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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, January 2, 2024

पुस्तक समीक्षा | महाराज छत्रसाल के काव्यपक्ष पर महत्वपूर्ण पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 02.01.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक डॉ. बहादुर सिंह परमार की पुस्तक "छत्रसाल रचना संचयन" की समीक्षा।

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पुस्तक समीक्षा    
महाराज छत्रसाल के काव्यपक्ष पर महत्वपूर्ण पुस्तक   
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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शोध ग्रंथ    - छत्रसाल रचना संचयन
लेखक      - डाॅ. बहादुर सिंह परमार
प्रकाशक     - ग्रंथ अकादमी, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य        - 200/-
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  महाराज छत्रसाल बुंदेलखंड के राजा ही नहीं जननायक भी रहे हैं। आज भी उनका स्मरण एक प्रतापी महाराजा एवं सफल नेतृत्वकर्ता के रूप में किया जाता है। उन्होंने कभी मुगलों के समक्ष घुटने नहीं टेके तथा बुंदेलखंड को एक साम्राज्य के रूप में स्थापित करने का ऐतिहासिक कार्य किया। विशेष बात यह है कि महाराज छत्रसाल जितने वीर योद्धा थे उतने ही उच्चकोटि के कवि थे। राजाओं में ऐसा संयोग कम ही देखने को मिला है। राजाओं की स्तुति में चारण, भाट आदि ने तो बहुत कवित्त रचे किन्तु उन्होंने स्वयं कविताएं नहीं रचीं। जबकि महाराज छत्रसाल ने स्वयं काव्य सृजन किया और उनके कुछ दोहे और कवित्त तो ऐसे हैं जिन्होंने न केवल तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों को प्रतिकूलता से अनुकूलता में बदल दिया अपितु इतिहास को एक विशिष्ट अध्याय दिया। बुंदेलखंड में मराठों के प्रवास एवं निवास का बुनियादी श्रेय महाराज छत्रसाल एवं पेशवा बाजीराव के संबंधों को दिया जा सकता है। यद्यपि महाराज छत्रसाल ने महाराज शिवाजी से भी भेंट की थी तथा वे उनके युद्ध-तकनीक से बहुत प्रभावित हुए थे। छत्रसाल और शिवाजी की वीरता की समानता का वर्णन कवि भूषण ने अपने छंदों करते हुए लिखा है कि ‘‘शिवा को सराहौं के सराहौं छत्रसाल को?’’।
महाराज छत्रसाल जब लगभग अस्सी वर्ष की आयु के थे तब मुगल सेनानायक मोहम्मद बंगश ने बुंदेलखंड पर आक्रमण किया। छत्रसाल ने अपने पुत्रों के साथ मिल कर मोहम्मद बंगश का डट कर मुकाबला किया किन्तु एक समय ऐसा आया जब उन्हें लगा कि वे स्थिति को नहीं सम्हाल सकेंगे। उन्होंने तत्काल व्यवहारिकता से काम लेते हुए बिना झिझक पेशवा बाजीराव को सहायता के लिए आमंत्रित करते हुए पत्र लिखा जिसमें यह दोहा उन्होंने लिखा-
जो गति ग्राह्य गजेन्द्र की, सोे गति जानहुं आज।

बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज।।
यह दोहा पढ़ते ही पेशवा बाजीराव स्थिति की गंभीरता समझ गए और सहायता करने बुंदेलखंड की ओर रवाना हो गए। पेशवा की मदद से छत्रसाल ने विजय प्राप्त की और पेशवा को अपना तीसरा पुत्र मानते हुए अपने राज्य का एक हिस्सा उन्हें दे दिया। तब से मराठों ने बुंदेलखंड को अपनाकर हमेशा उसकी रक्षा-सुरक्षा का ध्यान रखा। इतने प्रभावी कवित्त रचने वाले महाराज छत्रसाल ने अनेक रचनाएं लिखीं जिनका संचयन कर के डाॅ. बहादुर सिंह परमार ने ‘‘छत्रसाल रचना संचयन’’ के नाम से एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया है। डाॅ बहादुर सिंह परमार बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के लिए पूरे समर्पण के साथ वर्षों से क्रियाशील हैं। वे इस दिशा में ‘‘बुंदेली बसंत’’ नाम पत्रिका का संपादन करते रहे हैं, उन्होंने बुंदेली मेला की परंपरा शुरू की तथा बुंदेली संस्कृति एवं साहित्य पर कई पुस्तकें लिखी हैं। अतः ऐसे कर्मठ व्यक्ति के द्वारा किया गया संचयन स्वतः में प्रमाणित माना जा सकता है। ‘‘छत्रसाल रचना संचयन’’ में भूमिका को मिला कर कुल सात अध्याय हैं। भूमिका के पूर्व लेखक ने इस बात को स्पष्ट किया है कि उन्हें छत्रसाल की रचनाओं के पुनप्र्रकाशन की आवश्यकता का अनुभव क्यों हुआ। उन्होंने लिखा है कि-‘‘आज बुंदेलखंड समेत समस्त भारत के नागरिकों को अपने जीवन-बोध हेतु ऐसे महापुरुषों के चरित से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है, जिन्होंने अन्याय का प्रतिकार कर अपनी धरती की सौंधी भारतीय खुशबू से सराबोर अस्मिता को जन-जन में स्थापित किया हो। आजादी के अमृत काल में हम अपने उन विस्मृत वीरों के प्रति नतमस्तक होते हुए उनके पुण्य-कार्यों को याद कर रहे हैं, न केवल उन्हें स्मरण कर रहे हैं बल्कि उनके पुनीत कार्यों से नई पीढ़ी को परिचित कराने में संलग्न हैं। वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप और महाराजा छत्रसाल हमारे ऐसे आदर्श योद्धा हैं,जिनके कार्यों से प्रेरणा लेकर हमें अपने राष्ट्र को विश्व में स्थापित करने का संकल्प पूरा करना है।’’

रचनाओं के संचयन और रचनाओं की प्रमाणिकता के संदर्भ में डाॅ परमार ने साफ़गोई से लिखा है कि-‘‘ मिश्रबन्धु-विनोद में उल्लिखित ‘राज-विनोद’ और ‘गीतों का संग्रह’ के अतिरिक्त महाराज की रचनाओं के तीन संग्रह और प्राप्त हुए हैं-(1) छत्र-विलास (2) नीति-मन्जरी, और (3) महाराज छत्रसालजू की काव्य। मैंने ‘राज-विनोद’ और ‘गीतों का संग्रह’ नामक ग्रन्थ नहीं देखे। सम्भव है, राज विनोद के पद्य इन तीनों संग्रहों में आ गये हों। ‘छत्र-बिलास’ संकलित ग्रन्थ है। जिसे चरखारी-नरेश स्वर्गीय जुझारसिंहजू देव ने, संवत् 1969 में, अपने राजकीय प्रेस में छपाया था।’’ लेखक ने आगे लिखा है कि ‘‘छत्रविलास में निम्नलिखित नाम के ग्रन्थ हैं - (1) श्रीराधाकृष्ण पचीसी (2) कृष्णावतार के कवित्त, (3) रामावतार के कवित्त, (4) रामध्वजाष्टक, (5) हनुमान पचीसी, (6) महाराज छत्रसाल प्रति अक्षर अनन्य के प्रश्न, (7) दृष्टान्ती और फुटकर कवित्त, (8) दृष्टांती तथा राजनैतिक दोहा-समूह । 2, 3, 7 और 8 संख्यक ग्रन्थ तो निस्संदेह फुटकर पद्यों के संग्रह मात्र हैं। रहे 1, 4, 5 और 6 संख्या वाले, सो उन में भी हमें इस पर संदेह है कि उनके नाम स्वयं ग्रन्थकार ने रखे या किसी अन्य सज्जन ने।’’
इससे पता चलता है कि छत्रसाल की रचनाओं को संचयित करने में लेखक को अनेक कठिनाइयों से गुजरना पड़ा है। दरअसल जागरूकता की कमी के कारण अनेक मूलग्रंथ समय के साथ नष्ट होते चले गए। कुछ स्मृति में रहे तो कुछ अन्य ग्रंथों में संकलित हो कर। इन सबको एकत्र करना और उनकी प्रमाणिकता की जांच करना एक दुरुह कार्य होता है जो डाॅ बहादुर सिंह परमार ने भली-भांति किया है। छत्रसाल के काव्य संसार को जिन छः अध्यायों में रखा गया है, वे हैं-छत्रसाल ग्रंथावली, श्रीराम यश चंंिद्रका, हनुमद्-विनय, अक्षर अनन्य के प्रश्न और तिनकौ उत्तर, नीति-मंजरी एवं फुटकर पद्य।
‘‘छत्रसाल ग्रंथावली’’ में अध्याय में श्रीकृष्ण भक्ति से संबंधित छत्रसाल की रचनाएं हैं। इसमें पहली रचना है श्रीकृष्ण कीर्तन। इस अध्याय में सहेजे गए कवित्तों के द्वारा श्रीकृष्ण के प्रति महाराज छत्रसाल की भक्ति भावना की कोमलता एवं अनन्यता को बहुत गहराई से समझा जा सकता है। ये कवित्त बताते हैं कि छत्रसाल काव्य कला में कितने निपुण थे। उन्होंने श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए द्रौपदी की सहायता के पक्ष का भी स्मरण किया है-
द्रौपदी सुदामा आदि गिनती गिनाय कहौं,
कौन-कौन दासन के दुरित दुराये ना।
प्रनत उघारिबे कों दीनजन पारिबे कों,
कीने जे चरित्र पार चारमुख पाये ना ।।
भारही करी पै त्यों हरी पै करी गौर प्यारे !
अजामेल धन कछू बहुतक ध्याये ना।
परमकृपाल अब नन्दलाल दीनपाल!
दीन छत्रसाल पै दयाल होत ना।।

दूसरा अध्याय है ‘‘श्रीराम रस चंद्रिका’’। इसमें महाराज छत्रसाल की वे रचनाएं हैं जो उन्होंने श्रीराम की भक्ति में लिखी हैं। इस में एक कवित्त ऐसा है जिससे पता चलता है कि छत्रसाल ने पूर्व भक्तकवियों एवं संतों की वाणी को पढ़ा था और उन पर चिंतन-मनन भी किया था।
राम कह्यौ सदन, कबीर राम-राम कह्यौ,
राम रैदास कह्यौ परमपदु पायौ है।
राम कह्यौ गज जब रज में मिलन लाग्यौ,
पाछें परी टेर आपु अग्रहीं सिधायौ है ।।
ग्राह तें छुड़ाय पुचकारि पार ठाढ़ो कियौ,
छत्रसाल राज ऐसो बिरद बढ़ायौ है।
राम कहौ, राम कहौ, भूलि जनि जाव कोऊ,
राम के कहैयनि में कानैं दुख पायौ है।।

‘‘हनुमद्-विनय’’ अध्याय में छत्रसाल की हनुमान स्तुति के कवित्त हैं। एक उदाहरण देखिए-
तुम सो प्रभु और, कहौ तुमहीं, केहि ठौर बसै, जेहि जाय निहोरौं ।
तुर हौ, फुर हौ, सबलायक हौ, खल ऊलर कौ गूलर फोरौं ।।
बिन राम-रटी रसना मुख के अब सम्मुख जाय कहा कर जोरौं ।
सिय-राम के नामहिं राखु, छता, सुनु वायु-तनै ! तुव आस न छोरौं।।

‘‘अक्षर अनन्य के प्रश्न और तिनकौ उत्तर’’ अध्याय में अक्षर अनन्य  तथा महाराजा छत्रसाल के प्रश्नोत्तर संबंधी कवित्त हैं। अक्षर अनन्य एक सन्तकवि एवं दार्शनिक हो चुके हैं। वे ज्ञानयोग, विज्ञानयोग, ध्यानयोग, विवेकदीपिका, ब्रह्मज्ञान, अनन्य प्रकाश, राजयोग, सिद्धांतबोध आदि ग्रंथों के ये प्रणेता माने जाते हैं। इनमें अद्वैत वेदांत के गूढ़ रहस्यों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है तथा ‘‘दुर्गा सप्तशती’’ का हिंदी पद्यानुवाद भी इन्होंने किया था। अक्षर अनन्य से छत्रसाल के एक प्रश्न रूपी कवित्त का उद्धरण देखिए-
छत्र नरेस बिचच्छन बुद्धि, रहें तुव संग बड़े गुन-ज्ञानी ।
आन अखण्ड स्वरूप की राखत, भाखत पूरन ब्रहा अमानी ।।
क्यों सिसुपाल की आतम-जोतिगई फिरिकान्ह में आनि समानी ।
खंडित है कै अखंडित है ? हम कां लिखि भेजबी एक जुबानी ।।

इसी प्रकार के कई प्रश्नोत्तर इस अध्याय में संग्रहीत किए गए हैं। इससे महाराज छत्रसाल के जिज्ञासु स्वभाव एवं तार्किकता का बोध होता है। वस्तुतः ‘‘छत्रसाल रचना संचयन’’ में उनकी उन सभी रचनाओं को संग्रहीत किया गया है जिनको पढ़ कर छत्रसाल के कविगुण का प्रत्येक कोण जाना-समझा जा सकता है। संचयन के अंतिम अध्याय में महाराज छत्रसाल की फुटकर रचनाएं रखी गई हैं। प्रत्येक अध्याय के अंत में संदर्भसूची भी दी गई है।
यह पूरी पुस्तक एक उत्कृष्ट शोधकार्य है। इसे पढ़ कर महाराज छत्रसाल के काव्यपक्ष का विस्तृत ज्ञान होगा तथा ‘बुंदेलखंड के शिवाजी’ कहे जाने वाले व्यक्तित्व से हर पीढ़ी का व्यक्ति परिचित हो सकेगा। यह पुस्तक युवाओं को महाराज छत्रसाल के व्यक्तित्व की पूर्णता से परिचित कराएगी और स्वाभिमान जागृत करने में सहायक होगी। यह पुस्तक डाॅ बहादुर सिंह परमार के कृतित्व को ऐतिहासिकता प्रदान करने का भी कार्य करेगी क्योंकि इस पुस्तक के द्वारा उन्होंने छत्रसाल की कविताओं को ही नहीं संजोया है अपितु इतिहास के भक्ति और काव्य संदर्भ को भी प्रस्तुत किया है।  
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