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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, March 5, 2024

पुस्तक समीक्षा | भावनाओं की विशुद्ध प्रस्तुति का काव्यात्मक संसार है - ‘‘रंगमंच’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 05.03.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ आभा श्रीवास्तव के कविता संग्रह "रंगमंच" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
भावनाओं की विशुद्ध प्रस्तुति का काव्यात्मक संसार है - ‘‘रंगमंच’’
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - रंगमंच
कवयित्री    - आभा श्रीवास्तब
प्रकाशक    - लेखिका द्वारा, सीनिट्स काॅलोनी, सी-5, सटई रोड, कलेक्टर बंगला के पीछे, छतरपुर म.प्र.
मूल्य        - मुद्रित नहीं
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काव्य अभिव्यक्ति का एक सरस माध्यम होता है। छायावाद की चर्चित कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपने निजी दुखों को भी काव्य के माध्यम से व्यक्त कर उन्हें परदुख के साथ समेकित कर दिया। यूं भी जब कोई अभिव्यक्ति मुद्रण अथवा मंच द्वारा मुखर होती है तो वह सबके दुख-सुख के अपने-अपने दर्पण की भूमिका में ढल जाती है। कवयित्री आभा श्रीवास्तव की कविताएं ‘निज’ से ‘पर’ तक और ‘पर’ से ‘निज’ तक की यात्रा का बोध कराती हैं। ‘‘रंगमंच’’ उनका द्वितीय काव्य संग्रह है। इस काव्य संग्रह में उन्होंने अपन जिन कविताओं को चुन कर सहेजा है, वे कवयित्री की संवेदनाओं का गहनता से साक्षात्कार कराती हैं।
रंगमंच का सीधा संबंध नाटक और अभिनय से होता है। जैसे एक नाटक में हर पात्र का रोल तय रहता है किसी का रोल छोटा होता है तो किसी का बड़ा। हर कलाकार अपनी-अपनी तयशुदा भूमिका के अनुरुप पर्दा गिरने तक अपनी भूमिका निभाता रहता है। ठीक यही जीवन के साथ होता है। इसीलिए दार्शनिकों ने इस दुनिया को रंगमंच कहा है। एक ऐसा रंगमंच जिसमें हर मनुष्य की भूमिका तय है। उसे अपनी भूमिका निभानी है और जीवन के यवनिका पतन के साथ अपनी भूमिका से मुक्त हो जाना है। यह जीवन दर्शन का एक गंभीर विषय है। आभा श्रीवास्तव की कविताओं में यह गंभीर दर्शन सहज रूप से प्रस्तुत हुआ है। इस संग्रह की उनकी कविताओं की खूबी यह है कि उन्होंने उसे ठीक वैसा ही प्रकाशित कराया है जैसा कि प्रथम बार में उन्होंने लिखा। अर्थात यह कहा जा सकता है कि इन कविताओं में भावों की मूल आत्मा माजूद है। कविता सृजन में कलमकारी और कलाकारी दोनों का अलग-अलग स्थान है। कलमकारी भावनाओं को शुद्ध खांटी रूप में प्रकट करती है, जबकि यदि उसमें कलाकारी की जाए अर्थात बार-बार शब्दों में हेरफेर किया जाए अथवा शब्द बदले जाएं तो कविता की शब्दवत्ता भले ही बढ़ जाए किन्तु अर्थवत्ता एवं भावनात्मक शुद्धता घट जाती है। बुनियादी रूप से कविता भावनाओं का विषय है, विचारों का नहीं। कविता में विचार भावनाओं की पतवार थाम कर यात्रा करते हैं, भावना विचार की नहीं। आभ श्रीवास्तव ने अपनी कविताओं को भावना की पतवार के द्वारा विचारों को पार उतारा है।
संग्रह की भूमिका में समीक्षात्मक दृष्टि से टिप्पणी करते हुए प्रो. बहादुर सिंह परमार आचार्य हिंदी अध्ययन शाला एवं शोध केंद्र महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर ने लिखा है कि ‘‘कविता में नारी संघर्ष को मार्मिक ढंग से रखा गया है। समाज की मानसिकता तथा उससे उठने वाले प्रश्न व अंगुलियों के मध्य एक नारी का जीवन कितनी यंत्रणाओं व परेशानियों से जूझता है, पाठकों के समक्ष रखा गया है। कुल मिलाकर संग्रह की कविताएं वस्तुगत वैविध्यपूर्ण हैं। भाषा सहज व सरल है। लय व प्रवाह में अभी अभ्यास की आवश्यकता प्रतीत होती है।’
        निःसंदेह निरंतर अभ्यास से शिल्प सधता है और कवयित्री इसे बखूबी साध सकती हैं, इसकी प्रचुर संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
छतरपुर की वरिष्ठ कवियित्री विमल बुंदेला ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ‘‘जीवन का यथार्थ रिश्तों की मिठास और कड़वाहट, स्वार्थों का टकराव व मानव मूल्यों के शिथिल होने वाले अवसाद। यह सब उनकी रचनाओं में परिलक्षित हो रहा है। तो दूसरी ओर अपनी मां के प्रति अटूट प्रेम व कर्म साधना के प्रति उनका अटूट विश्वास भी दिखाई दे रहा है।’’
कविताएं रचनाकार की मनःस्थिति स्वयं बयान कर देती हैं। आभा श्रीवास्तव की मंा पर केन्द्रित कविताएं यह बताती हैं कि उनके जीवन में मां का कितना अधिक महत्व था और उनका चिरविछोह उन्हें कितनी अधिक पीड़ा दे गया। मुत्यु शास्वत सत्य है। हर व्यक्ति को कभी न कभी किसी न किसी अपने को खोना पड़ता है, यह जानते हुए भी विछोह़ का दुख हर व्यक्ति के मन को एक समान पीड़ा देता है। एकाकी जीवन की पीड़ा भी उनकी कविताओं में व्यक्त हुई है। स्कूल शिक्षण विभाग से प्राचार्य पद से सेवामुक्त आभा श्रीवास्तव ने एक कामकाजी स्त्री की पीड़ा को भी बखूबी व्यक्त किया है। जब नौकरी मिलती है तो उत्साह छलकता है। स्फूर्ति रहती है। धीरे-धीरे सब कुछ दिनचर्या में ढल जाता है। फिर जब सेवानिवृत्ति होती है तो अहसास होता है कि नौकरी के दौरान आर्थिक उपलब्धि भले हासिल की किन्तु अपनों की निकटता की उष्मा को निरंतर खोना पड़ा। फिर भी कवयित्री निराश या हताश नहीं हैं। वे जीवन की दूसरी पारी को डट कर खेलने की प्रेरणा देती हैं। कविता की ये पंक्तियां देखिए-
सेवा निवृत्ति ने चेताया
जी थोडा और
अपने लिये भी जी ले
अपने मन की भी सुन।
छोड़ दे काम की धुन
चलता रह,
राह में मुस्कान भी जरूरी
एक निश्चित समय था
कमाने के लिये समय पूरा
हुआ एक बड़े काम का।
जिंदगी अभी ठहरी नहीं है
तू चल, चलता रह।
   एक कविता है ‘‘संबंधीजन’’। इस कविता में कवयित्री ने संबंधों के महत्व को रेखांकित करते हुए आगाह किया है कि मोबाईल पर चैटिंग और गेम्स ने लोगों को ऐसा उलझाया है कि रिश्तों के तार चटकने लगे हैं-
बचपन खेले खेल हजार।
इन सब पर जब किया विचार
मॉम डैड आँटी अंकल
बस इतने रिश्ते पास-पड़ोस अंजान
मोबाईल टी.बी. भगवान ।
गेम, सेम चेटिंग संदेह डर
असुरक्षित विकास की
राह शीघ्र पाने की चाह
सुकून की कल्पना
बूढी आँखे का इंतजार
संतान सात समंदर पार।
संबंधीजन लुप्त हो गये।
संबंधों से सब मुक्त हो गये।
   यह दूरी कवयित्री को सहेलियों के बीच भी दिखाई देती है और वे अपनी सखि से आग्रह करती हैं कि ‘‘चल बाहर टहलें’’। यह बाहर टहलना मात्र भ्रमण नहीं है, वरन खोती जा रहा परस्पर निकटता को पुनः सहेजने का आग्रह है-
ऐ री सखी।
सुन री सखी
पल भर बाहर निकलें,
थोड़ा टहलें।
तुम लिखती थी, सुंदर कविता,
ले आना वह डायरी।
सुन री सखी, तुम्हारा सुरीला राग,
भजन व गीतो, की साज आज सजाये मंडली।
सुन री सखी घर से निकले,
चल बाहर टहले।
शतरंज न खेली कब से।
गुड़िया का ब्याह, रचाया था तब ।
नाचे गाएं बेरी झाडी इमली में फेंकी ढेली
लुक-छिप खेली बचपन की मीठी याद करेंगे।
   संग्रह में ऐसी कई कविताएं हैं जो मन को गहरे स्पर्श करती हैं। कहीं-कहीं शिल्प भले ही तनिक कमजोर हो किन्तु भावाभिव्यक्ति सशक्त है। कवयित्री ने जैसा कि अपने पूर्वकथन में लिखा है कि वे ‘‘मूलरूप से कथाकार’’ हैं। किन्तु इन कविताओं से गुजरते कहा जा सकता है कि काव्यसृजन में भी उनमें भरपूर संभावनाएं हैं। बहरहाल, इस संग्रह का सबसे दुखद पक्ष यह है कि इसमें प्रकाशक का पन्ना ही नहीं हैं जिसमें प्रिंट लाइन होती है। इससे न तो इसके मुद्रक का पता चलता है और न ही मूल्य का। संग्रह का मुखपृष्ठ बहुरंगी है किन्तु नाम से तालमेल नहीं बिठा सका है। मुद्रण की त्रुटियां भी जहां-तहां मौजूद हैं। इस पक्ष को ध्यान में रखते हुए यही कहा जा सकता है कि आभा श्रीवास्तव अपनी इन सारगर्भित कविताओं के संग्रह को सावधानी पूर्वक पुनः प्रकाशित कराएं जिससे उनकी ये उम्दा कविताएं अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंच सकें। 
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