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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, August 15, 2023

लेख | याद रखें उन चुनौतियों को जो मिली थीं आजादी के तुरंत बाद | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

🇮🇳 "आचरण" में आज प्रकाशित मेरा लेख...

" याद रखें उन चुनौतियों को जो मिली थीं आजादी के तुरंत बाद "
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह

         दो सौ वर्ष की दीर्घ गुलामी के बाद सन् 1947 में देश ने स्वतंत्रता प्राप्त की। इस स्वतंत्रता को पाने के लिए अनेक सतरों पर संर्घर्ष किए गए। किसी ने सशस्त्र विरोध का रास्ता अपनाया तो किसी ने निःशस्त्र विरोध किया तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन का रास्ता अपनाया। ये सभी रास्ते देश को स्वतंत्रता दिलाने के लक्ष्य की ओर जाते थे। जहां भगत सिंह, गुरुदेव, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने प्राणों की बलि दे कर आजादी का मार्ग प्रशस्त किया वहीं महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय जैसे देशभक्तों ने अहिंसा, अनशन तथा लेखन का रास्ता अपनाया। किन्तु ब्रिटिश सरकार ‘‘जिस फूट डालो और राज करो’’ के सिद्धांत पर दो सौ साल भारत पर राज करती रही, उसी सिद्धांत को अप्रत्यक्ष रूप से अपनाते हुए जाते-जाते अखंड भारत को दो टुकड़ों में विभक्त कर गई। भारत का एक हिस्सा पाकिस्तान के रूप में अलग राष्ट्र बन गया। सबसे दुख का विषय यह है कि यह विभाजन रक्त की नदियां बहा गया। यदि विभाजन के समय की तस्वीरें देखें तो उस समय की दशा पल भर में समझ में आ जाती है। मानव जीवन का मानो को मोल नहीं रह गया था। हजारों बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हो गए और हजारों नागरिक मारे गए। ऐसे कठिन दौर से गुज़र कर देश ने स्वतंत्रता की सांस ली। लेकिन इस स्वतंत्रता की सांस के साथ अनंक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी थीं। यहां उन विस्तृत चुनौतियों के बारे में संक्षेप में चर्चा की जा रही है।
राज्यों का विलय - 
जिस समय देश आजाद हुआ उस समय देश में 565 छोटी-बड़ी रियासतें मौजूद थीं। इन रियासतों के राजा अपनी स्वतंत्र सत्ता चाहते थे जबकि जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व में गठित देश की प्रथम सरकार चाहती थी कि रियासतें समाप्त कर दी जाएं और सभी एक देश के नागरिक की तरह मिल कर रहें। एक देश और एक राष्ट्रध्वज रहे। किन्तु रियासतों के राजा अपना अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं थे। तो सबसे पहले त्रावणकोर के राजा ने अपने राज्य को स्वतंत्र रखने की घोषणा कर दी। उसके बाद फिर हैदराबाद, जूनागढ़, मणिपुर और भी काफी सारी रियासतों ने आजाद रहने की घोषणा कर दी। इससे देश की अखंडता के लिए संकट पैदा हो गया। तब ‘‘लौह पुरुष’’ कहलाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल को यह दायित्व सौंपा गया कि वे रियासतों का विलय कराएं। दृढ़निश्चयी सरदार वल्लभ भाई पटेल ने रियासतों के विलय का अभियान छेड़ दिया। अनेक कठिनाइयों के बाद रियासतों का विलय हो सका। किन्तु कश्मीर ऐसी रियासत थी जिसने विलय की बात इस शर्त पर मानना मंजूर किया कि उसका अपना ध्वज रहेगा और उसका अपना शासन रहेगा। कश्मीर की भौगोलिक स्थिति अतिसंवेदनशील थी। उस पर अधिक दबाव डालने से वह पाकिस्तान के पक्ष में जा सकता था अतः तात्कालिक रूप से उसकी शर्त मान ली गई। धारा 370 के अंतर्गत उसे विशेष राज्य का दर्जा दिया गया। आगे चल कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस बात का विरोध किया। उन्होंने इस बात का भी विरोध किया कि कश्मीर में दो ध्वज नहीं फहराए जाने चाहिए। अर्थात वहां भी सिर्फ़ तिरंगा फहराया जाए, कश्मीर रियासत का ध्वज नहीं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी। अंततः सभी रियासतें भारत का अखंड हिस्सा बन गईं और देश एक सुदृढ़ राष्ट्र बनने की राह पर आगे बढ़ने लगा।

संविधान निर्माण - 
एक स्वतंत्र देश का अपना संविधान होना आवश्यक था। संविधान निर्माण भी एक चुनौती बन कर नवोदित देश के सामने खड़ा था। यद्यपि संविधान की संरचना स्वतंत्रतापूर्व ही तैयार कर ली गई थी। इसकी प्रथम बैठक भी स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व हुई थी। 6 दिसम्बर 1946 केा संविधान सभा की स्थापना हुई। 9 दिसम्बर 1946 संविधान सभागृह (संसद भवन सेंट्रल हॉल) में संविधान सभा की पहली बैठक हुई। संविधान सभा को संबोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति जे.बी. कृपलानी थे। इसकी अध्यक्षता सच्चिदानन्द सिन्हा ने की। स्वतन्त्र देश की मांग करते हुए मुस्लिम लीग ने बैठक का बहिष्कार किया। 11 दिसम्बर 1946 राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष, हरेंद्र कुमार मुखर्जी उपाध्यक्ष निर्वाचित। 22 जुलाई 1947 संविधान सभा ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार किया। 15 अगस्त 1947 भारत को स्वतन्त्रता मिली। भारत से अलग होकर पाकिस्तान नामक देश बना। 29 अगस्त 1947 संविधान मसौदा समिति बनी, जिसके अध्यक्ष डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर बनाए गए। 26 नवम्बर 1949 संविधान सभा ने भारतीय संविधान को स्वीकार किया और उसके कुछ धाराओं को लागू भी किया गया। 24 जनवरी 1950 संविधान सभा की बैठक हुई जिसमें संविधान पर सभी ने अपने हस्ताक्षर करके उसे मान्यता दी। 26 जनवरी 1950 सम्पूर्ण भारतीय संविधान लागू हुआ।

आर्थिक दशा - 
भारतीय अर्थव्यवस्था स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अल्पविकसित अर्थव्यवस्था थी। इसमें प्रतिव्यक्ति आय तथा औद्योगिक विकास का स्तर निम्न था । कृषि पर अधिक निर्भरता थी तथा आधारभूत संरचना बहुत पिछड़ी हुई अवस्था में थी। आयातों पर अधिक निर्भरता थी तथा गरीबी, बेरोजगारी व निरक्षरता जैसी सामाजिक चुनौतियाँ भारत में विद्यमान थीं। देश के विभाजन ने उद्योग-धंधों को गहरी चोट पहुंचाई थी। ऐसी स्थिति में कुटीर उद्योगों के साथ बड़े उद्योगों की भी आवश्कता थी। उस कठिन दौर में जमशेदजी टाटा जैसे उद्योगपति सामने आए और उन्होंने बड़े उद्योगों के द्वारा देश को आर्थिक विकास की दिशा दी। बड़े-बड़े बांध बनाए गए जिससे सिंचाई की सुनिश्चित व्यवस्था हो सके। सरकार ने पंचवर्षीय योजना के आर्थिक माॅडल को अपनाया जिससे देश को आर्थि रूप से आत्मनिर्भर बनने में सहायता मिली।

साम्प्रदायिक सद्भाव - 
अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक वैमन्स्यता की की जो फसल बोयी थी उसे स्वंतत्र भारत को अपने आरंभिक वर्षों में बड़े पैमान पर झेलनी पड़ी। साम्प्रदायिक दंगे देश की शांति के लिए खतरा थे। एक बार फिर आपसी भाईचारे एवं अपनत्व को मजबूत करने की जरूरत थी। देश के बंटवारे ने एक और साम्प्रदायिक विडम्बना खड़ी कर दी थी। पाकिसतान देश के रूप में पश्चिमी पाकिस्तान था जबकि पूर्वी पाकिस्तान भारत को पार कर के बंगाल की खाड़ी की ओर था। पूर्वी पाकिस्तान के निवासी भी स्वयं को अलग देश के रूप में आकार देना चाहते थे। भारत की सुरक्षा भी इसी में निहित थी कि पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान से आजाद होने दिया जाए। इसीलिए जब 1972 में पूर्वी पाकिस्तान ने बांग्लादेश के रूप में अपना देश बनाने के लिए युद्ध किया, जिसमें भारत ने बांग्लादेश का समर्थन किया। बांग्लादेश नया देश बन गया। इससे साम्प्रदायिक दंगों में भी कमी आई और धीरे-धीरे देश में शांति और स्थिरता आने लगी।    

सामाजिक दशा - 
जिस समय देश आजाद हुआ उस समय समाज में अनेक कुरीतियां व्याप्त थीं। दासी प्रथा, बाल विवाह, अस्पृश्यता आदि कुरीतियां समाप्त नहीं हुई थीं। समाज के चहुंमुखी विकास के लिए आवश्यक था कि इन सामाजिक बुराइयों को समाप्त किया जाए। स्त्रियों में अशिक्षा का बोलबाला था। उनके कानूनी अधिकारी सीमित थे। इसीलिए डाॅ अंबेडकर ने हिन्दूकोड बिल प्रस्तावित किया। दासी प्रथा समाप्त करने के लिए बनाई गई कमेटी में डाॅ. हरीसिंह गौर भी शामिल थे। दलित वर्ग तथा अल्पसंख्यकों की दशा सुधारने के लिएमहत्वपूर्ण कदम उठाए गए। समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए कुछ कानून पेश किए। जैसे सभी लड़कियों के लिए स्कूली शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया तथा दण्ड का प्रावधान निर्धारित किया गया।  
शरणार्थियों को स्थाईत्व - विभाजन के बाद नवोदित भारत के समक्ष शरणार्थियों को बसाने और उन्हें रोजगार देने की बहुत बडी चुनौती थी। देश के अन्य नागरिकों के साथ उन्हें सम्मानजनक जीवन देना तथा आर्थिक सहायता देना आवश्यक था। इसके लिए एक बड़ी पूंजी की आवश्यकता थी। क्योंकि अनेक शराणार्थी अपना सब कुछ छोड़ कर जैसे-तैसे जान बचा कर भारत आए थे। उनके पास किसी भी प्रकार का धंधा शुरू करने के लिए पैसा नहीं था। अतः नवोदित सरकार ने स्ािाई शरणार्थी शिविर बनाए जहां उन्हें बसाया गया। उनके बच्चों के लिए सकूल खोले गए और उन्हें रोजगार के अवसर प्रदान किए गए।

पड़ोसी देशों से सद्भाव एवं सुरक्षा -
 पाकिस्तान एक पड़ोसी देश का रूप ले चुका था। वह अधिक से अधिक भारतीय भूमि हथिया लेना चाहता था। उसने कश्मीर पर अपना दावा किया। बात अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनाईटेड नेशन्स तक पहुंची किन्तु यूनाईटेड नेशन्स ने भारत का साथ देते हुए कश्मीर के मामले में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया। पाकिस्तान शांति से बैठने वालों में से नहीं था। दूसरा अवसरवादी पड़ोसी चीन था जो संकट बन कर उभरा। भारत-चीन मैत्री का नारा लगाते हुए वह आक्रमणकारी बन बैठा। 29 अप्रैल 1954 को पंचशील समझौते हस्ताक्षर हुए थे। ये समझौता चीन के क्षेत्र तिब्बत और भारत के बीच व्यापार और आपसी संबंधों को लेकर ये समझौता हुआ था। लेकिन चीन ने उस समझौते को भुला कर भारतीय भू-भाग पर हमला कर दिया। चीनी सेना ने 20 अक्टूबर 1962 को लद्दाख में और मैकमोहन रेखा के पार एक साथ हमले शुरू कर दिए। नवोदित भारत की सामरिक स्थिति चीन के सामने अत्यंत कमजोर थी, फिर भी भारतीय सेना के वीरों ने डट कर सामना किया।
  
भाषाई विविधता - 
भारत भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भाषाई विविधताओं से भरा देश है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह विविधता पहली बार एकता के सूत्र में बंधी। किन्तु सबका एकसूत्र होना आसान नहीं था। सबसे अधिक आड़े आया भाषाई विवाद। राष्ट्र के मुद्दे पर एकमत नहीं बन सका। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाए जाने के प्रस्ताव का दक्षिण भारत की ओर से कड़ा विरोध किया गया। परिणामस्वरूप विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा। फिर भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया जिससे शांति की स्थापना संभव हो सकी। जब विविधता अधिक हो तो थोड़ी-बहुत टकराहट होना स्वाभाविक है किन्तु विविधता धीरे-धीरे एकता के सौंदर्य में ढलती चली गई। इसी विविधता ने विश्व के समक्ष भारत को एक विशिष्ट देश का स्वरूप दिया।

विश्व के समक्ष एक सुदृढ़ देश - 
नवोदित भारत के समक्ष आंतरिक चुनौतियों के साथ ही बाह्य अर्थात वैश्विक चुनौतियां भी थीं। उसे एक सुदृढ़ देश के रूप में विश्वपटल पर स्वयं को स्थापित करना था। उस समय विश्व राजनीतिक एवं आर्थिक विचारों की दृष्टि से दो ध्रुवों में बंट चुका था- एक था सोवियत संघ का समाजवाद और दूसरा अमेरिका का पूंजीवाद। भारत को दोनों के बीच संतुलन बना कर चलना था। तत्कालीन परिस्थितियों में सोवियत संघ के साथ भारत की मित्रता हुई और दोनों ने पारस्परिक आर्थिक तथा सामरिक सहयोग किया। जिससे अमेरिका एशिया में अपने सैनिक अड्डे अधिक संख्या में स्थापित नहीं कर सका। इससे विश्व में सामरिक संतुलन बना रहा। इसी के साथ भारत की विदेश नीति ने उसे विश्व पटल पर एक मजबूत राष्ट्र के रूप में स्थापित कर दिया।

इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता के बाद नवोदित भारत ने अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए स्वयं को न केवल स्थापित किया बल्कि आर्थिक, सामाजिक, एवं सामरिक दृष्टि से निरंतर विकास करता गया। विभाजन के रक्त की नदी से नहा कर मिली स्वतंत्रता, भाईचारे के नाम पर आक्रमण, आर्थिक एवं सामरिक निर्बलता, सामाजिक कुरीतियां आदि सभी चुनौतियों का डट कर सामना करते हुए नवोदित भारत ने स्वयं को आज ‘‘विश्व गुरु’’ के मुकाम तक पहुंचा दिया है। वस्तुतः भारत का विकट चुनौतियों से शांति एवं धैर्य के साथ डट कर किया गया संघर्ष एक आदर्श उदाहरण है पूरी दुनिया के लिए।
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