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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, August 10, 2023

बतकाव बिन्ना की | आ गओ सीजन अटकन-चटकन को | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

"आ गओ सीजन अटकन-चटकन को" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की  
आ गओ सीजन अटकन-चटकन को             
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
         ‘‘अटकन-चटकन दही चटोकन’’ जो मैं भैयाजी के घरे पौंची सो मैंने देखी के भैयाजी तखत पे बैठे अपनी दोई टांगे हिलात भए गा रए हते।
‘‘जो का कर रए भैयाजी?’’ मोय बड़ो अचरज भओ।
‘‘कछू नईं अटकन-चटकन की याद आ गई, सो बोई देख रए हते के अब लों कित्तो भूल गए औ कित्तो याद रओ।’’ भैयाजी अपनी टांगे हिलाबो बंद करत भए बोले।
‘‘पर जे अटकन-चटकन की याद कैसे आ गई? कऊं आप बचपने में सो नईं लौट गए? जैसे बो एक फिलम आई रई श्रीदेवी की। जीमें ऊ ज्वान-जहान उम्मर में अपने बचपने में चली जात आए औ गुड्डा-गुड़ियन से खेलन लगत आए। बाकी जे अटकन-चटकन सो औ लोहरी उम्मर को कहाओ!’’ मैंने भैयाजी से कई। काए से मोए उनकी फिकर होन लगी।
‘‘सो ऊ में का? कोनऊं उम्मर की याद आ सकता आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बा सो ठीक आए, बाकी आपके मूंड़ पे कोनऊं चोट तो ने घली? आप कोनऊं से टकराए तो नईं? आप के मूंड़ पे कोनऊं ने एकाध डंडा तो ने घाल दओ?’’ मैंने भैया जी पूछी।
‘‘जे का अंट-शंट बोले जा रईं? तुम का सोच रईं के मोरी यादाश्त चली गई? मोय सिरफ लड़कपन याद रओ औ कछू नईं? जो ऐसो होतो तो हम तुमें कैसे चीन्ह पाउंते?’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, कै तो आप सांची रए। आप मोय कैसे पैचानते? बाकी एक बात आए भैयाजी के मैंने जे देखो है के जो कोनऊं सई दिमाग वालो होय सो मोय भूल जात आए, मानो कोनऊं अगला-पगला होय सो ऊको मोरी खूब याद रैत आए।’’ मैंने कई।
‘‘तुम सोई कोनऊं पगलिया से कम आओ का?’’ मोरी बात सुन के भैयाजी हंसन लगे।
‘‘चलो आप हंसे तो! सो अब बताओ आप को आज जे अटकन-चटकन कां से याद आ गओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अब ऐसो आए बिन्ना के, अपन ओरन के संगे 24 के चुनाव लों अटकन-चटकन ई करो जाने आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘का मतलब?’’
‘‘मतलब जे बिन्ना, के तुमें अटकन-चटकन याद आए?’’
‘‘हऔ!’’
‘‘बताओ कैसो करो जात आए?’’
‘‘मोय पापाजी की याद नोईं, काय से के आप तो जानत हो के जो मैं दो साल की हती तो बे गुज़र गए रए। बाकी मामाजी मोय अपने पांवन के पंजा पे बिठा के झूला झुलात्ते औ अटकन-चटकन गाउत्ते। ऊ टेम पे ऐसो लगत्तो जैसे कोनऊं असल झूला पे झुलाओ जा रओ होय। बड़ों मजो आउत्तो। बे संगे गाउत्ते-
अटकन-चटकन दही चटोकन
राजा जी को घोड़ा अड़ गओ
पान-बरेजा में पत्ता सड़ गओ
झरबेरी तईं  कांटा  गड़ गओ
बूढ़ी डुकरिया सुजी ल्ये आई
मंागे  बा   कांटा   निकराई ....!’’
- कैत-कैत मोरी आंखें भर आईं, संगे गलो भर आओ, ऊ टेम की याद कर के।
‘‘अरे बिन्ना, तुम तो रोन लगीं। हमने ईके लाने याद करबे की नई कई के तुम रोन लगो। बाकी हमाए इते अटकन-चटकन के बोल दूसरे रैत्ते कोनऊं ई टाईप के-
अटकन-चटकन दहीं चटोकन
बाबा लाए सात कटोरी
एक कटोरी फूटी,
नई दुलैया रूठी
बऊ की बातें झूठीं
ठाई ठक्का ठाई ठक्का,
रै गए सबरे हक्का-बक्का....
-बाकी, जे गीतन की जेई तो खूबी रई के इनमें मुखड़ा बोई रैत्तो औ बाकी नेचें की लाईनें अपनी तरफी से बना-बना के गा दी जात्तीं।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, जे तो होत्तो! मनो अब तो जे सब कऊं बिला गए। अभईं आन देओ गणेशजी को टेम, सो देखियो आप, के पांच-पाच, छै-छै साल के मोड़ा-मोड़ी स्टेज पे कोन किसम के गाना पे नचहें। बा जब ‘शीला की ज्वानी’ वारो गाना चलत्तों, तो ऊं पे स्टेज पे नचत्ते, फेर ‘कम्मरिया’ आओ सो बित्ता भर की मोड़ियां अपनी कमरिया हिलान लगीं औ उनके मम्मी-पापा देख के खुस होत रए। अब ई बार ऐसई कोनऊं गाना हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘जे तो आए बिन्ना! बाकी जब अपन ओरें छोटे हते तो ऊं टेम पे ऐसे गाने नई बन्नत्ते, पर जो बनत्ते बे सोई छेड़ा-छेड़ी के रैत्ते औ ऊंपे तो स्कूल में डांस कराओ जात्तो। जैसे एक ऊ गाना रओ-‘‘मोए पनघट पे नंदलाल छेड़ गओ रे...’। अब जे गाना कां से बच्चा हरों के जोग रओ?’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! मैंने सोई करो हतो ईपे डांस। ऊं टेम पे मैं दूसरी, ने तो तीसरी कक्षा में पढ़त्ती। औ मोय छेड़ गओ को मतलबई ने पतो रओ। मोय तो बस, लैंगा-चुन्नी पहनबे को शौक रओ, जोन के लाने डांस करो हतो। खैंर, जे सब छोड़ो आप। आप तो जे बताओ के आपके लाने जे अटकन-चटकन कां से याद आ गई?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हम तो तुमें जेई सो बातबे वारे हते के अब अटकन-चटकन को सीजन आ गओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बो कैसे?’’
‘‘बो ऐसे के अब चाए ‘कां’ पार्टी के होंय, चाए ‘भा’ पार्टी के औ चाए ‘आ’ औ ‘बा’ के, सबरे घर के दुआरे आ-आ के अटकन-चटकन कराहें।
‘‘बो कैसे? औ काय को?
‘‘बो ऐसे के, बे सबरे अपन ओरन को अपने वादा को झूला झुलैहें। झूला बी असल वारो नोईं, झूठ को झूला। बे अटकन-चटकन घांई वादन को गीत गाहें, पांव पकर-पकर के उल्लू बनाहें।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो ईमें नओ का? जे सो हर पांच साल में होत रैत आए।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ, हमें अटकन-चटकन की आदत सो पर गई आए। कोनऊं झूला ने झुलाए सो अपन ओरन को मजो नई आऊत।’’ भैयाजी चिढ़त भए बोले।
‘‘ईमें चिढ़बे वारी बात कोन-सी? बे तो आहेंईं। अब आपई सोचो, के बे जो बेंचबे वारे आउत आएं -आरो वारे, चटाई वारे, झाडू वारो, साड़ी वारे - जे सबई अपनो समान ले के आप के दुआरे पे आउत आएं के नईं? बेंचबे के टेम पे बे कैत आएं के जे झाडू पांच साल चलहे, जे साड़ी पांच साल चलहे, जे आरो की मशीन कभऊं ने बिगरहे। मनो ऊंको सो पलट के आने नइयां, सो कैबे में का हरजा? अब चाए झाडू की दो दिनां में एकऊं फुर्री ने बचे, चाए धुतिया बैठतई साथ पांछू से चर्र बोल जाए औ चाय आरो की बा मशीन को पानी पी के धनी अस्पताले पौंच जाए, ईसे बेंचबे वारे को का? ऊंने सो अपनो माल बेंचो औ अपनो काम बना लओ। अब आप जानें, आपको फूटो भाग जानें।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘हऔ बिन्ना, जेई सो हम सोच रए हते के अपन ओरें कैसे वोटर आएं के इत्ते साले हो गईं, मनो सही-गलत पैचानबो ने सीख पाए? बातन में आ के इतने अंधरा हो जात आएं के थथोलत-थथोलत जा के बटन दबा आउत आएं।’’
‘‘जेई से तो मतदाता जागरूकता अभियान चलाओ जात आए।’’ मैंने अपनी जानकारी बताई।
‘‘हऔ, बो सोई सरकार औ निर्वाचन आयोग चलाउत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ तो, सरकारई तो हमें सिखाउत आए के शौच के बाद साबुन से हाथ धो लओ करे। अब औ का-का सिखाए, बिचारी सरकार। जेई मारे तो बा ठीक से कामकाज नईं कर पाउत आए। अब हाथ धोबो सिखाए के, वोट डारबो सिखाए, के अपनो काम-काज करे। बाकी आप सोई अटकन-चटकन को मजा लइयो! जेई तो लोकतंत्र आए!’’ मैंने भैयाजी से कई।
भैयाजी हंसन लगे। औ मैं उते से उठ परी। काए से के बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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