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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, February 13, 2024

पुस्तक समीक्षा | लोक संस्कृति में मिथक की सत्ता को परिभाषित करती पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 13.02.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ श्यासुंदर दुबे के पुस्तक  "लोक मिथक - मूल्य और सौंदर्य दृष्टि" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
लोक संस्कृति में मिथक की सत्ता को परिभाषित करती पुस्तक
      - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - लोक मिथक - मूल्य और सौंदर्य दृष्टि
लेखक       - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक     - विजया बुक्स, 1/10753 सुभाष पार्क, गली नं. 3, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य        - 450/-
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      वर्तमान भौतिकवाद ने सबसे अधिक क्षति पहुंचाई है लोक संस्कृति को। बाजार की संस्कृति ने लोक संस्कृति को भी बाजार की वस्तु बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। घर की बैठक में वर्ली आर्ट या मधुबनी कलम की पेंटिग लगा लेना ही संस्कृति को सहेजना नहीं होता है। लोक संस्कृति को सहेजने के लिए सबसे पहले जरूरी है लोक संस्कृति के स्वरूप को समझना। यह समझना आवश्यक है कि लोक संस्कृति मात्र एक शब्द नहीं है, यह एक समृद्ध परम्परा है जो विचार, शिल्प कथा, आस्था आदि विविध रूपों में उस समय से प्रवाहित है जब दुनिया में संस्कृतियों का विधिवत उद्भव ही नहीं हुआ था। लोक संस्कृति वस्तुतः मौलिक चेष्टाएं हैं जो कभी अभिव्यक्ति के माध्यम से तो कभी कला, कल्पना और आस्था के माध्यम से व्यक्त होती रही हैं। लोक संस्कृति पर एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है ‘‘लोक मिथक - मूल्य और सौंदर्य दृष्टि’’। इसके लेखक है प्रतिष्ठित संस्कृतिविद डाॅ. श्यामसुंदर दुबे।
             लोक संस्कृति में मिथक की उपस्थिति के संबंध में डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने लिखा है कि ‘‘लोक-संस्कृति, मानवीय सौंदर्य चेतना का अक्षय स्रोत है। निःसर्ग और मनुष्य के सह समायोजन से अभिव्यक्त होने वाली लोक संस्कृति अपनी सामाजिकता में उदार आशयों वाली है। उसकी नैतिकता वैश्विक परिदृश्य में सृष्टि के समुचित संरक्षण से आविर्भूत है। लोक संस्कृति जितना मनुष्य को संरक्षणीय मानती है, उतना ही संरक्षणीय वह प्रकृति के प्रत्येक अंग को संरक्षणीय मानती है उसकी अभेद दृष्टि सर्वत्र सभी संदर्भों में एक ही चैतन्य को तलाशती है। यही वजह है कि उसमें मानवीय अंतर्दृष्टि के आलोक को हम प्रत्येक रचना-विधान में प्राप्त करते हैं।’’
            ..मनुष्य अपने आरम्भ से ही कल्पनाशील रहा है। उसकी कल्पनाशीलता प्रगैतिहासिक कालीन शैलचित्रों में प्रमाणिक रूप से देखी जा सकती है। मनुष्य ने अपने अनुभवों में अपनी कल्पना को मिलाया और उसे उस सीमा तक विस्तार दिया जहां तक वह मिथकीय स्वरूप धारण करती है। किन्तु इससे जो मिथक उपजा उसके धरातल में यथार्थ का बोध उपस्थित रहा। प्रागैतिहासिक काल के आरम्भिक समय में जब मनुष्य ने किसी सेबरटूथ शेर को देखा होगा तो उसके मन में दुर्दांत और क्रूर राक्षस की कल्पना उपजी होगी, जो मनुष्यों को क्षति पहुंचाता था। यही वह बारीक रेखा है जो यथार्थ और मिथक को परस्पर बांटती है और साथ ही यह भी स्थापित करती है कि हर मिथक सत्य के अंश पर ही आधारित होता है।
          लोक संस्कृति की अपनी अलग पहचान एवं विशेषता होती है इसका संबंध किसी देश व क्षेत्र विशेष के सामान्य जन समुदाय से होता है समाज में प्रचलित विभिन्न क्रियाकलाप परंपराएं अचार-विचार, संस्कार, प्रथाएं कर्मकांड, आस्था एवं विश्वास - लोक संस्कृति के आधारभूत तत्व हैं। संस्कृति व्यक्ति एवं समाज के विकास का परिचायक होती है। लोक जीवन इसी संस्कृति का अक्षय भंडार है। लोक संस्कृति समाज के सांस्कृतिक मूल्यों को आकार देती है। लोक संस्कृति विविधरूपों में आकार लेती रहती है। जैसे- लोक भाषा, लोक परंपरा, लोकनाट्य, लोकगीत, लोककला आदि। लोक परंपराओं के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के व्रत, त्यौहार, प्रथाएं, मेले, रूढ़िया एवं संस्कार आते हैं, जिनके द्वारा समाज में उत्साह एवं विश्वास बना रहता है। लोक साहित्य लोक मानस की सहज एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति है यह प्राय अलिखित रहता है तथा वाचक परंपरा के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक प्रवाहित होता है। लोक साहित्य परिभाषित भाषा शास्त्रीय रचना पद्धति एवं व्याकरणिक नियमों से रहित होता है, इसकी भाषा लोक भाषा होती है लोक साहित्य के अंतर्गत लोक गाथा, लोकगीत, लोक कथाएं, सुभाषित, पहेलियां, लोकोक्तियां, लोकनाट्य आदि आते हैं।
          लेखक श्यामसुंदर दुबे ने अपनी पुस्तक ‘‘लोक मिथक - मूल्य और सौंदर्य दृष्टि’’ में लोक मिथक के मूल्य और सौंदर्य दृष्टि को व्याख्यायित करते हुए विस्तार से लोक के स्वरूप को सामने रखा है। उन्होंने अपनी पुस्तक के कलेवर को मुख्य तीन शीर्षकों एवं 25 लेखों में विभक्त किया है। ‘‘लोक-संस्कृति: विमर्श के नए आयाम’’ शीर्षक से दी गई भूमिका के उपरांत तीन मुख्य शीर्षक हैं- मिथकीय संरचना का संसार, जीवन-मूल्यों के आधार तथा कला-दृष्टियों का समाहार। इन तीन मुख्य शीर्षकों अथवा खंडों के अंतर्गत जो पच्चीस लेख हैं उनके मिथकीय संरचना का संसार के अंतर्गत हैं- लोक आख्यान और मिथक के अंतर्संबंध, भाषिक संरचना और लोक आख्यान, लोक आख्यान और आज का लेखन-कर्म, मिथक संरचना के आधारभूत बिंदु, लोक चित्र परंपरा के मिथकीय आधार, लोक-संस्कृति की भूमि पर लोक-विश्वासों की हरी दूब, लोक-प्रतीकों की अवधारणा, लोक-परंपरा और लोक-संस्कार, आदिम चित्रकला अभिप्रायों का संसार।
     जीवन-मूल्यों के आधार के अंतर्गत हैं- लोक संस्कृति: मानव संसाधन का आधार, मानवीय मूल्य और लोक-साहित्य, लोक-साहित्य की मूल्य-चेतना, लोक-साहित्य: जीवन-मूल्य और भारतीयता,  लोक-संस्कृति में माधुर्य-बोध, लोक की सौंदर्यशास्त्रीय भूमिका।
            कला-दृष्टियों का समाहार के अंर्तगत हैं- बोलियों और लोकगीतों का अंतर्संवादी स्वर, प्रदर्शनकारी लोक-कलाएं और जन-संचार माध्यम, लोक-लय के प्रयोग, लोक गायिकी: रंगतों का वर्णपट, लोक नृत्य ‘राई’, आल्हा परंपरा की उखड़ती सांसें, मिट्टी तेरे रूप अनेक: मृदा कला, लोक में बाजार और बाजार में लोक, हिंदी साहित्य की लोकधर्मिता, लोक-गाथा में निहित समकालीनता।
लोक आख्यान और मिथक के अंतर्संबंध की विवेचना करते हुए लेखक ने लिखा है कि -‘‘ प्रारंभिक मिथक रचनाओं में आदिम मनुष्य का भय उसकी प्रसन्नता, उसकी घृणा, उसका वैर आदि मनोभावों के प्रबल प्रवेग ने मानवीय और अतिमानवीय चरित्रों के साथ मानवेतर प्राणियों और वस्तु संदर्भों के बीच संबंधों का चक्र निर्मित किया।यह चक्र आख्यान के सूत्रों के रेशों की सघन बुनावट से बना था। इन रेशों की चमक से जो झकर-मकर करता स्पेस निर्मित हो रहा था उसकी उर्वर क्षमता को इस रूप में अनुभव किया जा सकता है कि हमारे निकट अतीत के अनेक घटना प्रसंग जब आख्यान बनने हेतु समुद्यत होते हैं, तब मिथक के आदिम अनुभव से वे उद्रेकित होने लगते हैं। मिथक रहस्य भावना की उपज भी माने जा सकते हैं।’’
            भाषिक संरचना और लोक आख्यान के अंतर्संबंध के बारे में लेखक श्यामसुंदर दुबे का कहना है कि- ‘‘भाषिक संप्राप्ति के तत्काल बाद ही मनुष्य आख्यानपरकता की ओर उन्मुख हुआ होगा। भाषा की वृत्ति अपने-आपको अभिव्यक्त करने की चेष्टाओं का भले ही ध्वन्यात्मक परिणाम हो, किंतु भाषिक संरचना की लंबी जद्दोजहद में मनुष्य की आख्यान व्याकुलता ही क्रियाशील रही है। मनुष्य केवल इच्छित विषय की संकेतधर्मी परंपरा से संबंधित ध्वनि-पर्यायों से संतुष्ट नहीं रहा- ये पर्याय वस्तु-बिंब और उससे जुड़े तमाम क्रिया- व्यापारों की आख्यान केंद्रित इकाई की तरह निर्मित हुए हैं। इसलिए प्रत्येक शब्द एक आख्यायिका को अपने भीतर छिपाए हुए है।’’ इसी लेख में लोकबोलियों के संबंध में लेखक ने सोदाहरण लिखा है कि- ‘‘कम-से-कम संस्कृत भाषा की शब्द- संरचनाओं में धातु आधार तो हमारे अभिज्ञान में है ही। इसी क्रम में लोक-बोलियों का विकास हुआ और इन बोलियों के शब्दों का मूल, क्रिया-जन्य ही है। क्रिया मात्र ध्वनि नहीं है वह एक पूरा दृश्याख्यान है। मैं यहाँ एक शब्द ‘पत्र’ लेता हूँ- यह शब्द प्रारंभ में वृक्ष के पत्ते के पर्याय को व्यक्त करने वाला रहा है-फिर चिट्ठी, पन्ना आदि का अर्थ देने वाला बना। लोक बोली के पत्ते को आधार बनाकर एक रूपक रचा ‘पत्ता टूटा डाल से-उड़कर गया अकास’ डाल से पत्ता टूटा और हवा के झोंके के साथ उड़कर आकाशचारी बना। पत्र के मूल में पत् क्रिया है। डाल से पत्र टूटा और पृथ्वी की सतह पर गिरा गिरने से पत् की आवाज आई। इस क्रिया के पूर्व पत्ता-पत्ता नहीं था-एक क्रिया ने उसका नामकरण किया। क्रिया संपूर्ण इंद्रिय-संवेदी व्यापार है, टूटते हुए पत्ते के शेड्स की झलमलाहट, पत् ध्वनि का परिस्पंदन, पत्ते के ताजे डंठल से निर्गत गंध, पत्ते की कोमलता को छूने का भाव, पत्ते की ओक बनाकर तरल पदार्थ पीने का अनुभव - ये संपूर्ण संवेदनाएँ एक ध्वनि-बिंब’ में सिमट आईं।’’
        लोक-परंपरा और लोक-संस्कार के पारस्परिक संबंध को स्पष्ट करते हुए लेखक ने लिखा है कि -‘‘लोक एक परंपरा है। परंपरा सतत विकसित मूल्य-बोध है। इसके सातत्य में सृजनमूलक समस्त अनुष्ठान अगली पीढ़ी के लिए हस्तांतरित होते रहते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसमें कुछ नया जुड़ता रहता है। परंपरा का विकास लगभग एक रैखिक होता है। चूँकि यह विकास है, इसलिए यह ऊर्ध्वगामी भी होता है। लोक में परंपरा का विकास एक तरह से सांस्कृतिक समुन्नयन भी है, इसलिए यह एक क्रियाशील जीवित प्रणाली है, जो सामाजिक प्रकार्यों को गति देती है। परंपरा का नाभिकेंद्र लोक है, अतः लोक के परिवृत्तों में जो परिवर्तन की ऊर्जा समाहित है, वह लोक की अभ्युदयमूलक सिसृक्षा है।’’
       यह पुस्तक लोक मिथक को बीरीकी से समझाती है। डाॅ. श्यामसुंदर दुबे स्वयं एक लोक संस्कृतिविद हैं अतः बुंदेली लोक संस्कृति के साथ ही उन्होंने देश की विभिन्न लोक संस्कृतियों का अध्ययन तथा उन पर लेखन किया है। सबसे अच्छी बात है कि जब वे लोक संस्कृति की चर्चा करते हैं अथवा उस पर कुछ लिखते हैं तो तथ्यात्मकरूप से लिखते हैं। अपनी इस पुस्तक में भी उन्होंने वैचारिक तर्कों के साथ लोकगीतों, लोककथाओं, लोकोक्तियों आदि के उदाहरण देकर विषय की व्याख्या की है। पुस्तक के प्रथम दो मुख्य शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत लेख समग्रता लिए हुए हैं किन्तु तीसरे कला-दृष्टियों का समाहार के अंर्तगत हैं रखे गए लेखों में कुछ लेख ऐसे हैं जिनमें विस्तार की आवश्यकता महसूस होती है। जैसे- मृदा कला में शिल्प की विविधता की तथा हिंदी साहित्य की लोकधर्मिता में और अधिक शैलियों, उदाहरणों एवं आकलन की चर्चा हो सकती थी। किन्तु संभवतः पृष्ठसंख्या को ले कर इन विषयों का संक्षेप में समाहार करना लेखक की विवशता रही होगी।
         श्यामसुंदर दुबे के पास भाषाई समृद्धि है। संस्कृतनिष्ठ शब्दों से सुसम्पन्न उनकी भाषा उन लोगों को पर्याप्त भाषिक आनन्द देती है जो हिन्दी के श्रेष्ठ स्वरूप का रसास्वादन करना चाहते हैं किन्तु लोक एक ऐसा विषय है जिसमें हर तरह के पाठक वर्ग की रुचि हो सकती है। अतः पुस्तक की संस्कृतनिष्ठ भाषा उन पाठकों के लिए तनिक असुविधा पैदा कर सकती है जो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी से दूर हैं। चूंकि यह पुस्तक लोक संस्कृति के लोक मिथक पर है अतः इसकी भाषा थोड़ी सरलीकृत होती तो और अधिक पाठकों के लिए सुविधाजनक होती। किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह पुस्तक सुधि पाठकों को लोक मिथक के सौंदर्य एवं स्वरूप से गहराई से भली-भांति परिचित कराने में सक्षम है। लोक संस्कृति अथवा संस्कृति में रुचि रखने वालों तथा उत्तम भाषा का रसास्वादन करने की इच्छा रखने वालों को इस पुस्तक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।   
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