प्रस्तुत है आज 21.11.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक चन्द्रभान ‘राही’ के उपन्यास "मानसी" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
स्त्री, पुरुष और समाज के त्रिकोण का विश्लेषण करता उपन्यास
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - मानसी
लेखक - चन्द्रभान ‘राही’
प्रकाशक - सर्वत्र, मंजुल पब्लिकेशन, द्वितीय तल, उषा प्रीत काॅम्प्लेक्स, 42 मालवीय नगर, भोपाल (म.प्र.)
मूल्य - 399/-
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समाज की संरचना के दो मुख्य घटक हैं- स्त्री और पुरुष। दोनों से मिल कर ही परिवार और समाज बनता है। फिर भी प्रायः स्त्री को दोयम अथवा गौण समझ लिया जाता है और इसीलिए समाज का समीकरण बिगड़ने लगता है। कभी-कभी ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है जब स्त्री, पुरुष और समाज त्रिकोण के तीन कोणों की भांति परस्पर जुड़े हुए हो कर भी परस्पर दूर हो जाते हैं। ऐसे ही एक त्रिकोण की कथा कहता है उपन्यासकार चन्द्रभान ‘राही’ का उपन्यास ‘‘मानसी’’। चन्द्रभान ‘राही’ के अब तक छः उपन्यास और तेरह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कथालेखन में उनकी पकड़ मजबूत हो चुकी है। कथानक की संरचना और पात्रों के मनोविज्ञान को सूक्ष्मता से सामने रखना उनके लेखन की विशेषता है। उन्होंने अपने उपन्यास ‘‘मानसी’’ में भी स्त्री, पुरुष और समाज के मनोविज्ञान को परखने का विशेष प्रयास किया है। यह मूलतः एक स्त्री प्रधान उपन्यास है।
‘‘मानसी’’ का कथानक बहुत संवेदनशील है। स्त्री की आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं को समझने का प्रयास न तो पुरुष करता है और न समाज। पुरुष अपनी व्याकुलता को शांत करने तथा दैहिक संतुष्टि के लिए एक से अधिक स्त्री से संपर्क बनाए रखता है और उसमें उसे कोई दोष दिखाई नहीं देता है। समाज भी ‘‘घरवाली’’ और ‘‘बाहरवाली’’ का एक प्रहसन अपनाकर, इस गंभीर मसले को किसी हद तक स्तरहीन बना देता है। लेखक ने उपन्यास की नायिका ‘‘मानसी’’ के माध्यम से उस नारी संसार को रेखांकित किया है जहां उसे छल, कपट और मृगतृष्णा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता है। दैहिक जिज्ञासाएं दैहिक लालसाओं में ढल कर इतना भ्रमित कर देती हैं कि अच्छे और बुरे में भेद करना कठिन हो जाता है। फिर जब तक वास्तविकता का भान होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। छद्म प्रेम का भटकाव मन को छीलता है लेकिन एक स्त्री से ‘‘बोर’’ हो चुके पुरुष को आगे बढ़ कर दूसरी स्त्री अपनाते देर नहीं लगती है। इस प्रकार के छल-छद्म में जब पढ़ी-लिखी, सुशिक्षित एवं जागरूक स्त्रियां तक उलझ जाती हैं और सच से बहुत दूर जा निकलती हैं तो फिर एक ऐसी स्त्री जिसका बचपन आदिवासी टोले में व्यतीत हुआ, जिसने अपने स्त्रीत्व को अपने टोले में रहते हुए ही जाना, पहचाना और अनुभव किया, मानसी के रूप में लेखक ने उस अबोध लड़की के आरंभिक जीवन से कथानक आरम्भ किया है जो दैहिक एवं लैंगिक मनोभावों से सर्वथा अपरिचित थी। हमवय लड़के की चेष्टाओं के द्वारा वह वासनात्मक मनोभावों से परिचित होती है। इसके साथ ही उसकी मनोग्रंथियां मानो सहसा जाग्रत हो जाती हैं। अनेक अबूझे प्रश्नों से वह घिर जाती है। वह अपने प्रश्नों के उत्तर पाना चाहती है, किन्तु कोई नहीं है जिससे वह अपने प्रश्न कर सके। युवावस्था में प्रवेश के साथ ही लोलुप दृष्टियां उस लड़की पर पड़ने लगती हैं, जिसे अपने अस्तित्व का ही ठीक से पता नहीं है।
युवावस्था में कदम रखती मानसी को मुंडा नाम का युवक दैहिक स्पर्श का बोध करता है, उसके भीतर एक अनजान कौतूहल जगाता है। मुंडा मानसी को साथ भगा ले जाने की भी बात करता है। यह ‘‘भगा लेजाना’’ उन दोनों के टोले में एक रिवाज़ की भांति स्वीकार्य था। यहां लेखक ने स्पष्ट रूप से ‘‘भगोरिया’’ परंपरा का उल्लेख नहीं किया है किन्तु कन्या को भगा कर लेजाने और उससे विवाह करने की सामाजिक स्वीकृति भगोरिया आदिवासियों की पारंपरिक विशेषता रही है।
मुंडा की चेष्टाओं को गहराई से समझ पाने के दौरान मानसी मां और टोले की नज़र में ‘‘बड़ी’’ (अर्थात् रजस्वला) हो जाती है। उसे पांच दिन अलग कमरे में रहने को बाध्य किया जाता है। जो उसे अटपटा लगता है किन्तु मना करने का तो प्रश्न ही नहीं था। पांच दिन बाद स्नान और कुलदेवी पूजन की परम्परा। बहुत कुछ अबूझ। अनजाना। एक नवयुवती के लिए जिसके भीतर बाॅयोलाॅजिकल परिवर्तन हो रहे हों, स्वयं के प्रति चकित करते जाते हैं। विडम्बना यह कि मानसी एक गरीब परिवार की कन्या थी जिसके लिए वर की आयु नहीं वरन भावी जीवन में धन-सम्पदा की उपलब्धता को महत्व दिया जाता है। उसे अपनी आयु से बड़ा वर पसंद नहीं आता है, किन्तु सजधज कर दुल्हन बनना अच्छा लगता है। उसे तब क्या पता था कि यही सजधज उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जाएगी और उसे एक अभिशप्त जीवन जीने को विवश कर देगी।
मानसी का जीवन उसे उस दिशा में ले जाता है जहां वासना और ग्लैमर का दबदबा है। कहने को तो माॅडलिंग का पेशा, किन्तु उसकी आड़ में वेश्यावृत्ति का घिनौना खेल। माॅडलिंग भी ऐसी जो ‘नीलीफिल्मों’ की ओर धकेलती चली जाती है। इसी कथा में एक प्रोफेसर प्रो. दिवाकर है जो फोटोग्राफी में गहरी रुचि रखता है। वह एक स्टूडियो में शौकिया फोटोग्राफी भी करता है। मानसी को उन लोगों के संपर्क में लाता है जो उसे ग्लैमर की दुनिया में राज करा सकते हैं। मानसी के साथ के लिए नैना नाम की युवती को आदेशित किया जाता है। मानसी को जैसे-जैसे नैना के जीवन-कथा पता चलती जाती है, उसकी आंखों के आगे उस ग्लैमर की दुनिया के अनेक पक्ष उजागर होते जाते हैं। कई ऐसे पहलू जो स्त्री होते हुए भी उसके लिए अज्ञात थे, नैना के द्वारा ज्ञात होते जाते हैं।
महुआ बीनते हुए व्यतीत किए गए बचपन के बाद आयु के प्रस्फुटन के साथ उसे मदिरापान कर अपने मुखौटे उतार फेंकने वाली कथित सोसायटी के साथ मदिरापान करने की आदत डालनी पड़ती है। अपनी ही देह के सौंदर्य के प्रति मुग्धता का अनुभव करने वाली मानसी को कुछ अन्य स्त्रियों से मिलने और उनके जीवन के अनुभव सुनने के बाद अहसास होता है कि यह सारा खेल युवावस्था बने रहने तक ही है। शूटिंग स्थल पर जो स्त्री मानसी के लिए चाय बनाने का काम करती है, वह स्वयं पहले मानसी की भांति माॅडलिंग कर चुकी थी। युवावस्था की चमक फीकी पड़ते ही उसके नाम और ग्लैमर का सितारा डूब गया। अब वह पेट पालने के लिए नवोदित माॅडलों के लिए चाय बनाने और पिलाने का काम करने पर मजबूर हो गई। उस स्त्री के जीवन का यह कड़वा सच मानसी के भविष्य की ओर भी स्पष्ट संकेत करता है। और भी कई स्त्रियों से मानसी का संपर्क होता है जो उसे समझाता है कि पुरुष और समाज दोनों ही स्त्री को उपभोग और लांछन की वस्तु मान कर चलते हैं। उनके लिए स्त्री की भावनाओं, आकांक्षाओं एवं इच्छाओं का कोई महत्व नहीं है। सुविधा भोगियों के लिए स्त्री को एक ‘सुविधा’ की सामग्री बना दिए जीने की नियति मानसी के हिस्से में भी आती है।
बाजारवाद ने स्त्री के लिए नए रास्ते बनाए है जो उन्हें स्वतंत्र, आत्मनिर्भरता और शक्तिसम्पन्नता की ओर ले जाते हैं। जिनमें फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया की दुनिया भी है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष भी है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को दैहिक शोषण के गहरे गड्ढे में गिरने के अनेक छिपे हुए अवसर भी बढ़ा दिए हैं। ‘मी-टू’ अभियान ने उजागर कर दिया है कि फिल्म और मीडिया में स्त्रियों को किन शर्तों पर काम करना पड़ता है।
जहां तक समाज का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण है तो वहां वे स्त्रियां भी पुरुषवादी सोच से ग्रस्त दिखाई देती हैं, जब वे स्त्री हो कर स्त्री की परिस्थितियों को समझने से मना कर देती हैं। जब एक स्त्री दूसरी स्त्री पर लांछन लगाती है, तो पीड़ित स्त्री के विरुद्ध स्त्रियों और पुरुषों से बना समाज ही दिखाई देता है। कम उम्र में सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में वह मानव नहीं ‘रखैल’ है। पुरुषों का अहं पत्नी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। सत्ता कोई भी हो वह यथास्थितिवाद की समर्थक होती है, परिवर्तन को रोकना उसका स्वभाव है।
एक समय ऐसा आता है जब मानसी का मन अपने टोले में लौट जाने को करता है। मानसी को बाहरी परेशानियों के साथ अंतर्द्वन्द्व में जीना पड़ता है। एक सीधी-सादी आदिवासी लड़की के ग्लैमर की दुनिया में पहुंचने का उतार-चढ़ाव भरी यात्रा का दस्तावेज है यह उपन्यास। यह उपन्यास चौंकाता है, चेतना को झकझोरता है और अनेक प्रश्न उठाता है। हर प्रश्न स्त्री जीवन से जुड़ा हुआ। नारी जीवन के उन पक्षों को प्रस्तुत किया है, जिनकी चर्चा से साहित्य और समाज-विज्ञान में परहेज किया जाता था। दैहिक प्रसंग उत्तेजक माने जा सकते हैं, किंतु मासिक धर्म के समय स्त्री को ‘आम’ से ‘खास’ बना देने की दूषित परंपरा किशोरियों को कुंठित कर देती है। यद्यपि लेखक ने दैहिक-मनोदशा को कुछ अधिक ही लेखबद्ध कर दिया है। कई स्थानों पर ऐसे विवरण एवं वर्णन अतिरिक्त प्रतीत होते हैं। ऐसे प्रसंगों पर अंकुश रखा जा सकता था। ऐसे प्रसंगों ने ही इस उपन्यास को ‘‘बोल्ड’’ बना दिया है। वैसे लेखक चन्द्रभान ‘राही’ ने उपन्यास के पूर्व आत्मकथन में उन वाक्यों को रखा है जो स्त्री की दशा को बखूबी प्रस्तुत करते हैं। भाषाई सादगी और छोटे-छोटे वाक्य संरचना की सहजता को समेटे हुए है। चन्द्रभान ‘राही’ का यह उपन्यास ‘‘मानसी’’ ‘‘बोल्डनेस’’ की हद तक विवरणात्मक एवं प्रसंगात्मक होते हुए भी बाजारवाद में विभिन्न रूपों में स्त्रियों की बोली लगने के कटुयथार्थ को प्रस्तुत करता विचारोत्तेजक कथानक से परिपूर्ण है।
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