"दैनिक नयादौर" में मेरा कॉलम ...
शून्यकाल
सागर संभाग की प्रथम मनोनीत महिला सांसद
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
सागर संभाग इस बात पर गर्व कर सकता है कि यहां स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, आरम्भिक दशकों में महिला नेतृत्व प्रखरता छाया रहा। मतदान द्वारा निर्वाचित सागर की प्रथम महिला सांसद श्रीमती सहोदरा बाई राय थीं तो उनके भी पूर्व सागर की प्रथम मनोनीत सांसद बनी थीं श्रीमती कलावती दीक्षित। वर्तमान में सक्रिय राजनीति में महिला नेतृत्व को जिस तरह हाशिए पर पहुंचाया जा रहा है, वह अतीत के गौरव को देखते हुए चौंकाता है। तो चलिए उस इतिहास की ओर चलते हैं जहां सांसद कलावती दीक्षित का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज़ है।
इतिहास के जिन प्रसंगों को बार-बार याद नहीं किया जाता है वे धुंधले पड़ने लगते हैं। अतः अतीत के महत्वपूर्ण प्रसंगों पर चर्चा होती रहनी चाहिए। सागर में आज जो दशा राजनीति में महिला नेतृत्व की उपेक्षा की है उसे देखते हुए यह और अधिक आवश्यक हो जाता है कि हम पलट कर देखें कि सागर जिले के अतीत में महिलाओं के नेतृत्व पर न केवल भरोसा किया गया अपितु उन्हें सांसद के रूप में मनोनीत एवं निर्वाचित किया गया। इस बात को एक सबक के रूप में याद रखा जाना चाहिए।
आरम्भ में ही बता दूं कि श्रीमती कलावती दीक्षित जी के संबंध में यहां मैं जो जानकारी दे रही हूं वह उनके पुत्र डाॅ. विनोद दीक्षित से प्राप्त जानकारी के आधार पर है। वस्तुतः जब मैंने सांसद सहोदरा राय के संबंध में कुछ बातें तस्दीक करने के लिए वरिष्ठ साहित्यकार एवं सागर नगर के गहन जानकार प्रो. सुरेश आचार्य जी से संपर्क किया तो उन्होंने मुझे कलावती दीक्षित जी के बारे में जानकारी दी, साथ ही उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं उनके पुत्र डाॅ. विनोद दीक्षित जो डाॅ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हैं, उनसे इस संबंध में चर्चा करूं। मिलनसार स्वभाव के डाॅ. विनोद दीक्षित जी से मेरी फोन पर वार्ता हुई। उन्होंने वाचिक रूप में बहुत-सी जानकारियां दीं। तदोपरांत उन्होंने लिखित में भी मुझे जानकारी व्हाट्सअप की। डाॅ. दीक्षित के इस सहयोग के लिए मैं उनकी आभारी हूं।
श्रीमति कलावती दीक्षित का जन्म कानपुर (उप्र) जिले के ग्राम पाल्हेपुर के एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में 27 मई 1920 को हुआ था। अपने पिता शिवदत्त त्रिवेदी की छः संतानों में वे सबसे बड़ी थीं। पिता कानपुर के एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान में कार्य करते थे। उन्होंने गांव की खेती एवं पारंपरिक पडिताई को अपने बड़े भाई को सौंप कर कानपुर की राह पकड़ी थी ताकि वहां रहकर बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाई जा सके। कलावती दीक्षित की प्रारंभिक शिक्षा कानपुर के आर्य कन्या महाविद्यालय में हुई जहां से 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। किन्तु उन दिनों के चलन के अनुरुप छोटी आयु में ही उनका विवाह सागर निवासी चन्द्रशेखर दीक्षित के साथ कर दिया गया। चन्द्रशेखर दीक्षित उस समय होम्योपेथिक चिकित्सा में आध्ययनरत थे।
यद्यपि ससुराल में पति एवं अन्य पुरुष सदस्य शिक्षित थे किंतु महिलाओं की शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। श्रीमती दीक्षित की अध्यययन में रुचि थी एवं उच्च शिक्षा के लिये गहरा आकर्षण। यह अच्छा था कि उनके पति डाॅ. चन्द्रशेखर दीक्षित आधुनिक विचारधारा के थे, अतः उनका प्रोत्साहन, समर्थन एवं सहयोग श्रीमती दीक्षित को मिला। आरंभ में घर पर पढ़ाई कर उन्होंने छुपकर मायके से परीक्षाएं दीं, पर कालांतर में उनकी लगन देखकर ससुराल में उनकी पढ़ाई के लिये विरोध समाप्त हो गया। इसके बाद उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। फिर विदुषी (आनर्स), साहित्य रत्न रवं आयुर्वेद रत्न की उपाधियां अर्जित कीं। ‘आयुर्वेद रत्न’ की उपाधि के पश्चात के पति के साथ ही चिकित्सा कार्य करने लगीं। अल्पकाल के लिए उन्होंने झांसी में आयुर्वेदिक महाविद्यालय के प्राचार्य का पद भी संभाला।
पति की समसामयिक राजनीति में रुचि, विचारों एवं प्रोत्साहन ने कलावती दीक्षित की सामाजिक विषयों में जागरूकता बढ़ाई। कुछ करने की तड़प ने उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन की ओर आकर्षित किया और कांग्रेस की गतिविधियों में सक्रिय किया। सन 1940 से कलावती दीक्षित ने कांग्रेस की कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू की। इस कार्य के लिये उन्होंने रामायण मंडलियों के रूप में महिलाओं का संगठन तैयार करना, आंदोलन में जागरूकता लाने के लिए भाषण देना, चर्चा करना एवं वातावरण बनाना शुरू किया। सन 1942 के महात्मा गांधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उनकी सक्रियता ने उन्हें एक कर्मठ कार्यकर्ता की पहचान दिलाई। महिलाओं एवं बच्चों को एकत्र कर जुलूस निकालना, धरना एवं नुक्कड़ सभाओं में भाषण देना उनके कार्य थे। उन्होंने लगभग 600 महिलाओं का जुलूस निकाल कर गिरफ्तारी दी। गिरफ्तारी के बाद पुलिस प्रशासन ने उन पर केस नहीं चलाया, किन्तु नगर से कई मील दूर छोड़ कर परेशान किया। 1942 का आंदोलन उग्र हुआ तो कलावती दीक्षित की गिरफ्तारी का वारंट निकला। तब वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें निर्देशित किया कि वे गिरफ्तारी से बचें एवं भूमिगत गुप्त कार्यकर्ता के रूप में अपनी गतिविधियां जारी रखें।
उन्हें आंदोलन के प्रचार-प्रसार के लिये बुलेटिन के प्रकाशन, प्रिंटिंग एवं वितरण का कार्य सौंपा गया। पुलिस की आंख बचाकर नए-नए ठिकानों पर बुलेटिन छापने की मशीन ले जाती थीं जिससे कि पुलिस मशीन एवं प्रचार सामग्री कभी जब्त नहीं कर सकी। बुलेटिन के प्रकाशन और वितरण की जबाबदारी के कठिन और चुनौती पूर्ण कार्य को उन्होंने बड़े साहस और सुगमता से किया। वे अपनी साथी महिलाओं के सहयोग से बुलेटिन को निरंतर ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में पहुंचाती रहीं। बुलेटिन के मुद्रण प्रकाशन एवं वितरण का यह कार्य लगभग 8 महीने तक जारी रहा। आंदोलन के दौरान बंदी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिवारों तक यथायोग्य सहायता पहुंचाना, उनका मनोबल बनाये रखना तथा चिकित्सकीय एवं उपचार की व्यवस्था एवं सेवा में भी कलावती दीक्षित ने तत्परता से सहयोग किया। सन 1942 के बाद भी वे आंदोलन एवं कांग्रेस के कार्यकलापों में सक्रिय रहीं। जिले की तत्कालीन महिला नेत्री श्रीमती यमुना ठाकुर के साथ महिलाओं के दल का संचालन एवं धरना-प्रदर्शन का कार्य करती रहीं। इसके लिये उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया।
स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी कर्मठता, सक्रियता एवं उल्लेखनीय गतिशीलता में कांग्रेस में उनकी पहचान बनायी। फलस्वरूप देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने डाॅ हरीसींह गौर के निधन के से रिक्त हुए पद पर मनोनीत संसद सदस्य हेतु उनका नाम प्रस्तावित किया। प्रोवीजनल पार्लियामेंट की शेष अवधि में 1950 से 1952 के लिए मनोनयन के आधार पर वे सांसद मनोनीत हुईं। इस प्रकार उन्हें सागर की प्रथम मनोनीत महिला संसद सदस्य बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
कलावती दीक्षित आल इंडिया वुमेन कांफ्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की वे सदास्य रहीं। वे नारी शिक्षा एवं सम्मान के लिये समर्पित थीं। स्थानीय बीड़ी मजदूरों को संगठित कर इंटक की वरिष्ठ नेत्री रहीं तथा प्रांतीय एवं राष्ट्रीय समितियों की सदस्य रहीं। उन्होंने स्थानीय बीड़ी मजदूरों के शोषण के विरुद्ध कई आंदोलन चलाए। मजदूरी की दर को निर्धारित करने के लिए बनाई गई समिति की वे सदस्य थीं तथा उनकी सदस्यता वाली समिति की रिपोर्ट पर बीड़ी मजदूरी की दरें निर्धारित की गई थी।
श्रीमती दीक्षित सागर जनपद की सदस्य भी रहीं। सागर के नगर निगम में वे दो बार सन 1967 एवं 1983 में एल्डरमैन बनीं। नगरनिगम की शिक्षा एवं स्वास्थ्य समिति के अध्यक्ष का दायित्व भी उन्होंने निभाया। समाज सेवा की विभिन्न गतिविधियों में वे सदैव सक्रिय रहती थीं। यद्यपि उनकी जीवनयात्रा सतत संघर्षशील रही। 1961 में जब वे 40 वर्ष की थीं, तभी उनके पति का निधन हो गया था। ऐसे कठिन समय में उन्होंने मजबूती से अपने परिवार को सम्हाला। 15 जून 1999 को 71 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हुआ। निश्चित रूप से वे सागर की राजनीति का दैदिप्यमान नक्षत्र थीं।
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