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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, July 4, 2023

पुस्तक समीक्षा | खुरदरे कठोर प्रसंगों का व्यंजनात्मक किन्तु कोमल प्रस्तुतिकरण | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 04.07.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  कवि रत्नदीप खरे के काव्य संग्रह "कुछ सीपी कुछ शंख" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
खुरदरे कठोर प्रसंगों का व्यंजनात्मक किन्तु कोमल प्रस्तुतिकरण
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - कुछ सीपी कुछ शंख
कवि       - रत्नदीप खरे
प्रकाशक    - प्रखर गूंज पब्लिकेशन, एच-3/2, सेक्टर-18, रोहणी, दिल्ली -110089
मूल्य       - 250/-
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‘‘कुछ सीपी कुछ शंख’’ एक ऐसी काव्यकृति है जिसमें गीत और ग़ज़ल दोनों विधाओं की रचनाएं हैं। इन रचनाओं में प्रकृति की सुंदरता, प्रकृति की पीड़ा, व्यवस्थाओं का दूषित होना और मन की कोमल भावनाओं का प्रस्तुतिकरण है। जिस विषय पर सृजन किया जाए, स्वयं वह विषय रचनाकार से उसके साथ तादात्म्य स्थापित करने का आग्रह करता है। जो रचनाकार इस आग्रह को सुन, समझ लेता है, उसकी रचनाओं में प्रस्तुत विषय अपनी समग्रता से उभरता है। रत्नदीप खरे की काव्य रचनाओं में विषय की समग्रता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है क्योंकि काव्य के बीज बाल्यावस्था से ही उनके मन में पड़ चुके थे।
मां प्रत्येक व्यक्ति की प्रथम शिक्षिका होती है। मां बोलना सिखाती है, चलना सिखाती है, प्यार-दुलार सिखाती है तथा इस दुनिया में जीना सिखाती है। मां की लोरी के द्वारा ही शिशु का प्रथम परिचय काव्य से होता है। फिर पहला बालगीत भी मां ही सिखाती है, चाहे वह सुक्षित हो या अपढ़। कवि रत्नदीप खरे को काव्यप्रेम अपनी माताजी चर्चित कवयित्री स्व. कांति खरे से विरासत में मिला। अपनी प्रेरणास्रोत अपनी माता जी एवं अपनी सृजन निष्ठा के प्रति कवि ने ‘‘आत्मकथ्य’’ में लिखा है कि-‘‘अपनी नवीनतम काव्यकृति ‘‘कुछ सीपी कुछ शंख’’ आपके कर कमलों में सौंपते हुए हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। अपनी बात कहना मेरे लिए हमेशा की तरह दुष्कर ही रहा कि क्या और कैसे कहूँ। काव्य के प्रति आसक्ति अनुराग और आकर्षण का बीजारोपण तो स्वाभाविक रूप से घर से ही होना था और हुआ भी मेरी माता जी पेशे से शिक्षिका थीं लेकिन वे। गीतकार, गजलकार, नाट्यकर्मी, आकाशवाणी कलाकार होने के साथ वे बुंदेलखंड क्षेत्र की स्थापित मंचीय कवयित्री भी रहीं हैं।’’ रत्नदीप खरे आगे लिखते हैं कि- ‘‘पिताजी के इधर उधर तबादलों के चलते मैं ही ज्यादातर माँ के पास रहा और यही वजह है कि मैं साहित्यानुरागी हो सका।’’
कवि रत्नदीप खरे व्यष्टि और समष्टि दोनों के प्रति स्पष्ट हैं। वे निजदुख, आकुलता, विछोह अथवा प्रेमावेग को जितनी मुखरता से व्यक्त करते हैं उतनी ही मुखरता उनकी उन रचनाओं में भी है जिनमें उन्होंने जग की बात की है। कवि ने निजदुख में उलाहना भी पूरी कोमलता से दिया है। ‘‘तुमने तार तार कर डाला’’ शीर्षक गीत की शब्दावली देखिए-
कैसे जाऊँ गन्तव्यों तक मेरे मीत तुम्हीं बतलाओ,
पथ पहले से था पथरीला तुमने धारदार कर डाला।
सारी रात जागकर मैंने
पीर, वेदना, व्यथा लिखी थी
मेरे जीवन भर की पूंजी
तुमको केवल कथा दिखी थी
लिखता रहा निरंतर जब तक
चुक न गई आंखों की स्याही
पढ़ा किसी ने नहीं निकल गए
नजर डाल कर सारे राही
अब न कभी मैं बुलवाऊंगा तुम्हें समीक्षा करने बाबद,
मैंने गांठ गांठ जोड़ी थी तुमने तार तार कर डाला।

यदि संग्रह के नाम के अनुरुप इसके गीतों और ग़ज़लों पर दृष्टिपात किया जाए तो मन भी एक अथाह सागर की भांति होता है जिसके भीतर अनेक भावनाएं उपस्थित रहती हैं। भावावेगा की लहर उठने पर कुछ भावनाएं हृदय से निकल कर मुखरता पा जाती हैं। दबा-छिपा अव्यक्त सहसा अभिव्यक्ति पा जाता है और सुंदर व्यंजनात्मक रचनाओं में ढल जाता है। जैसे एक उदाहरण देखिए ‘‘जीवन का अनुवाद किया है’’ शीर्षक गीत का, इसमें शैलीगत प्रवाह है, सहज शब्द-विन्यास है, साथ ही मुहावरे का सटीक प्रयोग भी है-  
अरसे से वीरान पड़ी इस विरह, वेदना की बस्ती को,
मैंने केवल स्वर देकर के, कोशिश भर आबाद किया है।
सौ सौ बार टूटना होता
केवल एक सृजन से पहले,
ऊपर से दुनिया बैठी है
लिए हुये नहले पर दहले,
इतना भी आसान नहीं था कोई गीत सृजित हो पाता,
जिनसे रहा सदा अपमानित उन तक से संवाद किया है।
भारी भरकम शब्दकोष का
मिल सकता था मुझे सहारा,
समझ लिया जाता पर मुझको
पुरस्कार वाला हरकारा,
इंद्रजाल मैं रच सकता था क्लिष्ट, कठिन शब्दों के लेकिन
सीधी और सरल भाषा में जीवन का अनुवाद किया है।

बुंदेलखंड के झांसी निवासी कवि एवं साहित्यकार चंद्रिका प्रसाद त्रिपाठी ने संग्रह की भूमिका लिखते हुए संग्रह के बारे में बड़ा सुंदर परिचय दिया है- ‘‘काव्यकृति का नाम ‘‘कुछ सीपी कुछ शंख’’ बड़ा ही सार्थक है। सीप से मोतियों का जन्म होता है और शंख से गंगाजल भरकर शंकर का जलाभिषेक किया जाता है। गीत आबदार मोती के समान चमकदार और शोभामय हैं। कतिपय गीत गंगा जल बिंदु की भांति शं (कल्याण) कर (करने वाले) को अर्पित होने योग्य हैं और क्यों न हों। इनके रचयिता का नाम रत्नदीप है और यह भी अर्थगर्भित है । दीप में तेल और बाती होती है और उसे दियासलाई से प्रज्ज्वलित करते हैं तब दीप के प्रकाश से अंधकार दूर होता है, परंतु रत्नदीप अलग होता है उसके लिए न तो तेल चाहिए और न बाती और दियासलाई। वह स्वयं प्रकाशित होता है। उसे आंधी तूफान बुझा नहीं सकते। वह सदैव तेजोमय रहता है। रत्नदीप द्वारा रचित गीत गजल भी इसी प्रकृति के अनूठे है। वे अन्य गीतकार के भावों के मोहताज नहीं हैं, ये मौलिक हैं, सर्वथा आत्मचिंतन से जन्मे और आत्मानुभूति जन्य हैं।’’
‘‘अनुभूतिजन्य’’ और ‘‘आत्मानुभूतिजन्य’’ ये दो शब्द साहित्य सृजन में बहुत अधिक महत्व रखते हैं। इन दो शब्दों से ही रचना का स्वरूप निर्धारित होता है तथा रचना की प्रकृति निर्मित होती है। यदि कोई दृश्य आंखों को छू कर हृदय से होता हुआ मस्तिष्क को कुरेदता है और तात्कालिक प्रतिक्रिया की भांति रचना फूट पड़ती है तो वह ‘‘अनुभूतिजन्य’’ रचना होती है। वहीं, यदि कोई दृश्य हृदय को इस तरह आलोड़ित करता है कि उससे मन और मस्तिष्क एक साथ प्रभावित हो कर उसका सांगोपांग विश्लेषण करने लगते हैं और तब जो रचना सृजित होती है वह ‘‘आत्मानुभूतिजन्य’’ रचना होती है। दोनों प्रकार की रचनाओं की प्रकृति को पाठक या श्रोता पढ़ते या सुनते ही समझ जाता है कि इसमें भावना और विचारों का संतुलन किसमें अधिक और किसमें कम। कवि रत्नदीप खरे की रचनाएं निश्चित रूप से ‘‘आत्मानुभूतिजन्य’’ रचनाएं हैं। अभी गीतों के उदाहरण तो देखे ही, अब ग़ज़लों में भी उनके सृजन का कौशल देखिए, जब रत्नदीप खरे चेतना को झकझोरने वाले संदर्भ अपनी ग़ज़ल में पिरोेते हैं। इसी संग्रह में एक ग़ज़ल है ‘‘माँ का बक्सा बोल गया’’। इस ग़ज़ल के कुछ शेर देखें-
मैं भी जाने किस गुमान में अच्छा अच्छा बोल गया।
हाथ नहीं रक्खा गीता पर, लेकिन सच्चा बोल गया।
बाबूजी के हिस्से में तो परछत्ती ही आना है,
इक विलायती बेटे के घर का नक्शा बोल गया।
हमने खुद ताकीद करी है रंग न रोगन करने की,
दादी माँ के जहाँ पान का चूना कत्था बोल गया ।
सुनती रही सभी का सब कुछ, मगर उमर भर मौन रही,
बरसी पर जब खोला क्या-क्या माँ का बक्सा बोल गया।
 
कवि ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से सरकारी व्यवस्थाओं के दोषों और भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य किया है। एक ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए-
जहाँ पानी नहीं होता, वहाँ पतवार चलती है।
हमें मालूम है कैसे, कहाँ, सरकार चलती है।
सुना दीवार में होते हैं अक्सर कान दफ्तर में,
मगर अब साथ में पूरे समय दीवार चलती है।
यहाँ बाबू, बड़ा बाबू, फिर उससे भी बड़ा बाबू,
ये जैसी टीप दें नस्ती उसी अनुसार चलती है।

इस संग्रह में बड़े गीतों के साथ छोटे बहर की भी ग़ज़लें हैं जो अपना अलग प्रभाव छोड़ती हैं -
आप तो बस आप हैं श्रीमान जी ।
ताल, सुर, आलाप हैं श्रीमान जी ।
नप गयी जनता जरा सी बात पर,
आप तो बे नाप हैं श्रीमान जी ।
ओम् कुर्सी, ओम् सत्ता, ओम पद,
आपके तप जाप हैं श्रीमान जी ।
हों भले ना बंधु, भाई या सखा,
किंतु माई बाप हैं श्रीमान जी।
 
कवि रत्नदीन खरे का काव्य संग्रह ‘‘कुछ सीपी कुछ शंख’’ में प्रेमिल भावनाओं की सीपियां हैं तो अव्यवस्था के विरुद्ध शंखनाद भी है। इसमें सन्नाटे के स्वर हैं तो शोर का प्रतिरोधी सन्नाटा भी है। यह काव्य संग्रह अपनी रचनाओं की उपादेयता स्वयं सिद्ध करता है। किसी पीड़ाकारी या तीखी बात को किस तरह कोमलता से कहा जा सकता है, इसे समझने के लिए इस संग्रह को जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
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