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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, July 25, 2023

पुस्तक समीक्षा | समसामयिक पीड़ा के प्रति चेतना का आह्वान करती कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 25.07.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  बद्रीलाल ‘दिव्य’ के काव्य संग्रह "दिनकर कैसे करे उजाला?" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
समसामयिक पीड़ा के प्रति चेतना का आह्वान करती कविताएं
     - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - दिनकर कैसे करे उजाला?
कवि       - बद्रीलाल ‘दिव्य’
प्रकाशक    - साहित्यागार, धामाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर
मूल्य       - 250/-
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बद्रीलाल ‘दिव्य’ एक संवेदनशील कवि हैं। इनका कविता संग्रह ‘‘मेरी उड़ान’’ भी मैंने पढ़ा है तथा उसकी इसी काॅलम में समीक्षा कर चुकी हूं। कवि ‘दिव्य’ का यह काव्य संग्रह ‘‘दिनकर कैसे करे उजाला?’’ समसामयिक परिस्थियों में व्याप्त विसंगतियों की ओर सटीक संकेत करता है। इस संग्रह की कविताएं कवि के लोकोपकारी सरोकार एवं देश के प्रति सजगतापूर्ण चिन्तन को सामने रखती हैं। 

इस संग्रह की रचनाओं के संबंध में जिन लोगों ने भूमिका के रूप में अपने विचार लेखबद्ध किए हैं उनमें बेंगलुरु निवासी प्रतिष्ठित कवि, लेखक, संपादक ज्ञानचन्द ‘‘मर्मज्ञ’’ ने लिखा है कि - ‘‘बद्रीलाल ‘दिव्य’ एक संवेदनशील कवि है जो समय की प्रतिध्वनियों की अकुलाहट को अपने शब्दों में बखूबी पिरोते है। वे समय की पड़ताल सूक्ष्मता से करते हैं। उजालों का भ्रम उन्हें अंधेरों के चौपाल तक लेकर जाता है जहाँ त्रासदी, पीड़ा और विदुषताएं चीख रही होती है। कविता समय की धमनियों में बहने वाली संवेदना है जो कवि दिव्य के अंतर्मन को उद्वेलित करती है। जिस कविता में समय की उपस्थिति नहीं होती, वह शब्दों के वीरान जंगल के अलावा कुछ भी नहीं है। कवि दिव्य ने समय की चेतना को केवल महसूस ही नहीं किया अपितु अपनी रचनाओं में ढाला भी है।’’

वहीं वरिष्ठ कवि, कथाकार व समीक्षक हरदान ‘‘हर्ष’’ के अनुसार - ‘‘दिनकर कैसे करे उजाला काव्य कृति में कवि दिव्य ने अपने अंतद्र्वन्द्व और सामाजिक सरोकारों को सुमधुर स्वर दिया है। कवि दिव्य अपनी जड़ों से जुड़ा है। अपनी परम्पराओं से जुड़ा कवि सत्य, अहिंसा, अद्धा, प्रेम, अनुराग, सद्भाव, शान्ति, शुचिता के गीत गाता है। वह समाज में हो रहे अन्याय और उत्पीड़न, समाज में बढ़ती घृणा, कटुता से व्यथित है। जाति और धर्म के नाम समाज के बंटवारे से कवि खिन्न है।’’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं सदस्य पं. जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी (राजस्थान) भगवती प्रसाद गौतम लिखते हैं कि - ‘‘बद्रीलाल ‘दिव्य’ हिन्दी व राजस्थानी भाषा में समान ऊर्जा के साथ हस्तक्षेप करते है। कवि दिव्य की रचनाओं में समर्पण, उसका विशेष श्रमशील उपक्रम बरबस ही पाठक के दिल में जुम्बिश पैदा करता है। ‘‘दिनकर कैसे करे उजाला’’ काव्य-संग्रह का फलक व्यापक है। इसमें घर-परिवार है, रिश्तों की मौजूदगी है, नैसर्गिक रंगों की छटाएँ है, नैतिक मूल्यों की गंध है तथा राष्ट्रीय चेतना स्वर विद्यमान है। कवि दिव्य की कविताओं का विशेष पक्ष यही है कि वे नित्य प्रति के जीवन से गुजरते हुए सीधे-सीधे लोगों के दिल में उतरती है। तथा लोक सरोकारों के भीतर तक की टोह लेती है।’’

आरम्भ में ही इन तीन विद्वानों के कथन पढ़ कर संग्रह की कविताओं के प्रति विश्वास जागृत हो जाता है।   यह महसूस होने लगता है कि संग्रह के नाम से जो भावनाएं प्रतिध्वनित हो रही हैं, उसी के अनुरूप इसमें कविताएं संग्रहीत होंगी। कवि बद्रीलाल ‘‘दिव्य’’ ने ‘‘मेरी बात’’ के तहत अपने मन की बात में कविता के महत्व को रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा है कि -‘‘साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य ने ही समाज को सही दिशा प्रदान की है। साहित्य वह है जो सभी के हितार्थ लिखा जाता है। साहित्य लेखन की विधा कोई भी हो, चाहे कविता हो, गीत हो, गजल हो, चाहे दोहे हो। इन विधाओं के भावों और विचारों को सुन्दर तरीके से अभिव्यक्ति देना ही साहित्य है। काव्य लेखन सरल नहीं है फिर भी आजकल आपको कविता लिखने वालों की एक लम्बी कतार दिखाई देगी। काव्य लिखने से पूर्व कवि का उसकी उपयोगिता पर ध्यान दृष्टिगोचर होना चाहिए। कविता की उपयोगिता को कभी भी शब्दों की परिधि में नहीं बांधा जा सकता। कविता अपने आप में जितनी व्यापक होगी, उतनी ही वह हमारे लिए, हमारे भीतर की शिथिल भावनाओं को ऊर्जा प्रदान करने के लिए, समाज को नई दिशा देने के लिए, यहाँ तक कि पाठकों के लिए भी सागर की गहराई और सागर के विस्तार से भी अधिक महत्वपूर्ण होती है। इन सब बातों को अपनी गोद में समेटने वाला काव्य ही समाज में जिन्दा रहता है और वही काव्य-सृजन जीवन में सार्थक माना जाता है।’’
वहीं वे ‘‘मेरी बात’’ के दूसरे पैरा में कविता को प्रतिस्पर्धा की वस्तु बता कर चौंकाते हैं। उनके अनुसार-‘‘काव्य लेखन भी एक प्रतिस्पर्धा है और मैं भी उसका एक हिस्सा हूं। हर कवि एक-दूसरे से अधिक अच्छी कविता लिखने की कोशिश करता है।  मैं मूलतः राजस्थानी भाषा का कवि हूं लेकिन काव्य लेखन के लिए किसी भी रचनाकार को भाषा की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। वह किसी भी भाषा में काव्य लेखन कर सकता है। धीरे-धीरे मेरा रुझान हिन्दी कविता लेखन की ओर अग्रसर होने लगा।’’
काव्य मन से उपजी भावनाएं होती हैं। अतः मन की मौलिकता ही मौलिक काव्य का सृजन कराती है। अन्यथा दूसरे से प्रभावित हो कर अथवा दूसरे को अपने से कमतर साबित करने की ‘‘प्रतिस्पद्र्धा’’ उस मौलिकता को शनैः शनैः समाप्त करती जाती है। इसलिए मेरा तो व्यक्तिगत रूप से मानना है कि अच्छा से अच्छा लिखने की प्रवृत्ति अपने भीतर जगाए रखना चाहिए किन्तु ‘‘उसकी कमीज मेरी कमीज से उजली क्यों?’’ की भावना को परे रख कर। बहरहाल, सृजन की श्रेष्ठता को बनाने के तारतम्य में कवि ‘दिव्य’ ने यह उद्गार व्यक्त किया है। स्वयं कवि ‘दिव्य’ की कविताओं में मौलिकता विद्यमान है। ‘‘दिनकर कैसे करे उजाला?’’ की कविताएं समसामयिक पीड़ा के प्रति चेतना का आह्वान करती हैं। इन कविताओं में आतंकवाद, अव्यवस्था एवं अमानुषीय प्रवृत्तियों के प्रति रोष है, तो वहीं इनमें सब कुछ ठीक हो जाने की आशा का आह्वान भी है। यह सब कुछ कैसे ठीक होगा? इसका हल भी वे अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। उनका एक गीत है ‘‘कैसे गायें गीत धरा के’’। निःसंदेह, जब सबकुछ सामान्य हो, सुंदर हो शांत हो तभी धरा के सुखद गीत गाए जा सकते हैं। इसीलिए अपने इस गीत में कवि ने धरा पर व्याप्त अशांति की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा है-
कैसे गायें गीत धरा के मर चुकी मानवता ।
चहुं ओर हाहाकार मचा है, फैल रही दानवता ।।
सत्यवादी हरिश्चंद्र यहाँ,
बने हुए हैं सारे ।
बातों में कटुता है गहरी,
भाषा में सब खारे ।।
कहते क्या हैं करते क्या हैं, नहीं रही पावनता ।
कैसे गायें गीत धरा के, मर चुकी मानवता ।।
माँ बेटियां नहीं सुरक्षित,
उन पर नजर गढ़ाते ।
स्वयं बने हैं यहां भेड़िये,
हम को पाठ पढ़ाते ।।
लंका ढही रावण ढह गया, मन में लो कर्मण्यता ।
कैसे गायें गीत धरा के, मर चुकी मानवता ।।

कवि देश में बढ़ती जा रही अशांति से भी विचलित है। कवि मानता है कि यदि आपसी लड़ाई-झगड़े, राजनीतिक विवाद आदि समाप्त हो जाएंगे तो देश में शांति की स्थापना हो सकेगी। कवि ‘दिव्य’ आमजन का आह्वान करते हुए ‘‘चमक उठे शमशीर’’ शीर्षक गीत में कहते हैं-
धरती के आँगन में आओ, मानवता के फूल खिलायें।
मिलकर सारे भारतवासी, एक दूजे को गले लगायें ।।
आजादी दी जिन लोगों ने, जिनको फिर से याद करें।
समय रहा नहीं सोने का, थोड़ा तो हम ध्यान धरें ।।
शहीदों के आगे आओ, हम सब शीश नवायें ।
धरती के आँगन में आओ, मानवता के फूल खिलायें ।।
मिट जाओ धरनी के खातिर, लेकिन पीछे मत हटना ।
बूंद - बूंद खूं की देकर के, सीखा हमने मर मिटना ।
मिलकर करें विकास देश का, हम सब जान लगायें ।
धरती के आँगन में आओ, मानवता के फूल खिलायें ।

यदि वर्तमान प्रसंग देखें तो हर ठौर में आतंक, असुरक्षा एवं अपराध की कालिमा दिखाई देती है। कवि ‘दिव्य’ कहते हैं कि यदि धरती पर रावणराज रहेगा तथा स्थितियां इस कदर कलुषित हो जाएंगी कि पुत्र ही पिता का शत्रु बन जाएगा तो सूर्य भी धरती पर अपनी रश्मियां बिखेरने से हिचकेगा। इसी स्थिति को लक्ष्यित करके कवि ने प्रश्न उठाया है कि - ‘‘दिनकर कैसे करे उजाला?’’ कविता का प्रथम बंद देखिए-
जहां ठौर-ठौर हो काला ।
कैसे करे उजाला ।।
धरती पर रावण राज ।
बना है मनुज दगा - बाज ।।
बाप को बेटा दिखाता आँख ।
भले ही करो जतन तुम लाख ।।
मिटा सके तो मिटा रे युवा ।
दिनकर सृष्टि के लगा है काला ।।

   इसी कविता के अंतिम दो बंद देखिए जिसमें कवि का आक्रोश और आकुलता खुल कर मुखर हुई है-
अलपते सच्चाई का राग ।
सभी के लगा है काला दाग ।।
शकुनी चले यहां पर चाल ।
दुर्योधन हो रहा माला- माल ।।  
निःसहाय हो गये योद्धा सारे,
मार गया है पाला ।
दिनकर कैसे करे उजाला ।।
आजाद हो गये हम
हमारा निकल रहा है दम ।।
यहाँ आतंकी फैला जाल ।
झुक रहा माता का अब भाल ।
गहरी नींद में डूब रहा है,
सत्ता का रखवाला ।
दिनकर कैसे करे उजाला ।।

कवि बद्रीलाल दिव्य के इस संग्रह ‘‘दिनकर कैसे करे उजाला?’’ की सभी गीतात्मक कविताएं उच्चकोटि की हैं। इन कविताओं में लयात्मकता है, भाषाई पकड़ है, आह्वान है, ललकार है, पीड़ा है और भविष्य के प्रति आशाएं भी हैं। इस संग्रह की रचनाएं मन और विचारों को आंदोलित करने में पूरी तरह सक्षम हैं। कवि को अपना यह तेवर आगे भी बनाए रखना चाहिए। अंत में कवि दिव्य की दो और पंक्तियां देखिए जो समय की पुकार की भांति है-

धर्म  बेचने  वाले  लोगों,  कब  तक  खून बहाओगे?
भागीरथी के पावन जल में, कब तक जहर मिलाओगे?  
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