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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, March 28, 2024

चर्चा प्लस | भारतीय रंगमंच और हाशिए में खड़ा हिन्दी का मौलिक नाट्यलेखन | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
भारतीय रंगमंच और हाशिए में खड़ा हिन्दी का मौलिक नाट्यलेखन
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      प्रति वर्ष 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी में नाटकों का मंचन किया जाता है। यद्यपि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में रंगमंचीय संस्कृति सीमित है। जबकि अतीत में सभी हिन्दी भाषी क्षेत्र किसी न किसी रूप में नाट्यविधा से जुड़े रहे हैं, लोकनाट्य विधा ही क्यों न हों। नाटकों का शास्त्रीय मंचन आमतौर पर बड़े मंचों तक सीमित रहा है। यद्यपि पिछले कुछ दशकों में छोटे शहरों में भी मंचन किए जाने लगे हैं किन्तु हिन्दी नाट्य लेखन अपनी न्यूनतम संख्या से उबर नहीं सका है। मंच हैं, नाटक हैं किन्तु हिन्दी नाट्य लेखन हाशिए पर खड़ा है। आखिर क्या कारण है इसका? वस्तुतः हिन्दी साहित्य और रंगमंच की दुनिया में हिन्दी नाट्यालेखन एक गम्भीर विमर्श की बाट देख रहा है।    
हिन्दी नाटकों का उद्भव और विकास हम हमेशा पढ़ते आए हैं किन्तु अब आवश्यकता है उसके भविष्य को पढ़ने की। हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। लगभग उसी दौरान आगाहसन ‘अमानत’ लखनवी के ‘इंदर सभा’ नामक गीति-रूपक का मंचन किया गया। यह बहुत लोकप्रिय हुआ। यद्यपि इसमें मंचीय तत्वों का अभाव था। यह खुले स्टेज पर प्रदर्शित किया जाता था। विद्वानों द्वारा इसे शास्त्रीय दृष्टि से नाटक माना ही नहीं गया। इसी तारतम्य में ‘मदारीलाल की इंदर सभा’, ‘दर्याई इंदर सभा’, ‘हवाई इंदर सभा’ जैसे नाटक सामने आए लेकिन इनमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो हिन्दी नाटकों को स्थापना दिला पाता। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इनको ‘‘नाटकाभास’’ कहते थे। उन्होंने इनकी पैरोडी के रूप में ‘बंदर सभा’ लिखी थी।
सन् 1850 ई. से सन् 1868 ई. तक हिन्दी रंगमंच का उदय और प्रचार-प्रसार तो हुआ लेकिन पारसी नाटकों के प्रभामंडल के नीचे दबा रहा। हिन्दी नाटकों को सही पहचान भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटकों से ही मिली। यद्यपि भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के ‘‘विद्यासुंदर’’ नाटक के अनुवाद से हुई। भारतेन्दु के पिता गोपालचन्द्र द्वारा रचित ‘नहुष’ तथा महाराज विश्वनाथसिंह रचित ‘आनंद रघुनंदन’ भी पूर्ण नाटक नहीं थे, न पर्दों और दृश्यों आदि की योजना वाला विकसित रंगमंच ही निर्मित हुआ था। उस समय तक नाट्य मंचन के अधिकतर प्रयास अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही हुए थे और भाषा का स्वरूप भी हिन्दी-उर्दू का मिश्रित खिचड़ी रूप ही था। हिन्दी के विशुद्ध साहित्यिक रंगमंच और नाट्य-सृजन की परम्परा की दृष्टि से सन् 1868 ई. को रेखांकित किया जा सकता है। भारतेन्दु के नाटक लेखन और मंचीयकरण का श्रीगणेश इसी वर्ष हुआ। इसके पूर्व पात्रों के प्रवेश-गमन, दृश्य-योजना आदि से युक्त कोई वास्तविक नाटक हिन्दी में नहीं रचा गया था। सन् 1868 को पं. शीतलाप्रसाद त्रिपाठी रचित ‘‘जानकी मंगल’’ नाटक का अभिनय ‘बनारस थियेटर’ में आयोजित किया था। कहते हैं कि जिस लड़के को लक्ष्मण का अभिनय पार्ट करना था वह अचानक उस दिन बीमार पड़ गया। लक्ष्मण के अभिनय की समस्या उपस्थित हो गई और उस दिन युवक भारतेन्दु स्थिति को न संभालते तो नाट्यायोजन स्थगित करना पड़ता। भारतेन्दु ने एक-डेढ़ घंटे में ही न केवल लक्ष्मण की अपनी भूमिका याद कर ली। इस नाटक से भारतेन्दु ने रंगमंच पर सक्रिय भाग लेना आरम्भ किया। इसी समय उन्होंने नाट्य-सृजन भी आरम्भ किया।
भारतेन्दु ने सन् 1868 ई. से सन् 1885 ई. तक कई नाटकों का सृजन किया, कई नाटकों में स्वयं अभिनय किया, अनेक रंगशालाएं निर्मित कराईं और हिन्दी रंगमंच को एक स्थापना दी। 20 वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सिनेमा के आगमन के पारसी रंगमंच नेपथ्य में चला गया। इसी दौरान एकांकी का चलन भी बढ़ा जो समय, स्थान और पात्रों की न्यूनता में भी खेले जा सकते थे। इसके सहारे हिन्दी रंगमंच ने स्कूल-काॅलेज में अपना स्थान बना लिया। हिन्दी के नाटककार डॉ. राम कुमार वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क, सेठ गोविन्द दास, जगदीशचन्द्र माथुर, माहन राकेश आदि ने नाटक एवं एकांकी दोनों का लेखन किया।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अतिरिक्त हिन्दी के जो नाटककार सर्वाधिक चर्चित रहे उनमें थे- जयशंकर प्रसाद, जगदीशचंद्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रामकुमार वर्मा, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, स्वदेश दीपक, नंदकिशोर आचार्य, मणि मधुकर, हरिकृष्ण प्रेमी, भीष्म साहनी, उपेंद्रनाथ अश्क आदि। इनके लिखे नाटक राष्ट्रीय स्तर के रंगमंचों पर खेले गए। हिन्दी के अनेक नाटकों ने लेाकप्रियता हासिल की। लेकिन हिन्दी क्षेत्रों में विदेशी नाटकों का हिन्दी नाट्य रूपांतर अपनी धाक जमाता चला गया। ऐसा क्यों हुआ, यह एक शोध का विषय हो सकता है। रंगमंच से जुड़े कई मनीषी मेरी इस बात से असहमत हो सकते हैं किन्तु असहमति के पक्ष में क्या इतने नाम गिनाए जा सकते हैं जितने बीसवीं सदी के मध्य तक हिन्दी नाट्य लेखन में नामों की संख्या थी? बीसवीं सदी के उत्तर्रार्द्ध एवं 21 वीं सदी के इस पहले चैथाई हिस्से में हिन्दी के मौलिक नाटकों की गिनती कम हुई है। पूर्व लिखे हिन्दी नाटकों के साथ विदेशी नाटकों अथवा विदेशी कथानकों के नाट्य रूपांतर का मंचन बढ़ा। विशेषरूप से उन छोटे शहरों में जहां हिन्दी नाटकों एवं हिन्दी रंगमंच की संस्कृति को चलन में लाने का प्रयास किया गया। विदेशी भाषाओं के नाटकों एवं कथानकों का हिन्दी रूपांतरण सप्रयास हिन्दी भाषी क्षेत्र के वातावरण में ढाल कर प्रस्तुत किए जाने के बावजूद उनकी छाप दर्शकों के मन पर गहरा नहीं सकी।
इस विडंबना पर प्रहार करने का एक उम्दा प्रयास किया फिल्म और रंगमंच के कलाकार एवं रंगकर्मी गोविंद नामदेव ने जब उन्होंने ‘‘मधुकर को कटक’’ नामक नाटक लिखा और उसका मंचन भी किया। वर्ष 2013 में फिल्म अभिनेता गोविंद नामदेव ने एक माह की वर्कशॉप लगाकर कलाकारों में अभिनय एवं प्रस्तुति का नया जोश भरा। बुंदेलखंड के नायक माने जाने वाले राजा मधुकर शाह के संघर्ष को अपने नाटक की मूल पटकथा बनाया। यह नाटक अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इसके मंचन के बाद लगा कि मंच पर स्थानीय प्रसंगों, गौरव, समस्याओं एवं विसंगतियों को स्थान मिलेगा किन्तु कुछेक उदाहरण छोड़ दिए जाएं, तो ऐसा प्रभावी ढंग से नहीं हुआ। इसके दो कारण समझ में आते हैं, पहला तो यह कि निर्देशक एवं प्रस्तुतिकर्ता स्थानीय प्रसंगों के प्रति आश्वस्त नहीं हो पाता है। और दूसरा कारण कि वह अपने आप-पास मौजूद हिन्दी नाट्य लेखकों का उचित आकलन नहीं कर पाता है। यदि तीसरा कारण कोई और भी है तो उसे ले कर निर्देशकों को खुल कर बात करनी चाहिए। ‘‘मधुकर को कटक’’ एक उदाहरण के रूप में यहां उल्लेख किया गया है। ऐसा नहीं है कि छुटपुट प्रयास नहीं किए गए लेकिन वे इतने प्रभावी नहीं रहे कि हिन्दी नाट्य लेखन को बढ़ावा दे सकें।
   अब बात आती है हिन्दी क्षेत्रों में नाट्य लेखन के प्रति कम रुझान की तो सबसे प्रमुख बात है कि यदि लिखे गए नाटकों को मंच न मिले तो कोई लेखक नाटक लिखे ही क्यों? यानी मंच और हिन्दी लेखकों के बीच एक ‘गैप’ है जो बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में बढ़ता चला गया है। हिन्दी नाटकों की वह संख्या क्यों नहीं दिखाई देती है जो भारतेन्दु युग में थी जबकि वह उदयकाल था। जबकि उस समय हिन्दी क्षेत्रों का दर्शक रामलीला, नौटंकी और स्वांग के अधिक करीब था। अब जब कि दर्शक का रुझान नाटकों की ओर रहने लगा है तथा लोकनाटक की विधाएं सिमट गई हैं, फिर भी हिन्दी नाटकों की संख्या अत्यंत सीमित है। जबकि यही वह समय है जब हिन्दी के मौलिक नाटकों के लिए एक अच्छी ज़मीन तैयार हो सकती है।
आज जिन नाटकों का मंचन किया जाता है उनके मुख्यतः चार प्रकार हैं- कॉमेडी, ट्रेजेडी, ट्रेजिकोमेडी और मेलोड्रामा। सभी में प्रस्तुति का पर्याप्त स्थान है। आज साहित्य की जितनी भी विधाएं हैं जैसे कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण आदि उपस्थित हैं इन सब में नाटक की संख्या न्यूनता पर चल रही है। जबकि नाटक अपने-आप में एक चुनौती भरी किन्तु रोचक विधा है। यह साहित्य की सभी विधाओं को अपने भीतर स्थान देती है। एक नाटक में कथा होती है, संवाद होते हैं, काव्य होता है। साथ ही यह प्रदर्शनकारी विधा है अतः इसमें अभिनय, ध्वनि, संगीत, वस्त्रसज्जा, मंच सज्जा, प्रकाश योजना आदि विविध आयाम समाए रहते हैं। यह भी माना जाता है कि सिनेमा ने और बाद में टेलीविजन ने रंगमंच को सीमित किया है। एक सीमा तक यह सच है किन्तु यह भी सच है कि रंगमंच आज भी अपनी कलात्मक उपादेयता के साथ उपस्थिति बनाए हुए है। रंगमंच के दर्शक आज भी मौजूद हैं। लेकिन अन्य भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी में बहुत कम नाटककार सामने आ रहे हैं। इसके कारणों को जांचना जरूरी है।
नाटक हमारी साहित्यिक परम्परा की अभिन्न विधा है। साहित्य की दुनिया ने हिन्दी नाटकों को रंगमंच से मिली उदासीनता के हवाले कर दिया है और रंगमंच की दुनिया हिन्दी की अपेक्षा विदेशी  नाटकों एवं कथानकों का सहारा लेकर अपना रास्ता तय कर रही है। जबकि वहीं दूसरी ओर हिन्दी साहित्य और रंगमंच की दुनिया में हिन्दी नाट्यालेखन एक गम्भीर विमर्श की बाट देख रहा है। इस विषय पर आत्ममंथन एवं आत्मचिंतन से आगे बढ़ कर एक साथ बैठ कर मनन करने की आवश्यकता है। तभी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी नाटकों को पुनःस्थापना मिल पाएगी।      
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