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My Editorials - Dr Sharad Singh

Wednesday, January 31, 2024

चर्चा प्लस | महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के विचार समाहित हैं नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के विचार समाहित हैं नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में शिक्षा के जिस बहुआयामी स्वरूप को उद्देश्य बनाया गया है वह व्यक्ति में ज्ञान के साथ कौशल एवं सद्गुणों के विकास करने के लक्ष्य पर आधारित है। शिक्षा को ले कर ठीक यही विचार महात्मा गांधी एवं रवींद्रनाथ टैगोर के भी थे। इन दोनों महापुरुषों के शिक्षा संबंधी विचारों में मामूली अंतर होते हुए भी वे सारे तत्व मौजूद थे जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हैं।      
   
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति समानता, गुणवत्ता, सामर्थ्य और उत्तरदायित्व के स्तंभों पर आधारित है। इस नीति का उद्देश्य एक ऐसी शिक्षा प्रणाली विकसित करना है जो सभी नागरिकों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करके और भारत को एक वैश्विक ज्ञान महाशक्ति के रूप में विकसित करके देश के परिवर्तन में सीधे योगदान दे। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को भारत सरकार द्वारा 29 जुलाई 2020 को घोषित किया गया था। सन 1986 में जारी हुई नई शिक्षा नीति के बाद भारत की शिक्षा नीति में यह पहला नया परिवर्तन है। यह नीति अंतरिक्ष वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पर आधारित है। उल्लेखनीय है कि इस नई शिक्षा नीति में महात्मा गांधी एवं रवींद्रनाथ टैगोर के शिक्षा शिक्षा संबंधी विचारों का संतुलित समावेश है।
                   महात्मा गांधी जनवरी, 1915 में दक्षिण अफ्रीका सेे भारत लौटे। अब जनसेवा ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। रवींद्रनाथ टैगौर ने महात्मा गांधी की भारत वापसी का स्वागत करते हुए शांति निकेतन में आने का निमंत्रण दिया। महात्मा गांधी को उस समय तक शांति निकेतन के सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं थी किन्तु वे रवींद्रनाथ टैगोर के विचारों से परिचित थे। गोपालकृष्ण गोखले चाहते थे कि महात्मा गांधी भारतीय राजनीति में सक्रिय योगदान दें। महात्मा गांधी ने गोखले को वचन दिया कि वे अगले एक वर्ष भारत में रहकर देश के हालात का अध्ययन करेंगे। इस दौरान महात्मा गांधी ने देश के लिए आवश्यक शिक्षा व्यवस्था पर गहन चिंतन किया। उनके विचार रवींद्र नाथ टैगोर के विचारों से कुछ भिन्न थे, तो कुछ मिलते-जुलते। ऐसा माना जाता है कि टैगोर ने ही गांधी जी को ‘‘महात्मा’’ की उपाधि दी थी। गांधीजी के आध्यात्मिक और नैतिक गुणों के प्रति अपनी प्रशंसा व्यक्त करने के लिए टैगोर ने उनके नाम के साथ ‘‘महात्मा’’ विशेषण का प्रयोग किया
शिक्षा पर गांधी के विचार
महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी विचार आदर्शवादी थे और वे एक ऐसे स्वतंत्र समाज की आकांक्षा रखते थे जहां सभी मनुष्यों के साथ सम्मान का व्यवहार किया जाए तथा सभी को शिक्षा के समान अवसर मिलें। वे शासन में राम राज्य अर्थात भगवान राम का शासन लाना चाहते थे। महात्मा गांधी के अनुसार, एक अच्छी राजनीतिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के भीतर अच्छाई का तत्व मौजूद होना चाहिए। उनका यह भी मानना था कि केवल एक व्यापक शिक्षा प्रणाली ही शरीर, मन और आत्मा को समृद्ध करते हुए इस सर्वोत्तम तत्व को सामने ला सकती है। गांधी जाति भेद से घृणा करते थे और महसूस करते थे कि यह भारत की समस्याओं का मूल कारण है। उनका मानना था कि केवल शिक्षा ही हमारे समाज को त्रस्त करने वाले सामाजिक-आर्थिक विभाजन को मिटा सकती है और उनका पहला काम हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करना था।
       
   गांधी सहयोग, सहिष्णुता, सार्वजनिक भावना और जिम्मेदारी की भावना को महत्व देते थे जो केवल अनुशासित शिक्षा ही प्रदान कर सकती है। ये गुण शिक्षा के व्यक्तिगत और सामाजिक उद्देश्य के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन बना सकते हैं। उन्होंने शिक्षा को व्यक्ति के दिमाग को रचनात्मक, स्वतंत्र और आलोचनात्मक रूप से सोचने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए देखा।
शिक्षा के माध्यम से चरित्र निर्माण
अनुशासन एक ऐसी चीज है जिसे गांधी शांतिपूर्ण समाज के लिए एक जिम्मेदार व्यक्ति का मुख्य घटक मानते थे। महात्मा के लिए अनुशासन और शिक्षा साथ-साथ चलते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि यह एक ऐसा गुण है जो समाज में बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से उत्थानशील जीवन जीने के लिए एक इंसान के लिए आवश्यक है। उनका दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा का लक्ष्य उस व्यक्ति का चरित्र निर्माण है। गांधी जी के अनुसार शिक्षा किसी भी बिंदु पर समाप्त नहीं होती बल्कि यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। उन्होंने दृढ़ता से महसूस किया कि शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट से समाज में सच्चाई, दृढ़ता और सहिष्णुता का अभाव हो जाएगा।

शिक्षा के माध्यम से व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करना

महात्मा गांधी जानते थे कि देश में सदियों से चली आ रही गुलामी ने आमजनता का भरपूर आर्थिक शोषण किया है। वे यह भी देख रहे थे कि जाति प्रथा ने युवाओं को परंपरागत अथवा पुश्तैनी व्यवसाय में तो बंाधे रखा है किन्तु उन्हें कौशल विकास का एक भी अवसर नहीं दिया गया है। गांधी जी समझ गए थे कि बिना व्यवयसयिक प्रशिक्षण के कौशल का विकास नहीं हो सकता है और कौशल के विकास के बिना आमदनी में वृद्धि नहीं हो सकती है। यदि गरीबी दूर करना है तो आर्थिक स्थिति में सुधार लाना होगा और यह कौशल विकास एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण के बिना नहीं हो सकता था। इसीलिए जब भी भारतीय शिक्षा व्यवस्था की बात आई गांधी जी ने शिक्षा में व्यावसायिक प्रशिक्षण को जोड़े जाने की पैरवी की।

शिक्षा और साक्षरता के बीच अंतर
आमतौर पर यह मानलिया जाता था कि यदि व्यक्ति ने चार अक्षर पढ़ना सीख लिया तो इसका अर्थ है कि वह साक्षर हो गया। गांधीजी ने शिक्षा और साक्षरता के अंतर को स्पष्ट किया। गांधी जी ने कहा, “शिक्षा से मेरा तात्पर्य बच्चे और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में सर्वांगीण सर्वश्रेष्ठ को विकसित करना है। साक्षरता शिक्षा का अंत नहीं है, आरंभ भी नहीं। यह उन साधनों में से एक है जिससे पुरुषों और महिलाओं को शिक्षित किया जा सकता है। साक्षरता अपने आप में कोई शिक्षा नहीं है।”
नैतिकता और अनैतिकता का बोध
गांधीजी शिक्षा को नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का ज्ञान मानते थे। जब व्यक्ति शिक्षत हो जाता है तो वह भले-बुरे में भेद करना सीख जाता है। एक शिक्षित व्यक्ति न्याय और अन्याय को भी बखूबी समझ सकता है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यक्ति में विवेक जाग्रत करें जिससे वह नैतिक एवं अनैक कार्यों में भेद कर सके तथा सद्मार्ग पर चल सके।

शिक्षा पर टैगोर के विचार

रवींद्रनाथ टैगोर मानते थे कि प्रकृति के निकट रह कर हम बहुत कुछ सीख और समझ सकते हैं।  इसीलिए उन्होंने शांति निकेतन में प्रकृति के बीच अर्थात ‘ओपेन क्लासरूम’ शिक्षा की व्यवस्था रखी थी। टैगोर का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार है। टैगोर के अनुसार, सार्वभौमिक आत्मा हमारी आत्मा का मूल है, और उस तक पहुंचना मनुष्य की नियति है और हम उसका एक हिस्सा हैं। अपनी मंजिल तक पहुंचने का सफर सिर्फ शिक्षा से ही तय किया जा सकता है। इस संदर्भ में टैगोर का कहना था कि प्रकृति का विकास हमें चेतन या अचेतन रूप से सार्वभौमिक आत्मा की ओर ले जा रहा है और इसमें केवल शिक्षा से ही सहायता मिल सकती है। अतिमानव की ओर प्रगति वैसे भी होगी चाहे उसे सहायता मिले या न मिले, लेकिन शिक्षित न होने पर व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार से वंचित रह जाएगा।

आत्म-शिक्षा के तीन सिद्धांत
टैगोर की शिक्षा की अवधारणा स्व-शिक्षा के तीन सिद्धांतों पर निर्भर थी-

स्वतंत्रता : एक बच्चे के रूप में, उन्हें एक कमरे में पढ़ाई करने का विचार पसंद नहीं था और उन्हें लगता था कि छात्रों को कक्षा के बाहर पढ़ाई करनी चाहिए। इससे उनका पहला सिद्धांत और स्वतंत्रता बनी। वे छात्रों के लिए हर तरह से पूर्ण स्वतंत्रता में विश्वास करते थे। छात्रों को समभाव, सद्भाव और संतुलन का अभ्यास करना चाहिए। स्वतंत्रता को नियंत्रण की कमी के साथ भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए। आत्म-नियंत्रण स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है। स्वतंत्र होना मनुष्य की स्वाभाविक अवस्था है। मनुष्य को इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए और एक बार इसे प्राप्त करने के बाद इससे भटकना नहीं चाहिए और अन्य सभी शक्तियाँ उसके अहंकार से निर्देशित होती हैं।

पूर्णता : टैगोर का दूसरा सक्रिय सिद्धांत जो स्व-शिक्षा का आधार है, वे है पूर्णता। उन्होंने महसूस किया कि छात्रों को अपने व्यक्तित्व, शक्ति और क्षमताओं के हर पहलू को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए जो प्रकृति द्वारा दिया गया है। टैगोर ने महसूस किया कि शिक्षा का मतलब केवल परीक्षा उत्तीर्ण करना और डिग्री प्राप्त करना नहीं है, बल्कि प्रगति किसी पेशे को अपनाकर जीविकोपार्जन करने की होनी चाहिए। टैगोर के अनुसार, एक बच्चे का व्यक्तित्व तब विकसित होगा जब उनके व्यक्तित्व के हर पहलू को बिना किसी हिस्से को पूरा किए और दूसरों को अवांछित ध्यान दिए बिना समान महत्व दिया जाएगा।

सार्वभौमिकता : टैगोर की सार्वभौमिक आत्मा की अवधारणा और इसके प्रति हमारी प्रगति तीसरा सिद्धांत बनाती है जो सार्वभौमिकता है। यह प्रत्येक व्यक्ति के भीतर विद्यमान है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा को सार्वभौमिक आत्मा के साथ पहचानना चाहिए। इसलिए, शिक्षा केवल साधारण विकास पर आधारित नहीं है बल्कि व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की सीमाओं से ऊपर उठता है। प्रकृति के प्रत्येक तत्व में विश्वात्मा का वास है। उनका कहना था कि शिक्षक को ऐसा वातावरण बनाना चाहिए जिसमें बच्चे का व्यक्तित्व स्वतंत्र, परिपूर्ण और अप्रतिबंधित विकास से गुजरे।

शिक्षा पर गांधी और टैगोर के दृष्टिकोण में तुलना

रवींद्रनाथ टैगोर एवं महात्मा गांधी के शिक्षा संबंधी विचारों में समानता भी थी और विरोधाभास भी। गांधी और टैगोर ईश्वर या सार्वभौमिक आत्मा में विश्वास करते थे, दोनों आध्यात्मिकता की ओर इशारा करते थे। उनके विचार बाल-केंद्रित थे, बच्चे के व्यक्तित्व का सम्मान करते थे। बच्चों को वही सीखना चाहिए जिसमें उनकी रुचि हो। दोनों ने मातृभाषा में शिक्षा पर जोर दिया और वे अंग्रेजी भाषा थोपने के खिलाफ थे। वे दोनों आदर्शवादी और मानवतावादी थे। दोनों का लक्ष्य ऊंचे लक्ष्य थे फिर भी उनके उद्देश्य अलग-अलग थे। गांधीजी ने बच्चों के संपूर्ण विकास और जातिवाद को खत्म करने पर जोर दिया, जबकि टैगोर शिक्षा के माध्यम से आत्म-प्राप्ति पर जोर देते थे। गांधी आम आदमी को शिक्षित करने और उसे समाज के योग्य बनाने के पक्षधर थे जबकि टैगोर संतगुणों के विकास पर बल देते थे। यद्यपि गांधी और टैगोर के विचारों में विशेष अंतर नहीं था। बस, गांधी जी ने शिक्षा के बुनियादी मूल्यों में चारित्रिक श्रेष्ठता के विकास के साथ रोजगार को लक्ष्य किया जबकि रवींद्रनाथ टैगोर ने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक श्रेष्ठता को शिक्षा का आधार माना।

वर्तमान में लागू नई शिक्षा नीति में रोजगारोन्मुखता, त्रिभाषा प्रणाली एवं चारित्रिक श्रेष्ठता पर बल दिया गया है वस्तुतः यह विशेषताएं महात्मा गांधी एवं रवींद्रनाथ टैगोर के शिक्षा संबंधी विचारों का ही व्यवहारिक रूप है जिसके द्वारा आधुनिक विज्ञान, तकनीक एवं परम्पराओं में संतुलन बनाए रखा जा सकता है।
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