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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, April 19, 2024

शून्यकाल | क्या इतिहास खुद को कभी दोहरा सकेगा? (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम...      
शून्यकाल
क्या इतिहास खुद को कभी दोहरा सकेगा?
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          चाहे प्राचीन भारत का इतिहास उठा कर देखा जाए या मध्यकालीन भारतीय इतिहास, एकाध शासक को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो 99 प्रतिशत शासकों ने जनहित और प्रकृति हित को एक साथ साधा। वे चाहे मौर्य थे, गुप्त थे, तुगलक या सूरी थे, सभी ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की एक नीति को अवश्य दोहराया। यूं भी कहा जाता है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। क्या प्रकृति संरक्षण के संदर्भ में यह कहावत कभी खरी उतर सकेगी? 
      अभी चंद दिनों पहले की बात है, मैं मकरोनिया से सिविल लाईन जा रही थी। उस मार्ग पर कई महीनों से चौड़ीकरण का कार्य चल रहा है। उस मार्ग के दोनों ओर आर्मी क्षेत्र होने के कारण अंग्रेजों के समय से बड़े-बड़े वृक्ष लगे हुए हैं। मैंने देखा कि उनमें से कई पेड़ सड़क चौड़ीकरण की भेंट चढ़ गए थे। उनके कटे हुए ठूंठ देख कर रोना आ गया। जनसंख्या के बढ़ता दबाव और गाड़ियों की बहुसंख्या ने विवश कर दिया कि सड़कें चौड़ी की जाएं। यह एक जरूरत है जिसको पूरा करना भी आवश्यक है। मकरोनिया से सिविल लाईन के इस मार्ग पर एक पुल है जिसका नाम है कठवा पुल। उसके बारे में बताया जाता है कि अंग्रेजों के समय वहां लकड़ी का पुल था जिसके कारण उस पुल का नाम कठवा पुल पड़ा। इस कठवा पुल के पास हनुमान जी का पुराना मंदिर है। वे भी कठवापुल वाले हनुमान जी के नाम से प्रसिद्ध हैं। कालान्तर में कठवा यानी लकड़ी के पुल के स्थान पर सीमेंट का पुल बना दिया गया। लेकिन उसका नाम कठवापुल ही बना रहा। सीमेंट का बेहद मजबूत पुल। आज भी उसके अवशेष उसकी मजबूती की गवाही देते हैं। अब सड़क चौड़ीकरण के तहत उसे भी तोड़ कर चौड़ा किया जा रहा है। यह सब वर्तमान आवश्यकताओं को देखते हुए उचित लगता है। किन्तु इन सबके पीछे जो कुछ अनुचित धटित हो रहा है, वह दुखदायी है। वर्षों पुराने विशालकाय वृक्षों को काटा जाना पर्यावरण की दृष्टि से अनुचित है और भावी जलवायु संकट को देखते हुए दुखदाई है।
        ऐसा नहीं है कि पहले सड़कें नहीं बनीं अथवा पेड़ नहीं काटे गए। भारतीय इतिहास जो कि वस्तुतः राजवंशों का इतिहास है, उसे उठा कर देखें तो प्रत्येक राजा ने अपने राज्य का विस्तार किया। नए गांव, शहर बसाए। और विजित प्रदेशों, राज्यों तक पहुंच-मार्गों का विकास किया। परिवहन के तत्कालीन साधनों के अनुरुप सड़कें विकसित कीं। चाहे मौर्य वंश हो गुप्त वंश हो सभी राजाओं के आंतरिक नीतियों को देखें तो यही प्रमाण मिलते हैं कि उन्होंने सड़कें बनवाईं और उन सड़कों के किनारे फल वाले छायादार वृक्ष लगवाए। स्थान-स्थान पर कुए खुदवाए और राहगीरों के निःशुल्क विश्राम के लिए धर्मशालाएं बनवाईं। भारतीय इतिहास के प्राचीनकालीन इतिहास के समापन के बाद ऐबक, खिल्जी, लोदी, सूरी आदि गैर भारतीय शासकों का शासनकाल आया। इन शासकों ने भी सत्ता सम्हालने के बाद अपने आधिपत्य वाले क्षेत्रों में सड़कें बनवाईं और सड़कों के किनारे फलदार एवं छायादार वृक्ष लगवाए। कुए और बावड़ियां खुदवाईं तथा सराय बनवाए। इनके बाद मुगलकाल को देखें तो मुगल कालीन शासकों ने भी इस नीति को यथावत रखा। अर्थात् सड़कों के साथ वृक्ष लगवाना और जल की व्यवस्था करना, सराय खुलवाना वे नहीं भूले। इस पूरे दौर में जो भारतवंशीय राजा थे, उन्होंने भी अपने-अपने देशों में इसी प्रकार के कार्य कराए। आज भी राजस्थान के किलों के आसपास पुरानी सड़कें और पानी की व्यवस्था देखी जा सकती है। कालंजर, धामोनी, चंदेरी, झांसी आदि सभी जगह सड़कों के किनारे पुराने वृक्ष तब तक मौजूद रहे हैं जब तक उन्हें काटा नहीं गया।
        न जाने कितनी कहानियां इन छायादार वृक्षों के नीचे से कही और सुनी गई हैं। बचपन में मैंने अपने नानाजी से एक कहानी सुनी थी। कहानी कुछ इस प्रकार थी कि एक राजा ने अपने राज्य से दूसरे राज्य तक एक नई सड़क बनवाई। उसने वृक्ष तो लगवाए लेकिन इतनी दूर-दूर पर कि राहगीरों को लगातार छाया नहीं मिल पाती थी। इससे राहगीर परेशान हो जाते थे लेकिन किसी में इतना साहस नहीं था कि वे इस बारे में राजा से शिकायत कर सकें। एक बार दो राहगीर एक वृक्ष के नीचे सुस्ताने को बैठे और आपस में बातें करने लगे। उनकी चर्चा का विषय यही था कि अगर जरा पास-पास पेड़ लगाए गए होते तो अच्छा रहता। जिस पेड़ के नीचे वे दोनों बैठे ये बातें कर रहे थे, उसी पेड़ पर एक चिड़िया बैठी थी। उसने दोनों की बातें सुनीं और सोचने लगी कि इस समस्या का हल निकालना पड़ेगा। दूसरे दिन वह चिड़िया राजमहल पहुंची। और राजा के साथ भ्रमण पर निकल पड़ी। वह राजा के आगे-आगे उड़ रही थी। राजा ने देखा कि वह कुछ दूर जाती है और फिर एक बीज बो देती है। यह देख कर राजा को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया से पूछा कि ‘‘ये तुम क्या कर रही हो?’’ तो उसने कहा ‘‘राजन! जो काम आपसे छूट गया उसे मैं पूरा कर रही हूं ताकि लोग आपको न कोसें।’’ फिर उसने राहगीरों की समस्या के बारे में बताया। यह सुन कर राजा को अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने दो वृ़क्षों की लंबी दूरी के बीच भी वृक्ष लगवाए। आज तो चिड़ियां अपने ही घरों को उजड़ने से नहीं बचा पा रही हैं तो मनुष्यों की भला क्या सहायता कर सकेंगी? और ऐसे राजा भी नहीं हैं जो चिड़िया की बात सुन कर अपनी चूक सुधार लें। 
        आज कहानी नहीं किन्तु इतिहास को सामने रख कर उससे सबक लिया जा सकता है। लेकिन अफ़सोस कि आज इतिहास से भी अपने मतलब चीजें ही छांटी जाती हैं। आज सड़कों के किनारे ढाबे, होटल्स, रिसाॅर्ट्स तो अनेक हैं लेकिन निःशुल्क धर्मशाला और सराय गायब हो गए हैं। यहां तक कि छाया और पानी भी निःशुल्क नहीं मिलते हैं। एक से एक सुविधाएं हैं किन्तु पैसे खर्च करने पर उपलब्ध हैं। भय और अविश्वास का वातावरण इतना गहरा चुका है कि कोई भी व्यक्ति आज अनजान पाहुने को पनाह देने का जोखिम नहीं उठाना चाहता है। शहरों के अंदर भी लगभग यही दशा है। कड़क धूप में दो घड़ी की छांह भी मिलनी कठिन हो गई है। जबकि सरायों ने भी न जाने कितने किस्सों को जन्म दिया। बुंदेलखंड में ही ठग और पिंडारियों के जमाने की एक कथा कही-सुनी जाती रही है कि एक बुजर्ग व्यापारी अपनी बैलगाड़ी से सागर से जबलपुर की ओर जा रहा था। रास्ते में उसे एक युवा व्यापारी मिल गया। वह भी सागर से जबलपुर जा रहा था। दोनों साथ हो लिए। युवा व्यापारी ने बुजुर्ग व्यापारी से कहा कि वे दोनों अपनी-अपनी बैलगाड़ी में बैठे रहें तो यात्रा में उकता जाएंगे। इसलिए दोनों एक बैलगाड़ी में बैठ जाते हैं और दूसरी वाली को पीेछे बांध के ले चलते हैं। बुजुर्ग व्यापारी मान गया। कुछ मील दोनों आराम से बातें करते चलते रहे। फिर उस बुजुर्ग व्यापारी को नींद आने लगी। वह झपकने लगा। युवा व्यापारी ने उससे कहा कि चल कर अगली सराय में ठहर जाते हैं। वहां थोड़ा आराम कर के फिर दोनों आगे बढ़ेंगे। बुजुर्ग व्यापारी मान गया। दोनों सराय पहुंचे। थका हुआ बुजुर्ग व्यापारी जल्दी ही गहरी नींद में सो गया। उस युवा व्यापारी ने बुजुर्ग व्यापारी का सारा सामान समेटा और वहां से भाग खड़ा हुआ। जब बुजुर्ग व्यापारी की नींद खुली और उसने उस युवा व्यापारी और अपने सामान को नदारत पाया तो समझ गया कि दरअसल वह व्यापारी नहीं बल्कि एक ठग था जो उसे लूट कर भाग गया। लेकिन पेड़ पर बैठे एक कौवे ने उसे देख लिया था। वह कांव-कांव करता उसके साथ चलने लगा। युवा व्यापारी ने कौवे को भगाने कोशिश की लेकिन वह नहीं भागा। यह देख कर लोगों को शक हुआ और उन्होंने उस ठग को पकड़ लिया। यह कहानी सभी यात्रियों के लिए एक सबक के रूप में सुनाई जाती रही। यदि सराय नहीं होती तो यह कहानी भी नहीं होती और जो सड़कें नहीं होतीं तो सराय भी नहीं होती। और जो छायादार वृक्ष न होते तो कहानी का वह कौवा भी नहीं होता।            
         यदि इतिहास अपने आप को दोहराता है तो सड़क के चौड़ीकरण के बाद सड़कों के दोनों किनारों पर फल और छायादार वृक्षों का इतिहास क्यों नहीं दोहराया जा रहा है? विभिन्न राज्यों में दो लेन से लेकर आठ और बारह लेन तक की सड़कें बन चुकी हैं। यह सड़कों के चौड़ीकरण की ही प्रक्रिया है। इसी तरह की किसी भी सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगाने की जरूरत नहीं समझी गई। प्रकृतिप्रेम और प्रकृति की सुंदरता की गोया ‘‘डमी’’ दिखाने के लिए इन चौड़ी सड़कों के बीच डिवाईडर्स पर बोगनबिलिया जैसे फूलदार पेड़ लगा दिए गए हैं जिन्हें ट्रिम कर के बौना ही बनाए रखा जाता है। यूं भी डिवाईडर पर वृक्ष तो लगाए नहीं जा सकते हें। यानी हम विकास की घटनाएं तो दोहरा रहे हैं लेकिन प्रकृति के संरक्षण के इतिहास को नहीं दोहरा रहे हैं।       
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