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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, August 23, 2023

चर्चा प्लस | तुलसी जयंती विशेष | तुलसी की ‘रामलला नहछू’ लघु कृति होते हुए भी लोक का महाकाव्य है | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस : तुलसी जयंती विशेष                                                                            
     तुलसी की ‘रामलला नहछू’ लघु कृति होते हुए भी लोक का महाकाव्य है
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
          भारतीय जनमानस में गोस्वामी तुलसीदास एक अति सम्मानित कवि के रूप में स्थापित हैं। उनकी कृति ‘‘रामचरित मानस’’ प्रत्येक हिन्दू घर में एक धार्मिक ग्रंथ के रूप में पूज्य है। धर्मपरायण स्त्री-पुरुष, यहां तक कि बालक, बालिकाएं भी ‘‘रामचरित मानस’’ का पाठ करके श्रीराम से निकटता अनुभव करते हैं। गोस्वामी तुलसी दास की प्रथम कृति मानी जाती है ‘‘रामलला नहछू’’। इस कृति का भी महत्व कम नहीं है। यद्यपि इसकी प्रथम कृति होने पर विद्वानों में मतभेद भी है किन्तु इस कृति में भी विशिष्ट लोकरस है। ‘‘रामचरित मानस’’ की आभा के विस्तार के सम्मुख यह लघु कृति आज भी अपनी महत्ता बनाए हुए है। तो, चलिए स्मरण करते हैं तुलसीदास जी की जयंती पर उनकी प्रथम कृति का।
तुलसीदास जयंती हर साल श्रावण मास की सप्तमी तिथि को मनायी जाती है। इस गणना के अनुसार इस वर्ष 2023 में 23 अगस्त को तुलसीदास का 526 वां जन्मदिवस है। तुलसीदास के लिए यह कहना समीचीन होगा कि वे लोक में जन्में, लोक में रहे और लोक में समा गए। तुलसीदास ने अपनी बाल्यावस्था से ही अनेक कठिनाइयां झेलीं। उत्तरप्रदेश के चित्रकूट जिले में राजापुर गांव में तुलसीदास का जन्म हुआ था। उनके पिता आत्माराम एक सम्मानित ब्राह्मण थे। तुलसीदास की माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास का जन्म सम्वत 1554 में श्रावण मास में शुक्ल सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ। ज्योतिष के अनुसार यह नक्षत्र शुभ नहीं माना जाता है। इससे तुलसीदास के प्रति एक पूर्वाग्रह जाग उठा। जबकि कहा जाता है कि  तुलसीदास  जन्म लेते ही रोए नहीं थे अपितु उनके मुख से ‘राम’ शब्द निकला था। यह भी किंवदंती है कि जन्म से ही उनके मुख में दांत थे जिससे उनके पिता ने उन्हें अमंगलकारी मान लिया। उनकी माता हुलसी ने तुलसी की रक्षा के लिए चुनियां नाम की अपनी एक दासी को सौंप दिया। तत्कालीन समाज में अमंगल के प्रभाव को नष्ट करने के लिए इस प्रकार की विधि अपनाई जाती थी। किन्तु तुलसी के जीवन में विपत्ति का आरम्भ होना तय था। इसीलिए दासी को सौंपने के दूसरे दिन ही उनकी मां ने यह संसार त्याग दिया। इस घटना से अंधविश्वासी पिता का अंधविश्वास और गहरा गया। उन्होंने तुलसी को वापस बुलाने से मना कर दिया। दासी चुनियां ने बालक तुलसी को पुत्रवत स्नेह दिया। सबकुछ ठीक चलने लगा था किन्तु जब तुलसी साढे पांच वर्ष के थे तभी दासी चुनिया का निधन हो गया। अब एक अनाथ बालक की भांति यहां-वहां भटकने के अतिरिक्त तुलसी के पास और कोई चारा नहीं था। उन्हें कई बार भूखे ही सोना पड़ता था। यह भी किंवदंती है कि बालक तुलसी कई दिनों से भूखे थे और उन्हें कोई भी भिक्षा में भोजन नहीं दे रहा था तब माता पार्वती को दया आई और वे स्वयं एक ब्राह्मणी का वेश रखकर उनके पास आईं। इसके बाद वे प्रतिदिन स्वयं आ कर बालक तुलसी को भोजन कराने लगीं।

तुलसीदास के जीवन में दैवीय चमत्कारों की उपस्थिति मानी जाती है। मानो कोई दैवीय शक्ति उनसे वह सृजन कराना चाहती थी जिसके बारे में उन्हें आरम्भ में स्वयं कोई अनुमान नहीं था। माग्य उन्हें काशी ले गया। संवत् 1628 में वे काशी से अयोध्या की ओर चले। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। इसलिए वे कुछ समय के लिए प्रयाग में ठहर गए। संयोगवश एक दिन उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हो गए। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास वापस काशी पहुंचे और वहां के प्रहलादघाट पर एक ब्राह्मण के घर ठहरे। उस ब्राह्मण के घर पर संस्कृत ग्रंथों का पाठ होता था तथा वहां संस्कृतमय वातावरण था। अतः तुलसीदास भी संस्कृत में पद्य रचना करने लगे। किन्तु विचित्र बात यह थी कि वे दिन भर में जो संस्कृत पद्य लिखते, रात भर में वे सब गायब हो जातीं। सात दिन तक यही क्रम चलता रहा। आठवें दिन तुलसीदास को स्वप्न में भगवान शिव ने आदेश दिया कि उन्हें संस्कृत में नहीं वरन अपनी लोकभाषा में सृजन करना है। इस घटना के बाद तुलसीदास अयोध्या चले गए जहां उन्होंने लोकभाषा को अपने सृजन का माध्यम बनाया।
अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवनकाल में तुलसीदास ने कई ग्रन्थों रचे- रामललानहछू, गीतावली, कृष्ण गीतावली, रामचरितमानस, पार्वतीमंगल, विनय पत्रिका, जानकीमंगल, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, सतसई, बरवै रामायण, कवितावली तथा हनुमान बाहुक। इनमें गोस्वामी तुलसीदास की प्रथम रचना ‘‘रामलला नहछू’’ मानी जाती है। यद्यपि इसके प्रथम होने को ले कर विद्वानों में मतभेद रहा है किन्तु अधिकांश लोग इसे ही प्रथम कृति मानते हैं। ‘‘गोसाईं चरित’’ में लिखा है कि ‘‘पार्वति मंगल’’, ‘‘जानकी मंगल’’ और ‘‘रामलला नहछू’’ की रचना मिथिला में एक साथ हुई। ‘‘पार्वती मंगल’’ में रचना-काल का उल्लेख इस प्रकार है -
जय संवत् फागुन सुदि पॉंचै गुरू दिन।
अस्विनि विचरेऊँ मंगल सुनि सुख छिन-छिन।।
अतः इसी के अनुरुप ‘‘रामलला नहछू’’ का रचनाकाल तय किया जाता है। यह एक लघु कृति है। इसके बीस सोहर छंदों में नहछू लोकाचार का वर्णन किया है। ’सोहर’ अवध क्षेत्र का प्रख्यात छंद है, यद्यपि यह अन्य क्षेत्रों में भी सोहर गाने का रिवाज़ है। ‘‘नहछू’’ दो शब्दों से बना है - नख और क्षुर अर्थात् नख काटना। अवध में विवाहपूर्व दूल्हे के नाखून काटे जाते हैं और इस रस्म को ‘‘नहछू’’ कहा जाता है। इस रस्म के दौरान स्त्रियां गारी सहित तरह-तरह के मनोरंजक गीत गाती हैं।

‘‘रामलला नहछू’’ की भाषा अवधि है जिसमें गोंडा और अयोध्या के आसपास बोली जाने वाली पूर्वी अवधी के शब्द निहित हैं। जैसे- अहिरिन, महतारि, आवइ, हरखइ आदि। सोहर छंद में निबद्ध इस काव्य रचना में अप्रतिम दृश्यात्मकता है। ‘‘रामलला नहछू’’ में उपस्थित दृश्य देखिए कि जब राम की नहछू रस्म निभाई जा रही है तो वहां उपस्थित स्त्रियां यह गीत गाती हैं-
काहे राम जिउ सांवर लछिमन गोर हो
की दहु रानी कौउसिलहीं परिगा भोर हो।
राम अहहिं दशरथ के लछिमन आनि क हो
भरत सत्रुहन भई सिरी रघुनाथ क हो।।
अर्थात् स्त्रियां गारी गाती हुई कहती हैं कि हमें यह समझ में नहीं आता है कि एक ही पिता के पुत्र होकर राम सांवले क्यों हैं और लक्ष्मण गोरे क्यों हैं? फिर शंका प्रकट करती हैं कि कहीं कौशल्या से कोई चूक तो नहीं हो गयी थी? फिर स्वयं अपनी बात पलटती हुई कहती हैं कि राम तो दशरथ के ही पुत्र हैं, शायद लक्ष्मण दूसरे के पुत्र हों। आखिर भरत और शत्रुघ्न भी तो राम के भाई हैं।

वैसे, ‘‘रामलला नहछू’’ के कुछ पदों को पढना भी अपने आप में ज्ञान के उस द्वार को खोल देता है जहां तुलसीदास का लघु किन्तु एक महत्वपूर्ण सृजन दिखाई देता है-
आदि सारदा गनपति गौरि मनाइय हो।
रामलला कर नहछू गाइ सुनाइय हो।।
जेहि गाये सिधि होय परम निधि पाइय हो।
कोटि जनम कर पातक दूरि सो जाइय हो ।। 01।।
कोटिन्ह बाजन बाजहिं दसरथ के गृह हो ।
देवलोक सब देखहिं आनँद अति हिय हो।।
नगर सोहावन लागत बरनि न जातै हो।
कौसल्या के हर्ष न हृदय समातै हो ।। 02।।
आले हि बाँस के माँड़व मनिगन पूरन हो।
मोतिन्ह झालरि लागि चहूँ दिसि झूलन हो।।
गंगाजल कर कलस तौ तुरित मँगाइय हो।
जुवतिन्ह मंगल गाइ राम अन्हवाइय हो।। 03।।
गजमुकुता हीरामनि चैक पुराइय हो।
देइ सुअरघ राम कहँ लेइ बैठाइय हो।।
कनकखंभ चहुँ ओर मध्य सिंहासन हो।
मानिकदीप बराय बैठि तेहि आसन हो।। 04।।
बनि बनि आवति नारि जानि गृह मायन हो।
बिहँसत आउ लोहारिनि हाथ बरायन हो।।
अहिरिनि हाथ दहेड़ि सगुन लेइ आवइ हो।
उनरत जोबनु देखि नृपति मन भावइ हो।। 05।।
रूपसलोनि तँबोलिनि बीरा हाथहि हो।
जाकी ओर बिलोकहि मन तेहि साथहि हो।।
दरजिनि गोरे गात लिहे कर जोरा हो।
केसरि परम लगाइ सुगंधन बोरा हो।। 06 ।।
मोचिनि बदन-सकोचिनि हीरा माँगन हो।
पनहि लिहे कर सोभित सुंदर आँगन हो।।
बतिया कै सुधरि मलिनिया सुंदर गातहि हो।
कनक रतनमनि मौरा लिहे मुसुकातहि हो।। 07।।
गोस्वामी तुलसीदास ने ‘‘रामलला नहछू’’ के अपने पदों में लोकाचार और उससे जुड़ी भावनाओं को जीवंत कर दिया है। कुछ और पद देखिए-
भरि गाड़ी निवछावरि नाऊ लेइ आवइ हो।
परिजन करहिं निहाल असीसत आवइ हो।।
तापर करहिं सुमौज बहुत दुख खोवहिँ हो।
होइ सुखी सब लोग अधिक सुख सोवहिं हो ।। 17।।
गावहिं सब रनिवास देहिं प्रभु गारी हो।
रामलला सकुचाहिं देखि महतारी हो।।
हिलिमिलि करत सवाँग सभा रसकेलि हो।
नाउनि मन हरषाइ सुगंधन मेलि हो ।। 18।।
दूलह कै महतारि देखि मन हरषइ हो।
कोटिन्ह दीन्हेउ दान मेघ जनु बरखइ हो।।
रामलला कर नहछू अति सुख गाइय हो।
जेहि गाये सिधि होइ परम निधि पाइय हो ।।19।।
दसरथ राउ सिंहसान बैठि बिराजहिं हो।
तुलसिदास बलि जाहि देखि रघुराजहि हो।।
जे यह नहछू गावैं गाइ सुनावइँ हो।
ऋद्धि सिद्धि कल्यान मुक्ति नर पावइँ हो ।। 20।।
जो पग नाउनि  धोव  राम धोवावइं हो।
सो पगधूरि सिद्ध मुनि दरसन पावइं हो।।
रामलला कर नहछू इहि सुख गाइय हो।
जेहि गाए सिधि होइ परम पद पाइय हो।। 21।।
‘‘रामलला नहछू’’ में भले ही एक रस्म का वर्णन है किन्तु उसमें लोक का सुख, लोक की प्रसन्नता, लोक का व्यवहार, लोक भाषा, लोक संगीत, लोकछंद, लोक स्वर, लोक की उत्सवधर्मिता तथा लोक का परस्पर आपसी सद्भाव आदि सभी कुछ निहित है। यह कृति गोस्वामी तुलसीदास को ‘‘रामचरित मानस’’ से परे भी एक उत्कृष्ट रचनाकार स्थापित करती है। यह कृति आकार में छोटी होते हुए भी लोक का महाकाव्य रचती है।
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