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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, August 1, 2023

पुस्तक समीक्षा | ‘एहसासों की कश्तियां’ उर्फ़ कविता का युवा स्वर | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 01.08.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई युवा कवि आशुतोष मिश्रा के काव्य संग्रह "एहसासों की कश्तियां" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
‘एहसासों की कश्तियां’ उर्फ़ कविता का युवा स्वर
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह - एहसासों की कश्तियां
कवि       - आशुतोष मिश्रा
प्रकाशक    - शब्दांकुर प्रकाशन, जे-2,-41, मदनगीर नई दिल्ली-62
मूल्य       - 200/-
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क्या साहित्य की महत्ता आयु के अनुसार निर्धारित होती है? एक समीक्षक के तौर पर मैं तो ऐसा नहीं मानती हूं। कोई युवा अर्थवत्तापूर्ण साहित्य रच सकता है और कोई वयोवृद्ध अपने निरर्थक साहित्य से पन्ने भर सकता है। मेरे विचार से साहित्य का वास्तविक आकलन होता है उसकी सामग्री, उसमें निहित विचारशीलता, संवेदनाओं का स्तर, उसकी शैली और उसकी मौलिकता से। साहित्य की महत्ता रचनाकार की अन्वेषण एवं ग्रहण क्षमता से भी रेखांकित होती है कि वह समाज, जीवन अथवा प्रकृति को कितना समझता है, कितना महसूस करता है और कितना स्वयं को उससे प्रभावित पाता है। एक समीक्षक होने के नाते विविध प्रकार की पुस्तकें मेरे पठन-अनुभव से हो कर गुज़रती हैं और इसी आधार पर मैं दावे के साथ यह निष्कर्ष सामने रख सकती हूं कि साहित्य की गहराई को मात्र आयु के पैमाने से नहीं नापा जा सकता है। हम सभी जानते हैं कि प्रत्येक युवा पीढ़ी का अनुभव संसार अपनी पिछली पीढ़ी से इतर होता है, फिर भी मूलभूत तत्व वही रहते हैं। प्रेम, द्वेष, ईर्ष्या, नवीन अनुभव, व्याकुलता आदि वही सब कुछ, सिर्फ़ उसका स्वरूप तनिक भिन्न, तनिक नूतन हो जाता है। यदि युवा एक कवि है तो वह कविता के माध्यम से अपने अनुभवों, अपने आकलन एवं अपनी आकांक्षाओं को बखूबी व्यक्त कर देता है।

आशुतोष मिश्रा एक युवा कवि हैं। ‘‘एहसासों की कश्तियां’’ उनका पहला काव्य संग्रह है। 16 सितम्बर 2000 को जबलपुर में जन्मे आशुतोष अभी आयु के हिसाब से छोटे हैं किन्तु उनकी कविताएं युवा स्वर का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में वही व्यक्त किया है जो उन्होंने देख, समझा या अनुभव किया। अपनी कल्पनाओं एवं आकांक्षाओं को भी उन्होंने अपनी कविताओं में स्थान दिया है लेकिन एकदम स्वाभाविक रूप में। कहीं कोई बनावट नहीं, कहीं कोई आडंबर नहीं, कहीं किसी की छाप नहीं। आशुतोष की कविताओं की बात की जाए इससे पूर्व उनके आत्मकथन अथवा भूमिका की कुछ पंक्तियों पर दृष्टिपात कर लिया जाए। अकसर भूमिका पाठक और कविताओं के बीच सेतु अथवा ‘माइंडमेकअप’ का काम करती है। आशुतोष मिश्रा ने लिखा है-‘‘दुनिया में कई चीजें हैं जो लोगों को आपस में जोड़े रखती हैं। उनमें जो सबसे खास हैं, वो हैं एहसास हमारे एहसास हमें बेजानों से अलग करते हैं, और वजह बनते हैं दुनिया में हो रही हर उस चीज की, जिसे ना सिर्फ हम देख सकते हैं, बल्कि महसूस भी कर सकते हैं। भावनायें जीवन का एक प्रारूप हैं। उनके बिना हमारा मन और ये दुनिया एक खंडहर जैसे हैं, और उन भावनाओं को महसूस करना ही जिन्दगी का एहसास लेना है। हमारा हर जज्बात हमें जिन्दगी का एहसास कराता है। घड़ी की सुईयों में लिपटा हर पल हमारे एहसासों की सरजमीं है, जिसपर हम और हमारे अच्छे-बुरे सारे तजुर्बे भाग रहें हैं।’’

आशुतोष के ये विचार उनकी कविताओं को पढ़ने के पूर्व ही इस बात से आगाह करा देते हैं कि अब जो आगे कविताएं पढ़ने को मिलेंगी, उन्हें हल्के से नहीं लिया जा सकता है। ये कविताएं युवाजगत के तज़ुर्बों से लबरेज़ हैं और इन्हें ध्यान से पढ़ा जाना जरूरी है ताकि युवाओं की मनःस्थिति एवं परिस्थिति को समझा जा सके।

एक युवा जो अभी ज़िन्दगी को शनैः शनैः जान रहा है, समझ रहा है, वह पार्टियों, हंगामों यानी ट्रीट, मीट और हैंगआउट को छोड़ कर कविता के गंभीर क्षेत्र में क्यों प्रवेश कर गया है? ‘‘मैं लिखता हूँ’’ में आशुतोष अपने ढंग से इस प्रश्न का उत्तर देते हुए दिखाई देते हैं-
मैं उदासी लिखता हूँ,
मैं लतीफे लिखता हूँ,
मैं ज़िन्दगी जीने के,
सलीके लिखता हूँ,
लिखता हूँ मैं शामें,
मैं सहर भी लिखता हूँ,
मैं रातों की शबाब का,
असर भी लिखता हूँ,
मैं पल-पल से मिल रही,
सीख भी लिखता हूँ,
मैं एक बेजुबान की,
चीख भी लिखता हूँ,
मैं दिल में छिपी एक,
ख़्वाहिश लिखता हूँ,
मैं समाज के दुश्मनों की,
नुमाईश लिखता हूँ,
मैं जिन्दगी की तमाम,
ख़ैरातें लिखता हूँ,
मैं ख़ामोश रहकर,
‘आशु की बातें’ लिखता हूँ।
   यह कविता बता देती है कि कवि आशुतोष मिश्रा का फलक बड़ा है। उनकी दृष्टि निजी अनुभवों से लेकर सामाजिक परिदृश्य तक विस्तार पा रही है। लगभग हर कविता के पूर्व कवि ने अपने उन धुर केन्द्रीय विचारों को भी डेढ़-दो पंक्तियों में रखा है जिस पर वह कविता टिकी हुई है। जैसे एक कविता है-‘‘जल्दी लौट कर आओगे ना?’’ यह कविता उस भावना को व्यक्त करती है जो प्रत्येक व्यक्ति अपने पिता के प्रति रखता है। पिता के प्रति यह विश्वास कि जब वह लौट कर आएंगे तो सबकुछ ठीक हो जाएगा, हर उम्र में एक बालमन की भांति व्यक्ति के मानस में मौजूद रहता है। विशेषरूप से बाल्यावस्था में तो और भी सघनता से। इस कविता के पूर्व कवि ने ये गद्यात्मक पंक्तियां लिखी हैं-‘‘कहते हैं पिता की कमी तब तक महसूस नहीं होती जब तक वो हमसे दूर ना चले जायें। उनके चले जाने का वो एहसास हमें उस इंतजार की गोद में पटक देता हैं, जब हमें यकीन होता था कि जब पापा घर आयेंगे तो हर मुश्किल आसान हो जायेगी।’’ इन पंक्तियों के बाद कविता का शीर्षक और शीर्षक के बाद कविता। अब इस लम्बी कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
बहुत काँटें हैं जिन्दगी की राह में,
कंधे पर बिठाकर घुमाओगे ना ?
पापा, घर जल्दी लौटकर आओगे ना?
अँधेरे की आड़ में,
छिपकर वो आते हैं,
अजनबी से वो ख़्वाब,
हर रात मुझे डराते हैं,
हर रात की तरह
खुद से चिपका कर सुलाओगे ना?
घर जल्दी लौट कर आओगे ना?

अब इस माहौल में,
सर्द हवाओं का डेरा है,
जब से जिम्मेदारियों ने,
मेरी जिंदगी को घेरा है,
घर जल्दी लौट कर आओगे ना?
हर बार की तरह अपने हाथों से,
स्वेटर तो पहनाओगे ना?

  इस संग्रह की कविताओं की सबसे सुंदर बात ये है कि इनमें कवि ने अनावश्यक बुज़ुर्गियत लादने की कोशिश नहीं की है। ‘‘दोस्तों की महफिलें’ शीर्षक कविता का एक अंश इसका एक अच्छा उदाहरण है। इसमें है एक ऐसा दृश्य जो दोस्तों के साथ का खूबसूरत समय रेशा-रेशा बयान करता है, बिना किसी छद्म के। -
किसको कल टीचर ने जमकर सुटारा लगाया था,
कौन धोखेबाज मैथ्स का होमवर्क करके लाया था,
कौन से यूट्यूबर ने कल वीडियो डाली यूट्यूब में,
किसको कल मैडम ने दौड़ाया था धूप में,
कौन पूरी क्लास के लिये पानी ठन्डा लाया था,
परसों फिजिक्स के टेस्ट में कौन-कौन अण्डा लाया था,
किस-किसकी कितनी परीक्षा की तैयारी है,
सबसे ज्यादा चल रही आजकल कौन-सी बीमारी है,
आने वाले शुक्रवार को कौन-सी पिक्चर आयेगी,
पहली बेंच की लड़की आखिर किससे पट पायेगी?

यही तो युवा आयुवर्ग की उन्मुक्तता है, निश्चंतता है, खिलंदड़ापन है। किन्तु ऐसा नहीं है कि युवा अपने आस-पास के माहौल से बेख़बर हो। वह जानता है कि जो परिवेश उसके काॅलेज कैम्पस या हाॅस्टल कैम्पस के बाहर है, उसी में उसे अपना आगे का जीवन व्यतीत करना है। वह सिर्फ़ ख़्यालों में नहीं जी रहा है, वरन वह यथार्थ को भी पढ़ता चल रहा है। हम चाहें कितना भी ढ़िढोंरा पीट लें, किन्तु हम सभी जानते हैं कि हिन्दी के साथ हमारा क्या व्यवहार है। आज का युवावर्ग भाषाई चक्की में पिस रहा है। रोजगार के लिए उसे अंग्रेजी आना चाहिए और शेष जीवनयापन के लिए मातृभाषा। क्या हर युवा इस स्थिति से प्रसन्न है? नहीं! इसे बखूबी समझा जा सकता है आश्ुातोष की उस कविता में जिसका शीर्षक है ‘‘हिन्दी के लिए दो दबाओ’’। यह कविता बताती है कि युवाओं को अपनी मातृभाषा की अवहेलना किस कदर सालती है, पीड़ा पहुंचाती है। वस्तुतः वह भाषाई स्थिति को एक समझौते की तरह जी रहा है। कविता की कुछ पंक्तियां, बतौर बानगी-
अ, अनार पर हँसती दुनिया,
ए टू जेड में बसती दुनिया,
अपनी ही जुबाँ को,
धोखा देने से तुम चूक ना पाओ,
हिंदी के लिए दो दबाओ।
दुनिया की इस तेजी में,
जॉब करो अंग्रेजी में,
जुबाँ पर रखकर अंग्रेजी को,
तलवे उनके चाटे जाओ,
हिंदी के लिए दो दबाओ।

आशुतोष मिश्रा के इस संग्रह की कविताओं में एक और बहुत सुंदर कविता है जिसका उदाहरण देना मैं जरूरी समझती हूं क्यों कि इसमें युवा स्वर पूरी तरह मुखरता से ध्वनित हुआ है। बहुत ही मासूम-सी, खूबसूरत कविता है ये। ‘‘मोहब्बत करो जैसे चाय बनाते हो’’ इसमें मोहब्बत करने और चाय बनाने के साम्य को जिस ढंग से कवि ने रखा है वह बहुत दिलचस्प है-
ज़िन्दगी का पतीला रखो इश्क़ की आँच पर,
पहला कदम लेना जरा चूल्हे को जाँचकर,
जज़्बातों के दूध से नम हो,
में याद रहे आँच थोड़ी कम हो,
छिड़क दो फिर उसमें मिठास थोड़ी बातों की,
घुल जायें वो बातें, बाहों में जज्बातों की,
घोल दो फिर उसमें कड़क सी पत्ती चाय की,
फैल जाये हवाओं में अपनेपन की जायकी,
जरा-सा इसमें आँखों से निकला पानी भी डाल दो,
इलायची समझौते की फिर हौले से उछाल दो.....

पूरी कविता यहां दी जा सकती थी लेकिन इसका स्वाद संग्रह में पढ़ने पर और अधिक आएगा। बहरहाल, ‘‘एहसासों की कश्तियां’’ वह युवा स्वर का काव्य संग्रह है जिसे युवा तो पसंद करेंगे ही, साथ ही हर आयुवर्ग के पाठक इन कविताओं से गुज़र कर अपनी-अपनी स्मृतियों को ताज़ा कर सकते हैं। यद्यपि संग्रह में कुछ गंभीर सरोकार की भी कविताएं हैं किन्तु जो इस संग्रह को अलग पहचान दे रही हैं, वे हैं युवा अनुभवों से उपजी हुई कविताएं। जो कवि के रचनाकर्म की भावी आश्वस्ति भी रचती हैं। इन्हें अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
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