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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, June 14, 2023

चर्चा प्लस | जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय...
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह  
         इस समय सबसे बड़ा ज्वलंत प्रश्न है कि क्या उसे प्रेम कह सकते हैं जिसमें कोई कथित प्रेमी अपनी प्रेमिका के टुकड़े कर के उसे कुकर में उबाल दे या कुत्तों को खिला दे या मिक्सी में पीस का नाली में बहा दे? इस वीभत्सता में प्रेम दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता है। चिंता की बात यह है कि ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। पहले यदाकदा ही ऐसी घटना घटित होती थी लेकिन अब दस-पंद्रह दिन या महीने भर में ऐसी कोई न कोई घटना समाचारों की सुर्खियों पर लाल संकेत की भांति चमकने लगती है। यह जानना भी तो कठिन है कि किसके मन में क्या है? तो क्या प्रेम करने से डरने का समय आ गया है?
‘प्रेम’ एक जादुई शब्द है। कोई कहता है कि प्रेम एक अनभूति है तो कोई इसे भावनाओं का पाखण्ड मानता है। जितने मन, उतनी धारणाएं। मन में प्रेम का संचार होते ही एक ऐसा केन्द्र बिन्दु मिल जाता है जिस पर सारा ध्यान केन्द्रित हो कर रह जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने प्रेम की उपस्थिति से बड़ी कोई उपस्थिति नहीं होती, अपने प्रेम से बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती और अपने प्रेम से बढ़ कर कोई मूल्यवान वस्तु नहीं होती।

कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।
दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।।
- यह दोहा है हज़रत ख़्वाजा फ़रीद्दुद्दीन गंजशकर उर्फ़ बाबा फ़रीद का। बाबा फ़रीद की वाणी पवित्र श्री गुरुग्रंथ साहिब में ‘‘सलोक फ़रीद जी’’ के रूप में विद्यमान है। बाबा फ़रीद ने अपने इस दोहे में प्रेम में समर्पण की पराकाष्ठा का वर्णन किया है। एक प्रेमी या प्रेयसी अपनी मृत्यु के निकट है। कागा यानी कौवा उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है ताकि वह उसकी देह को खा कर अपना पेट भर सके। तब वह प्रेमी या प्रेयसी के मुख से यह निवेदन निकलता है कि हे कागा! तुम मेरा पूरा शरीर खा लेना लेकिन मेरे दो नेत्रों को छोड़ देना क्योंकि मुझे अभी भी अपने प्रिय को देखने की आशा है। प्रेम की यह पराकाष्ठा, यह समर्पण अब क्या सिर्फ़ किताबों में सिमटता जा रहा है? कहां है ऐसी लगन? कहां है ऐसी चाह? अब तो प्रेम और प्रेम के विश्वास के नाम पर नृशंस धोखा ही देखने-सुनने में आने लगा है। ये घटनाएं अब मन में तिमिलाहट और बेचैनी पैदा करने लगी हैं। प्रेम के नाम पर ये कैसा आपराधिक दौर आ गया है जब एक कथित प्रेमी अपनी सच्ची प्रेमिका को अपने दोस्तों के आगे परोस देता है। फिर डरता है कि कहीं वह सबको बता न दे तो उसे इस दुनिया से ही रुख़सत कर देता है। एकदम ‘‘यूज़ एण्ड थ्रो’’। क्या ऐसे चलते रहने में लड़कियों का भरोसा टूटने नहीं लगेगा? क्या वे निडर हो कर किसी के प्रेम को स्वीकार कर सकेंगी? ये प्रश्न चिन्तित करते हैं, डराते हैं और क्रोध से भर देते हैं।

एक युवा लेखिका है सुजाता मिश्र। वर्तमान की दशा-दिशा को बड़ी बारीकी से परखती रहती है। जब कुछ आपत्तिजनक घटित होते देखती है तो अपना आक्रोश प्रकट करने से खुद को रोक नहीं पाती है। स्वाभाविक है। एक संवेदनशील मन जो प्रेम पर विश्वास रखता हो, वह घात पर तिलमिलाएगा ही। औरतों को टुकड़े-टुकड़े में काटा जाना, जलाया जाना, उबाला जाना आदि की घटनाओं ने सुजाता मिश्र को झकझोर दिया और उसने अपने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली जिसे बिना अनुमति उसे यहां शेयर कर रही हूं क्योंकि मुझे विश्वास है कि जो ललकार उसने अपनी पोस्ट में की है वह हर व्यक्ति के लिए है। सुजाता की पोस्ट शब्दशः यूं है- ‘‘कोई प्रेमिका के टुकड़े -टुकड़े कर कुत्तों को खिला देता है,कोई बीच सड़क प्रेमिका को चाकूओं से गोद देता है तो कोई प्रेमिका के टुकड़े कर कूकर में उबाल देता है...कुत्तों को खिला देता है.... क्या हो गया है लोगों को...इतनी हिंसा...इतनी नफरत......लोगों ने प्रेम को हर बंधन,हर सीमा से मुक्त करना चाहा....परिणाम सामने हैं... लड़कियों मत करो प्रेम.... इस दौर के प्रेमियों में एक होड़ सी मची है वीभत्सता की सीमा पार करने की...  कुछ समय पूर्व लोग प्रेम में भागी हुई लड़कियों के लिए लिख रहे थे बढ़ - चढ़कर...कोई प्रेम में मारी गयी लड़कियों पर भी लिख दो....कुछ कविताएं....कुछ शोक गीत!’’
.        सुजाता मिश्र सही लिखती है कि अब शोकगीत लिखने का समय आ गया है क्योंकि लड़कियों, स्त्रियों के विरुद्ध अपराध थम नहीं रहे हैं। सुजाता का यह कहना कि ‘‘लड़कियों मत करो प्रेम’’ कोई नसीहत नहीं है, अपितु पीड़ा है, छटपटाहट है, आक्रोश है। ऐसा हो भी क्यों न, आखिर, अभी ही तो हमने ख़ुश होना शुरू किया था कि स्त्री और पुरुष की संख्याओं का अनुपातिक अंतर कम होता जा रहा है। लेकिन ऐसी घटनाओं ने ख़ुशी को फ़ीका कर दिया है। ऐसा लगता है कि अपराधों के आधार पर एक बार फिर से जनगणना की जानी चाहिए ताकि पता चले कि कितनी लड़कियां प्रेम में धोखा कर मारी गईं और कितनी लड़कियां प्रेम करने के कारण अपने ही माता-पिता, भाई-बहन के द्वारा अपराधी घोषित करके मरने को छोड़ दी गईं। ऐसी दशा में यदि लड़की को समय रहते धोखे का तनिक अनुमान भी लग जाए तो वह किससे मदद मांगे? कहां जाए? उसके सबसे पहले घर के दरवाज़े ही उसके मुंह पर बंद किए जा चुके हैं। अब या तो वह इंसानों की भीड़ में कूद पड़े या फिर अपने कथित प्रेमी रूपी दरिंदे के रहमोकरम पर स्वयं को ज़िन्दा रखने की कोशिश करे।
इन घटनाओं की आड़ में भी नसीहत लड़की को ही कि प्रेम किया है तो अब भुगतो! किसने कहा था प्रेम करो? तो क्या एक लड़की को सिर्फ़ निराकार, अदृश्य ईश्वर से ही प्रेम करने में ही सुरक्षा मिल सकती है? शायद वहां भी। क्योंकि मीराबाई का उदाहरण हमारे सामने है। मीरा ने तो निराकार (वस्तुतः), अदृश्य ईश्वर से प्रेम किया। अटूट प्रेम किया। फिर भी उसे विषपान करने को विवश किया गया। तो एक लड़की क्या करे? वह भी तो एक इंसान है। उसके शरीर में भी हार्मोन्स हिलोरें लेता है। वह रोबोट नहीं है कि जिसके पास अपना खुद का न दिल हो न दिमाग़। फिर प्रेम में बुराई क्या है? वस्तुतः प्रेम की भावना कलुषित नहीं होती है, कलुषित होते हैं धोखेबाज़ प्रेमी। प्रेम ऐसा वीभत्स तो कभी नहीं रहा।

प्रेमियों के बारे में रहीम ने बहुत रोचक और मर्मस्पर्शी बात कही है-

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं।।

अर्थात् रहीम कहते हैं कि आग से जलकर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने पर प्रेमी बुझकर भी सुलगते रहते हैं। लेकिन आज प्रेमियों की एक ऐसी खेप पनपने लगी है जो विक्षिप्त है, मानसिक विकृति से भरी हुई है, इसीलिए वह स्वयं नहीं सुलगी है बल्कि अपनी वासना की पूर्ति होते ही अपनी प्रेमिका को ही जीवित जला देने से नहीं हिचकती है।
कबीर को क्या पता था कि ढाई आखर लड़कियों के लिए कभी इतने घातक सिद्ध होंगे। उन्होंने तो बड़ी सहजता से प्रेम की पैरवी की। अब इसकी व्याख्या हर तरह से की जा सकती है कि यह बात सामाजिक प्रेम और सौहाद्र्य के लिए है, या फिर यह बात ईश्वर के प्रति प्रेम के लिए है अथवा दुनियावी विपरीत-लिंगी परस्पर प्रेम के लिए है। मूल में तो यही है कि प्रेम एक अच्छा वातावरण निर्मित करता है। शांति, सुरक्षा और विश्वास प्रदान करता है और जीवन का वास्तविक ज्ञान देता है-

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
ढाई  आखर  प्रेम के,  पढ़ै सो  पंडित होइ।।
.        यदि प्रेम की भावना न होती तो क्या यह सामाजिक संरचना बन पाती या पारिवारिक ढांचा खड़ा हो पाता?

 हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’ 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि "प्रेेम एक  संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।"

वहीं प्रेमचंद लिखते हैं कि-‘‘मोहब्बत रूह की ख़ुराक़ है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’’

दरअसल, प्रेम दोषपूर्ण नहीं होता है और न हो सकता है। प्रेम को आड़ बना कर वासनापूर्ति का लक्ष्य साधने वाले इसे कलंकित कर रहे हैं। क्योंकि जहां स्वार्थ है, वहां स्वार्थपूर्ति होते ही छुटकारे की भावना भी विकराल रूप ले लेती है। वर्तमान में ऐसा लग रहा है जैसे हम प्रेम के स्वरूप और उसकी प्रकृति को ले कर ही उलझ गए हैं। हर प्रेम को किसी न किसी ‘‘ऐंगल’’ से देखने लगे हैं और इसी का लाभ उठा रहे हैं सायकोपैथिक (मनोरोगी) लोग। जिनके लिए व्यक्ति नहीं वासना ही सबकुछ है।
जब उन अभागी स्त्रियों के बारे में विचार करो तो उनकी मानसिक और शारीरिक पीड़ा का अंदाज़ा लगाना भी कठिन हो जाता है। क्या बीती होगी उन पर जब उनका विश्वास रौंदा गया होगा? क्या बीती होगी उन पर जब उन पर प्राणघातक पहला प्रहार किया होगा? यदि मान लें कि देह से निकल कर आत्मा स्वतंत्र हो जाती है और वह सबकुछ देख सकती है तो क्या बीती होगी उनकी आत्माओं पर जब उन्होंने अपनी शरीर को अपने ही प्रेमी के हाथों काटे जाते, उबाले जाते या कुत्तों को खिलाते हुए देखा होगा? कोई इतना नृशंस, इतना निर्मोही, इतना घातक कैसे हो सकता है? विडंबना यह कि अब इस तरह के केस ‘‘रेयर ऑफ द रेयरेस्ट’’ नहीं रह गए हैं। ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ना युवाओं में आपराधिक मनोदशा के बढ़ने का अलर्ट अलार्म है। यदि अब भी इस अलार्म को नहीं सुना और समझा तो प्रेम का नाम सिर्फ़ पुरातन किताबों में रह जाएगा किसी ताड़पत्र में लिखे लेख की भांति।  

सच यह भी है कि हर प्रेम में घोखा नहीं होता और हर प्रेम घातक नहीं होता। आवश्यकता है प्रेमी के आचार-व्यवहार और मनोदशा को समझने की। लेकिन वह कहावत है न कि ‘‘प्रेम तो अंधा होता है’’। यदि प्रेम में कपट है तो उस प्रेमांध व्यक्ति (लड़की) को बचाने के लिए उसके लौटने का दरवाज़ा खुला रखा जाए। जीवन में छोटे-बड़े धोखे हर इंसान खाता है। जब पैसों के लेनदेन में धोखा मिलता है तो परिजन यही कह कर सांत्वना देते हैं कि ‘‘अरे, जाने दो, उसी की किस्मत का रहा होगा। हम फिर कमा लेंगे। मन छोटा मत करो!’’ तो फिर प्रेम को ले कर निष्ठुरतापूर्ण हठ क्यों? लड़की ने प्रेम किया। उसे सच्चा साथ मिला और वह खुश है तो परिजन भी खुश रहें। लेकिन लड़की को प्रेम में धोखा मिलता है तो उसे लौट कर आने के लिए एक दरवाज़ा को खुला छोड़ें। उसके सम्हलने का एक मौका तो दें। यदि सारे रास्ते बंद कर दिए जाएंगे तो हादसे का रास्ता उसकी प्रतीक्षा में मुंह बाए बैठे मिलेगा। पहले एक लड़की को जन्म दे कर इस दुनिया में लाना और फिर उसके प्रेमविवाह कर लेने पर उसके जीते जी उसका पिण्डदान कर के उसे मृत घोषित कर देना, उससे सारे नाते तोड़ लेना क्या यही दायित्व निर्वहन है? समाज में इतनी भी कठोरता नहीं आनी चाहिए। यदि पानी की सतह पर शैवाल फैल जाए तो पानी का भी दम घुट जाता है। लड़कियों, महिलाओं की सुरक्षा के लिए सामाजिक सोच में एक लचीलापन जरूरी है। 
बहरहाल, प्रेम के नाम पर नृशंसता की शिकार हुई सभी लड़कियों की ओर से मीराबाई का यह दोहा-

जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय।
नगर ढिंढोरा पीटती प्रेम न करियो कोय।।

आशा करनी चाहिए है कि हम स्वस्थ मनोदशा वाले वातावरण की ओर जल्दी लौट आएंगे और ये तमाम नृशंस घटनाएं किसी दुःस्वप्न की भांति सनद रहेंगी।      
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