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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, April 23, 2024

पुस्तक समीक्षा | ये सिर्फ़ शायर की नहीं, अपने समय की प्रतिनिधि ग़ज़लें हैं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 23.04.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई हरेराम समीप जी के ग़ज़ल संग्रह  "प्रतिनिधि ग़ज़लें हरेराम समीप" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
ये सिर्फ़ शायर की नहीं, अपने समय की प्रतिनिधि ग़ज़लें  हैं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह- प्रतिनिधि ग़ज़लें हरेराम नेमा ‘समीप’
कवि           - हरेराम नेमा ‘समीप’
प्रकाशक    - हिंदी साहित्य निकेतन, 16 साहित्य विहार, बिजनौर (उ०प्र०) 246701
मूल्य          - 250/-
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‘‘प्रतिनिधि ग़ज़लें हरेराम नेमा ‘समीप’’’- यह ग़ज़ल संग्रह हिंदी ग़ज़ल यात्रा श्रृंखला के अंतर्गत हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर द्वारा प्रकाशित की गई है। हरेराम नेमा ‘समीप’ हिंदी साहित्य जगत में ‘हरेराम समीप’ के नाम से जाने जाते हैं। 13 अगस्त 1951 को नरसिंहपुर (म.प्र.) में जन्में हरेराम ‘समीप’ फरीदाबाद के निवासरत हैं। वाणिज्य एवं विधि में स्नातक इस कवि ने दोहा, कविता, कहानी, आदि विविध विधाओं में लेखन किया, किन्तु जब वे हिंदी ग़ज़ल विधा में प्रविष्ट हुए तो हिंदी ग़ज़ल की स्थापना में अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। पहले उर्दू ग़ज़ल के शिल्प और व्याकरण को उन्होंने समझा और फिर हिन्दी ग़ज़ल के शिल्प और व्याकरण पर केन्द्रित पुस्तकें लिखीं। जैसे- ‘‘हिंदी ग़ज़लकार एक अध्ययन’’ (चार खंड), ‘‘हिंदी ग़ज़ल की परंपरा’’, ‘‘हिंदी ग़ज़ल की पहचान’’ आदि। इन आलोचनात्मक पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने कई ग़ज़ल संग्रहों का संपादन भी किया। साथ ही वे स्वयं एक चर्चित ग़ज़लकार हैं।

‘‘प्रतिनिधि ग़ज़लें हरेराम नेमा समीप’’ में संग्रहीत हरेराम समीप की ग़ज़लों पर दृष्टिपात करने के पूर्व इस बात की चर्चा कर ली जाए कि साहित्य निकेतन को इस प्रकार के संग्रह प्रकाशित करने का विचार कैसे आया? इस संबंध में संग्रह के आमुख में डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल ने योजना के उद्देश्य के बारे में विस्तार से लिखा है -‘‘किसी पाठक के लिए यह संभव नहीं होता कि वह एक साहित्यकार के सभी प्रकाशित गजल-संग्रहों को पढ़ सके। हिंदीभाषा में गजल लिख रहे, चुने हुए साहित्यकारों/रचनाकारों के प्रतिनिधि गजल-संग्रह प्रकाशित करने के पीछे प्रमुख उद्देश्य यही है कि पाठकों को एक स्थान पर ऐसे रचनाकारों की प्रतिनिधि गजलों को प्रस्तुत किया जाए, जिन्होंने पिछले 30-35 वर्षों में पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। इस कड़ी में नए और पुराने, दोनों ही रचनाकारों की कृतियों को शामिल करने की कोशिश की गई है। हम यह दावा भी नहीं करते कि प्रतिनिधि गजलों के लिए जिन रचनाकारों का चयन किया गया है, वे पूरे हिंदी गजल-संसार का प्रतिनिधित्व करते हैं।’’
इसके साथ ही डाॅ. अग्रवाल ने इन प्रतिनिधि ग़ज़लों के चयन के संबंध में भी जानकारी दी है कि -‘‘प्रतिनिधि गजलों का चयन पूरी तरह रचनाकारों ने किया है, इसमें संपादक की कोई भूमिका नहीं है। एक रचनाकार बेहतर जानता है कि उसकी कौन-सी गजलें उसकी रचनात्मकता का प्रतिनिधित्व करती हैं।’’
वैसे देखा जाए तो किसी भी रचनाकार के लिए यह सबसे दुरूह काम है कि वह अपनी रचनाओं में से स्वयं अपनी प्रतिनिधि रचनाएं चुने। हर रचनाकार को उसकी अमूमन सभी रचनाएं अच्छी लगती हैं क्योंकि वह तो अपनी सभी रचनाओं का सर्जक होता है। यह भी सच है कि रचनाकार को अपनी कुछ रचनाएं अपने दिल के बहुत करीब लगती हैं, उन्हें वह बार-बार पढ़ना और सुनाना पसंद करता है। किन्तु यहां कुछ रचनाओं का प्रश्न नहीं अपितु इस संग्रह में संकलित करने हेतु 96 ग़ज़लों को चुनने की चुनौती थी। इस संबंध में हरेराम ‘समीप’ ने आत्मकथन में लिखा है- ‘‘प्रस्तुत संकलन में मेरे सभी गजल संग्रहों से चुनी हुई 96 गजलें हैं। सन 1980 के आसपास गीत लिखते हुए मुझे गजल का संग-साथ मिला। तब मैंने उर्दू भाषा और साहित्य का विस्तृत अध्ययन किया, उर्दू-गजल परंपरा और हिंदी-राजल-परंपरा को जानने, समझने का भी प्रयास किया और तब हिंदी में गजलें लिखना प्रारंभ किया साथ ही हिंदी-गजल-आलोचना पर कुछ लिखने का प्रयत्न किया। मैंने ये गजलें कभी समय बिताने या मात्र वाहवाही लूटने के लिए नहीं लिखी हैं, बल्कि इनके जरिए मैंने अपनी भावनाओं को ही शब्द देने का प्रयास किया है। इन गजलों के जरिए मैंने जीवन का ताप और गहन यथार्थ-बोध को विकसित करने का भी प्रयास किया है। दरअसल, मैंने बचपन से अपने गांव में बेहद अभाव, अन्याय, अपमान, अत्याचार और तिरस्कार के बीच कठिन संघर्षमय जीवन जिया था। फिर गांव से नगर में आकर रहने के दौरान मैंने व्यक्ति, परिवार, समाज और सत्ता की कथनी-करनी में इतनी विसंगतियां पाई थीं कि मेरा मन प्रश्नों व बेचैनियों का एक गोदाम बन गया। चूंकि ये गजलें मेरी इसी बेचैनी, इसी प्रश्नाकुलता और इसी छटपटाहट के शब्द-चित्र बनकर उतरी हैं, इसलिए ये गजलें अपने वर्तमान से साक्षात्कार भी कर रही हैं और आज के जीवन की छवियां भी प्रस्तुत कर रही हैं। अतः मैं इन्हें जिंदगी के अधिक करीब की गजलें मानता हूं।’’

पीड़ा वह स्थिति है जो व्यक्ति को तोड़ देती है, मिटा देती है किन्तु जो व्यक्ति पीड़ा से स्वयं को उबार कर संघर्ष करता चला जाता है, पीड़ा उसके लिए नींव का पत्थर साबित होती है। यदि एक रचनाकार पीड़ा से हो कर गुज़रा हो तो उसकी लेखनी की धार अलग ही होती है क्योंकि उसमें जीवन के यथार्थ का प्रतिबिम्ब होता है। ऐसा रचनाकार समय की नब्ज़ को पकड़ना जानता है। हरेराम समीप भी एक ऐसे ग़ज़लकार हैं जिन्होंने अपने आरंभिक जीवन से मिली पीड़ा को जीवन की सच्चाइयों को समझने और उसे उजागर करने का हथियार बनाया। यह किसी के प्राण लेने वाला हथियार नहीं वरन सोई हुई चेतना में प्राण फूंकने वाला हथियार था। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में वह सब कुछ कहा जो उन्हें कहना आवश्यक लगा। संग्रह की पहली ग़ज़ल ही इस तथ्य की बानगी है-  
कराहें  तेज  होती जा रही हैं।
दिलों में मौन बोती जा रही हैं।
दवाखाने को दौलत की पड़ी है,
हमारी सांसें खोती जा रही हैं।
बदल दो नाम अब अच्छाइयों का,
ये अपने अर्थ खोती जा रही हैं।

एक आम आदमी अपना सारा जीवन अपने परिवार की खुशियों के सपने देखने में बिता देता है। ऐसा नहीं है कि वह अपने सपने सच करने की कोशिश नहीं करता, वह जी-तोड़ कोशिश करता है लेकिन अपने सपने सच नहीं कर पाता है। एक आम आदमी का सपना होता ही क्या है? सबसे पहले एक अदद अपना घर। यह अपना घर सबको नसीब नहीं हो पाता है। इस सच्चाई को हरेराम समीप ने बड़ी सहजता से बयान किया है-
मेरा घर नक्शे में है।
नक्शा भी सपने में है।
इक पीपल गमले में है,
ज्यों ‘‘छोटू’’ ढाबे में है।
बेचारा वो इक पौधा,
बरगद के साये में है।

ये सपने ही तो हैं जो इंसान को गांव से शहरों की ओर खींच ले जाते हैं। जबकि शहर भी हर किसी के सपने सच नहीं करता, अधिकांश मात्र जूझते रह जाते हैं। गांव की चिरपरिचित सड़कें छोड़ने के बाद शहर की अपरिचित सड़कें इंसान का वज़ूद ही बदल देती हैं। शायर हरेराम समीप के ये कुछ शेर देखिए जिनमें एक कड़वी सच्चाई है कि सपने भी किस तरह कर्ज़ की भेंट चढ़ते जाते हैं-
गांव का वो कोहिनूर ।
शहर में बंधुआ मजूर।
फिर अदालत किसलिए,
क़ैद में हैं बेक़सूर।
अनवरत यह सिलसिला,
बाप, फिर बेटा मजूर।

हरेराम समीप अपने समय के यथार्थ को न केवल बीरीकी से समझते हैं वरन उसे अपनी ग़ज़लों में उतनी ही बारीकी से प्रस्तुत भी करते हैं-
सूरज दिखा के हमको नए इश्तिहार में।
ले जा  रहा  वो  राहनुमा  अंधकार में।
सब-कुछ तो बेचने पे तुला है वो आजकल,
पानी, हवा,  प्रकाश,  जमीं कारोबार में।
आज बाज़ारवाद में भौतिक वस्तुओं की अंधी दौड़ है। प्रिज, टीवी, कार, इलेक्ट्रानिक गेजेट्स आदि आज इंसान को सब कुछ चाहिए क्योंकि बाजार ऐसा चाहता है। इसके लिए बाज़ार ही कर्ज़ का कारोबार भी करता है और जो नतीजा होता है वह इस शेर में देखा जा सकता है-
जिंदगी हमने यूं गुजारी है।
आय से सौ गुना उधारी है।

 इस संग्रह में संग्रहीत हर ग़ज़ल की अपनी एक अलग ताब है। इन सभी को पढ़ना हरेराम समीप के हिंदी ग़ज़ल सृजन को गहराई से जानने के लिए जरूरी है। इस प्रकार की संग्रह श्रृंखला प्रकाशित करने की योजना भी प्रशंसनीय है क्योंकि इससे शोधार्थियों को हिंदी ग़ज़ल के विकास को जानने और किसी भी विशेष शायर की प्रतिनिधि हिंदी ग़ज़लों को पढ़ने का अवसर मिलेगा। निश्चित रूप से यह महत्वपूर्ण ग़ज़ल संग्रह है। इस संग्रह में संग्रहीत हरेराम नेमा ‘समीप’ की 96 ग़ज़लें एक शायर की प्रतिनिधि ग़ज़लें नहीं, अपने समय की प्रतिनिधि ग़ज़लें हैं। इनके द्वारा वर्तमान समय को भी समझा और परखा जा सकता है।
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