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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, October 10, 2023

पुस्तक समीक्षा | सच बयान करती किताब ‘‘तेलगी : एक रिपोर्टर की डायरी’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 10.10.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई बहुचर्चित लेखक संजय सिंह की पुस्तक "तेलगी : एक रिपोर्टर की डायरी" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा      
सच बयान करती किताब ‘‘तेलगी : एक रिपोर्टर की डायरी’’ 
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - तेलगी : एक रिपोर्टर की डायरी
लेखक  - संजय सिंह
प्रकाशक- हाॅर्परकाॅलिंस पब्लिशर्स इंडिया
मूल्य       - 299/-
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‘‘स्कैम’’ अथवा ‘‘घोटाला’’ कहने, बोलने, पढ़ने में भले ही एक छोटा-सा शब्द लगे लेकिन यह बड़ा विध्वंसक और ताकतवर शब्द है। एक घोटाला हज़ारों-लाखों जिन्दगियों को प्रभावित करता है। कभी-कभी यह आंकड़ा इससे भी बड़ा, हमारे अनुमान से भी बहुत बड़ा साबित होता है। एक अकेले आदमी के अपने दम पर खड़े किए गए घोटाले का अब तक का सबसे बड़ा उजागर मामला है ‘‘तेलगी फर्ज़ी स्टैम्प कांड’’। यह जो दूसरा शब्द है ‘स्टैम्प’’ यह भी बहुत बलशाली है। इतना बलशाली कि इससे जुड़े अनेक मुहावरों में सबसे प्रचलित मुहावरा है-‘‘कहो तो स्टैम्प पर लिख कर दे दूं!’’ स्टैम्प का अर्थ है एक विश्वास, एक भरोसा, सच की एक गारंटी। देखने में एक आयताकार काग़ज़, मगर कई बार किस्मत को बदलने की ताकत रखने वाला। हर कानूनी मामले में किसी न किसी प्रकार और भिन्न कीमत के स्टैम्प की आवश्यकता होती है। मकान, दूकान, विदेश में वर्कवीजा के लिए कार्ययोग्यता संबंधी स्टैम्प आदि-आदि। विश्वसनीयता से भरपूर एक काग़ज़ बिलकुल एक काग़ज़ की मुद्रा (रुपए) की भांति वजनदार और वैलिड। मगर यदि यही गारंटी नकली स्टैम्प पेपर पर हो तो? निःसंदेह जीवन बर्बाद होना तय है। फर्जी स्टैम्प पेपर के जरिए अनेक जीवन बर्बाद किए अब्दुल करीम तेलगी ने। यह सब कुछ और कई साल तक यूं ही चलता रहता, बर्बादियां होती रहतीं यदि एक खोजी पत्रकार संजय सिंह ने मामला प्रकाश में न लाया होता।
संजय सिंह अपनी खोजी पत्रकारिता और धमाकेदार लेखन के लिए अब चिरपरिचित नाम बन चुके हैं। हाल ही में उनकी पुस्तक ‘‘तेलगी: एक रिपोर्टर की डायरी’’ हार्परकाॅलिंस द्वारा प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक ने छप कर बाहर आते ही धूम मचा दी। यद्यपि इसका पहला संस्करण 2004 में प्रकाशित हुआ था किन्तु उस समय तक तेलगी अपने अंतिम परिणाम तक नहीं पहुंचा था। इस दूसरे संस्करण में बहुत-सी ऐसी बातें हैं, ऐसे तथ्य हैं जो प्रथम संस्करण आने तक घटित ही नहीं हुए थे। 26 अक्टूबर 2017 को तेलगी की मृत्यु के साथ ‘‘तेलगी कांड’’ का यवनिका पतन माना जा सकता है। इसके बाद लेखक संजय सिंह ने इस दूसरे संस्करण की आवश्यकता का अनुभव किया। गोया वे अधूरी छूटी कहानी को उसके अंजाम तक पहुंचाना चाहते थे। संजय सिंह की इस पुस्तक पर समीक्षात्मक चर्चा करने से पहले दो बातें साझा करना जरूरी लग रहा है। एक तो लेखक का संक्षिप्त परिचय, नए पाठकों के लिए और दूसरी एक दिलचस्प घटना।

संजय सिंह विगत लगभग 28 वर्ष से खोजी पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। वे एक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं। उनकी पत्रकारिता की शुरुआत ही टीवी चैनल से हुई। ज़ी न्यूज़, एनडीटीवी, टाईम्स नाऊ, आईबीएन, न्यूज़एक्स जैसे चैनल्स पर विभिन्न पदों पर काम कर चुके संजय सिंह मुंबई यूनीवर्सिटी से पीएचडी तथा लाॅ ग्रेजुएट हैं। कई शैक्षणिक संस्थाओं से बतौर एकेडमीशियन भी जुड़े हुए हैं। उनकी इन सारी खूबियों पर भारी पड़ती है उनकी खोजी प्रवृत्ति। उनकी तीनों किताबें लोमहर्षक तथ्यों से भरी हुई हैं। जिनको पढ़ना चौंकाता है, डराता है, क्रोधित करता है और लेखक के दुस्साहस के प्रति स्तब्ध कर देता है। आज जब लोग छोटे-छोटे, निहायत मामूली मामलों में भी हाथ डालने में डरते हैं, तब संजय सिंह अपने विश्वस्त सूत्रों के सहारे अपराधियों, राजनेताओं एवं पुलिस प्रशासन से लोहा लेने को कमर कसे खड़े दिखाई देते हैं, बिना अपनी परवाह किए। दरअसल सच्ची पत्रकारिता यही तो सिखाती है, यही मांग करती है। दुर्भाग्यवश पत्रकारिता से यह ‘‘डेयरिंगनेस’’ तेजी से घटती जा रही है। इस संबंध में लेखक ने स्वयं अपनी पुस्तक में कई स्थानों पर चिंता व्यक्त की है। वे चिंतित दिखे हैं हिन्दी पत्रकारिता पर अंग्रेजी पत्रकारिता को हावी होते देख कर। एक वरिष्ठ पत्रकार की ये चिन्ताएं स्वाभाविक हैं।
अब बात करने जा रही हूं एक दिलचस्प घटना की। या कहिए एक रोचक संयोग की। ‘‘तेलगी: एक रिपोर्टर की डायरी’’ पुस्तक मुझे मिलने के ठीक दो दिन बाद की घटना है। उस समय तक मैंने पुस्तक को पढ़ना शुरू नहीं किया था। मैं इससे पूर्व संजय सिंह की दो पुस्तकें ‘‘सी.आई.यू.: क्रिमिनल इन यूनीफार्म’’ तथा ‘‘एक थी शीना बोरा’’ पढ़ चुकी हूं और अपने इसी समीक्षा काॅलम में उन पर क्रमशः लिख भी चुकी हूं। मुझे मालूम था संजय सिंह की लेखनी ‘‘तेलगी: एक रिपोर्टर की डायरी’’ को भी एक बैठक में पढ़ने को विवश कर देगी और उस समय एक बैठक में पढ़ लाने लायक समय मेरे पास नहीं था। अतः मैंने पुस्तक को पढ़ना शुरू नहीं किया था। कूरियर से पुस्तक मिलने के दो दिन बाद स्थानीय लेखिका श्रीमती सुनीला सराफ के घर मेरा जाना हुआ। एक-दो बातों के बाद ही उन्होंने उत्साहित स्वर में मुझ बताया कि इन दिनों वे ‘‘सोनी लिव’’ पर ‘‘स्कैम 2003 दी तेलगी स्टोरी’’ देख रही हैं। ‘‘ग़ज़ब का सीरियल है। यकीन नहीं होता कि एक फल बेचने वाला एक दिन करोड़ों का घोटाला कर सकता है।’’ उनकी यह टिप्पणी सुन कर मैं मन ही मन मुस्कुरा दी। फिर मैंने बेचैनी महसूस की कि मैंने अभी तक उस पुस्तक को पढ़ने का समय नहीं निकाल पाया है। वैसे सुनीला सराफ की यह प्रतिक्रिया लेखक के कौशल पर मुहर लगा रही थी। वे संजय सिंह को नहीं जानती हैं लेकिन उनके काम से प्रभावित दिखीं। यह एक लेखक के लेखन को रेखांकित करने वाली घटना थी।

अब चर्चा पुस्तक पर। यह पुस्तक ‘‘तेलगी फर्जी स्टैम्प घोटाले’’ के कई स्तरों की जांच करती है तथा कई पर्तों को खोल कर सामने रखती है। शब्द-दर-शब्द सच्ची घटनाओं के साथ खांटी सच्ची पुस्तक। सच की छानबीन करने, सच को टीवी के पर्दे के माध्यम से आमजन तक पहुंचाने के प्रशंसनीय कार्य के बदले इस पुस्तक के खोजी पत्रकार लेखक को प्राणों के संकट का आतंक भी झेलना। यह व्यवस्था में रच-बस चुकी सड़ांध से सामना कराती है। इस पुस्तक में तेलगी के एक अति मामूली एवं विपन्नता से भरे जीवन से उठ कर ‘‘स्कैम किंग’’ बनने की कथा है। कर्नाटक के तेलगी गांव के मिरज क्षेत्र में 16 अगस्त 1959 को अब्दुल करीम का जन्म हुआ। पिता का नाम था लाड़साहब। इसलिए उसका पूरा नाम पड़ा अब्दुल करीम लाड़साहब तेलगी। उसके दो भाई और थे। जल्दी ही हपता की मृत्यु हो गई और गरीबी का कहर उन पर टूट पड़ा। लेकिन अब्दुल करीम ने हार नहीं मानी। उसने रेलवे स्टेशन पर मौसमी फल बेचने के साथ ही कई छोटे-मोटे काम किए और अपनी पढ़ाई जारी रखी। ऐसे संघर्षशील, प्रतिभावान लड़के को एक अच्छा जीवन मिलना चाहिए था किन्तु ऐसा नहीं हुआ। उसकी विपरीत परिस्थितियों ने उसे गलत राह पर मोड़ दिया। वह किस्मत आजमाने दुबई गया। कुछ ही अरसे में वहां से वापस आ गया। किन्तु उसकी इस यात्रा ने उसे जाने-अनजाने वह राह दिखा दी थी जहां से उसे ‘‘स्कैम किंग’’ बनने की दिशा में बढ़ना था। अब्दुल करीम से वह ‘‘लाला करीम’’ और ‘‘सेठ करीम’’ बनता गया।

लेखक संजय सिंह की यह विशेषता है कि जब वे किसी तथ्य को सामने रखते हैं तो उसके सभी पक्षों के साथ। इस किताब में भी वे तेलगी के अपराध को सामने लाते हैं लेकिन इसके साथ ही वे उस पूरे तंत्र का रेशा-रेशा सामने रख देते हैं जिसने तेलगी को ‘‘स्कैम किंग’’ बनने का मौका दिया। लेखक ने गहरी छानबीन कर के जाना कि तेलगी को स्टैम्प पेपर छापने की असली मशीनें कहां से और कैसे मिलीं। इतना बड़ा घोटाला हो रहा हो और पुलिस को उनकी भनक तक न लगे, भला यह कैसे संभव है। लगभग हर विभाग की भांति पुलिस विभाग में भी भ्रष्टाचारी मौजूद हैं। राजनेताओं के वरदहस्त भी पाए जाते हैं। अतः जब ऐसे किसी बड़े घोटाले पर से पर्दा उठता है तो स्नानघर का वह दृश्य दिखाई देता है जिसमें पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी से ले कर स्वनामधन्य बड़े-बड़े नेता तक निर्वस्त्र खड़े दिखाई देते हैं। तेलगी के फर्जी स्टैम्प घोटाले की लपटें जब फायरप्लेस से बाहर निकलीं तो उसकी आंच में छगन भुजबल और शरद पंवार तक के चेहरे की झलक दिखाई दी। पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर से ले कर एडीजीपी तक जांच के घेरे में आ गए।
जिस समय संजय सिंह ने तेलगी मामले की छानबीन शुरू की थी उस समय तक वे स्टार न्यूज़ के बाद एनडीटीवी में अपनी नई पारी खेलने को तैयार हो चुके थे। एनडीटीवी की ओपनिंग में उन्होंने तेलगी घोटाले के खुलासे का धमाकेदार उपहार अपने चैनल को दिया। उस समय दिल्ली में राजदीप सरदेसाई एनडीटीवी के मैनेजिंग एडीटर थे। जबकि मुंबई में हिंदी के ओपनिंग कर्ताधर्ता थे अभिज्ञान प्रकाश तथा अंग्रेजी के श्रीनिवासन जैन। दिल्ली में बैठे दिबांग के हाथों थी इंट्रोडक्टरी ओपनिंग। धमाका होना था और हुआ। ‘‘एक्सक्लूसिव’’ रिपोर्ट के टेलीकास्ट होते ही पत्रकार लेखक संजय सिंह के लिए अनुभवों के नए द्वार खुलते चले गए जिनमें बधाइयां, प्रशंसा, गालियां, धमकियां आदि सभी कुछ थे। वह समय भी आया जब इस खोजी पत्रकार को अपने और अपने परिवार की सुरक्षा को ले कर चिंता हुई, लेकिन यह चिंता अपराधियों को सामने लाने की दृढ़ भावना के सामने अधिक देर नहीं ठहरी। इस पुस्तक में अनेक घटनाएं हैं, अनेक संवाद हैं और अनेक पात्र हैं। ये सभी कुछ यथार्थ होने के कारण पाठक को सोचने पर विवश करती है कि क्या राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक व्यवस्थाएं इतनी अधिक दूषित हो चुकी हैं कि अब सड़ांध मारने लगी है? इस प्रश्न का उत्तर मौजूद है इसी पुस्तक में।

विगत कुछ वर्षों में हिन्दी गद्य साहित्य में कई नूतन विषयों का समावेश किया गया। यहां तक कि भूत-प्रेत के कथानक वाले उपन्यास भी लिख डाले गए, लेकिन एक आम पाठक को सच हमेशा लुभाता है। इसका उदाहरण टीवी के पर्दे पर ही देखा जा सकता है। जब किसी कार्यक्रम में एंकर चींख-चींख कर प्रस्तुति देता है तो उसे निरंतर देखने वाला दो दिन में ही झुंझला उठता है और दूसरे चैनल की ओर बढ़ जाता है। कई टीवी चैनल ऐसे हैं जो प्राईम टाईम में डरावनी हवेली, भुतहा किले या फिर शापित गांव के किस्से सुना कर टीआरपी बटोरने की कोशिश करते हैं, मगर जल्दी ही पिछड़ते चले जाते हैं। यही स्थिति साहित्य के क्षेत्र में भी है। आज का यथार्थवादी पाठक इंटरनेट के कारण सूचनाओं से भरा बैठा है। उसे अब वही कथानक लुभाते हैं जिनमें सच्चाई हो अथवा सच्ची तार्किकता हो। संजय सिंह की इस पुस्तक ‘‘तेलगी: एक रिपोर्टर की डायरी’’ अपने आप में एक फुल पैकेज की तरह है। इसमें तथ्यात्मक सच है, जासूसी उपन्यास-सा रोमांच है, नायक का जुझारूपन है और कथात्मक प्रवाह है। यह स्पष्ट महसूस किया जा सकता है कि संवाद रखने में लेखक पूरी सावधानी बरतते हैं। वे संवाद और शब्दों का चयन पात्र के अनुरूप करते हैं। जहां अति आवश्यक है वहां कुछ ऐसे शब्द भी शामिल किए गए हैं जिन पर कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है किन्तु यदि उसे बोलने वाले की परिस्थिति तथा चरित्र को देखें तो यह कोई गंभीर बात नहीं लगती है। लेखक कोई उपन्यास लिखने या साहित्य रचने का दावा कर भी नहीं रहा है, वह तो केवल सच से साक्षात्कार कराने के लिए कटिबद्ध दिखाई देता है। एक ऐसा सच जो हर ओर से कुरूप है। एक अच्छी बात यह है कि लेखक ने कहीं भी अपराधी तेलगी को उसकी परिस्थितियों के आधार पर ग्लोरीफाई नहीं किया है। अपराध हरहाल में अपराध होता है के सिद्धांत पर लेखक ने अपनी भावनाएं एवं कलम दृढ़ता से टिकाए रखी है। साथ ही टीवी पत्रकारिता की गलाकाट स्पद्र्धा को भी सामने रखा है दोस्तों और सहयोगियों में भी प्रतिद्वंदिता के भाव पैदा कर देती है। यह अच्छा भी है और बुरा भी।

अपनी इस पुस्तक में संजय सिंह ने जहां घोटाले को बेनकाब किया है तथा बेनकाब करने की अपनी पूरी प्रक्रिया से परिचित कराया है वहीं जगह-जगह पर क्षोभ व्यक्त किया है टीवी पत्रकारिता के गिरते स्तर पर। वे जहां पुलिस और राजनेताओं के असली चेहरे सामने लाते हैं वहीं वर्तमान इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता के दाग़-धब्बों को भी आईना दिखाते हैं। वे इस बात को सहजता से स्वीकार करते हैं कि डर उन्हें भी लगता है। वे देश का अब तक का उजागर सबसे बड़ा घोटाला करने वाले के मनोविज्ञान को भी सामने रखते हैं कि किस प्रकार एक अपराधी अपने अंत को ताड़ जाता है। यानी हर दृष्टि से यह किताब पढ़े जाने योग्य है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह हर वर्ग के पाठक को पसंद आएगी। आखिर सच सब जानना चाहते हैं। इस बात में आश्चर्य नहीं होगा कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठक प्रतीक्षारत हो जाएं कि अब संजय सिंह की अगली धमाकेदार पुस्तक कौन-सी और कब आने वाली है? यह एक खोजी पत्रकारिता का सुपरिणाम तो है ही साथ ही लेखक की लेखकीय प्रतिभा का कमाल भी है।     
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1 comment:

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