ल, गीत, कविता की तरह स्वीकार कर सकते है।’’ उनकी यह ‘‘उदारता’’ पाठकों को उलझन में डाल सकती है। वस्तुतः चाहे छंदमुक्त रचना लिखी जाए अथवा छंदबद्ध, उसका शिल्प रचनाकार स्वयं तय करता है और उसी के अनुरुप शब्द विन्यास को संजोता है। अतः इस संग्रह में रचनाओं के विचारों तक पहुचने में शिल्प की बाधा का आकलन स्वयं कवि को भी करना चाहिए था। सो, मैं इस संग्रह की काव्य रचनाओं के शिल्प की चर्चा को यही स्थगित करती हुई विचार की चर्चा करूंगी क्योंकि इसमें कोई संदेह नहीं कि इन काव्य रचनाओं का विचार पक्ष सुदृढ़ है।

अंबिका यादव अपनी कविताओं के माध्यम से जीवन के शाश्वत सत्य को कुछ इस तरह प्रस्तुत करते हैं-
अगर तुझे अपने आप पे भरोसा है,
होने दे जो भी होता हैं।
इन अंधेरों से घबराना कैसा,
रात के बाद भी तो सबेरा होता है।
परवाह न कर जो कुछ छूट गया,
पुराना जायेगा, तभी तो नया होता है।
अपने पे भरोसा बनाये रखना,
आखिर अपना ही तो पराया होता है।
जिन्दगी यूं ही चलती है यारों,
पहुंचा है जो शमशान, वो भी अपना होता है।
उम्मीदों के चिराग जलाए रहना ही बेहतर है,
रात जलाये जो चिराग, सुबह बुझाना होता है।
इस कदर दिल की न उलझाओं बातों में,
‘ताओ’ दिल में भी झांको, जहां खुदा रहता है।

कवि चाटुकारिता द्वारा अपना कार्यसिद्ध करने वालों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि इनदिनों कुछ भी हासिल करने के हंा में हां मिलाना ही सबसे अच्छा तरीका है। वे लिखते हैं-
यह भी एक रास्ता है, मंजिलें पाने का,
सीख लो हुनर, हां में हां मिलाने का।
जिन्दगी की नाव करो, हवाओं के हवाले,
तरीका बुरा नहीं हैं, किनारे जाने का।
मैखाना कभी बुलाने नहीं आया तुम्हें,
बहाना बेवफाई, बुरा नहीं वहां जाने का ।
तिनके की तरह बहते गए, मंजिल की तरफ,
शुक्र है खुदा का किनारे पहुंचाने का।
दिल में जो है, ढूढ़ते हो इबादतगाहों में ‘ताओ’
अजब तमाशा है, बच्चों के दिल बहलाने सा ।
    
    घटती इुई संवेदना और बढ़ते हुए दिखावे के चलन को देख कर कवि का दुखी होना स्वाभाविक है। कवि अंबिका यादव ने उन लोगों पर भी तीखा प्रहार किया है जो हादसों के बाद मुआवजा बांटने के कार्य को भी संवेदना को ताक में रख कर अपने लाभ का जरिया बनाने से नहीं हिचकते हैं। पंक्तियां देखिए-
मरे हुओं का मावजा बट रहा जलसों में,
बहुत भीड़ है, कोई मंत्री आ रहा जलसों में ।
कंबल बट रहे, कोई साड़ियां बांट रहा,
पांच बरस बीत गए, कोई नेता आया है कस्बों में ।
मुफ्त में चल रही है बसें, कर लो सफर,
चुनाव फिर आयेंगे पांच बरसों में ।
वादे बंट रहे, ख्बाव बट रहे, ले लो
आदत नहीं है देने की, उन्हें सपनों में।
जम्हूरियत भी अजब तमाशा है, ‘ताओ’
वे कभी महलों में, कभी जेलों में, कभी सड़को पे।

इसी स्वर की एक और रचना इस संग्रह में है जो चेतना को झकझोरने का माद्दा रखती है-
इतने गुम्बद खंडहर हुए इस शहर में,
एक मकां का गिरना कैसे रहेगा खबर में ।
इश्क जब हुआ, बदनाम हुआ हैं,
कोई नई बात नहीं है, इस शहर में।
चोर उठाईगीरों, डाकुओं का जिक्र नहीं,
नेता जी आये हैं, खास है आज खबर में ।
सरकारी खैरात बट रही कुछ इस तरह
नाकारा हो रहे गांव शहर डगर डगर में
तहजीब को रख दिया किताबों में ‘ताओ’
माल, पब, बार सब कुछ है अब शहर में।

    ‘‘आसमानों से आगे’’ संग्रह में जनवादी स्वर की रचनाएं भी देखी जा सकती है जिनमें कवि ने इंसानों द्वारा इंसानों से किए जाने भेद-भाव के लिए ईश्वरीय शक्ति को भी दोषी माना है-
जिन्दगी का हर हरफ पसीने से लिखा है,
नर्क क्या जिन्दगी ने देख रखा है।
लोग खुशनसीब हैं, मुहं में चम्मच चांदी वाले,
वास्ता खुदा से उसने, हमसे पहले बना रखा है।
ये दुनिया, वो दुनिया उसी की तो है,
जिसने राजा रंक, सभी को संभाल रखा है।

कवि अंबिका यादव एक सजग कवि हैं और वे बिगड़ती हुई व्यवस्थाओं के प्रति अपने विरोध का स्वर मुखर करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं। उन्हें शब्दों की पकड़ है, विचारों की समझ है, बस कमी है तो व्यवस्थित शिल्प की। यदि कवि ने शिल्प को भी साध लिया होता तो उनका यह संग्रह और अधिक प्रभावी होता। बहरहाल, वैचारिक तत्वों को ग्रहण करने वाले पाठकों के लिए इस संग्रह में ऐसा बहुत कुछ है जो उनकी चेतना को गहरे तक आंदोलित करेगा क्योंकि ये काव्य रचनाएं विचारों का एक मौलिक ध्रुव रचती हैं।                     
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