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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, April 30, 2024

पुस्तक समीक्षा | बेगम समरू का सच : इतिहास की रोचक औपन्यासिक प्रस्तुति | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 30.04.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई राजगोपाल सिंह वर्मा जी के उपन्यास  "बेगम समरू का सच" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा       
बेगम समरू का सच : इतिहास की रोचक औपन्यासिक प्रस्तुति
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - बेगम समरू का सच
लेखक - राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक - संवाद प्रकाशन, आई-499, शास्त्री नगर, मेरठ - 250004 (उप्र)
मूल्य  - 300/-
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‘‘बेगम समरू का सच’’ पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार से सम्मानित लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा द्वारा लिखी गई औपन्यासिक जीवनी है। एक ऐसी बेगम की जीवनी जिसे इतिहास ने लगभग भुला दिया। जबकि वह एक नाटकीय जीवन जीती हुई सबसे ताकतवर बेगम साबित हुई थी। यूं तो वह सरधना की रानी थी लेकिन उसने अपनी सियासी चतुराई से सन 1778 से 1836 तक मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना से अलीगढ़ के टप्पल तक राज किया। इस शक्तिसम्पन्न बेगम का नाम था बेगम समरू। पुरानी दिल्ली के भगीरथ पैलेस में जहां आज स्टेट बैंक की की शाखा है, कभी वह भगीरथ पैलेस बेगम समरू का महल हुआ करता था। बेगम समरू की अपनी सेना थी और अपना साम्राज्य था। बेगम समरू किसी शाही खानदान से नहीं थी। वह एक ऐसे परिवार में जन्मी थी जहां उसका पिता उसकी मां की सौत ले आया और पिता की मृत्यु के बाद सौतेले भाई ने मां-बेटी दोनों को धक्के मार कर घर से निकाल दिया। निराश्रित मां-बेटी ठोंकरें खाती दिल्ली पहुंचीं। वहां उन्हें जिसने सहारा दिया वह उस समय दिल्ली की सबसे बड़ी तवायफ हुआ करती थी। बेगम समरू जिसका मूल नाम फरजाना था, परिस्थितिवश एक तवायफ बन गई। एक तवायफ बेगम के सम्मानित ओहदे तक कैसे पहुंची और कैसे उसने एक ताकतवर बेगम बन कर अपना जीवन जिया, यह सब कुछ लेखबद्ध किया है लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने अपने इस औपन्यासिक जीवनी पुस्तक ‘‘बेगम समरू का सच’’ में।

इतिहास पर आधारित किसी भी विधा की पुस्तक लिखना अपने आप में एक चुनौती भरा काम होता है। इस प्रकार का लेखन अथक श्रम और अटूट धैर्य मांगता है। यूं भी सच की गहराइयों की थाह लेने वही व्यक्ति अतीत के सागर में उतर सकता है जिसमें मेहनत का माद्दा हो और जो तब तक डुबकियां लगाता रहे जब तक कि पूरी सच्चाई उसे हासिल न हो जाए। यही कारण है कि इतिहास आधारित लेखन के क्षेत्र में कम ही लोग प्रवृ्त्त होते हैं। इस प्रकार के लेखन में गहन शोध आवश्यक होता है। हर प्रकार के साक्ष्य ढूंढने और परखने पड़ते हैं। फिर उन्हें लिपिबद्ध करते समय सावधानी बरतनी पड़ती है कि उसमें कल्पना का उतना ही समावेश हो जितने में यथार्थ पर आंच न आए। जिन्होंने भी इतिहास को आधार बना कर साहित्य सृजन किया और उसमें कोताही बरती है, उन्हें कभी न कभी समय के कटघरे में स्वयं भी खड़े होना पड़ा है। इतिहास और समय दोनों ही कठोर होते हैं।
‘‘बेगम समरू का सच’’ की प्रस्तावना ‘‘अमर उजाला’’ और ‘‘जनसत्ता’’ के पूर्व संपादक शंभुनाथ शुक्ल ने लिखी है। उन्होंने बड़े ही तार्किक ढंग से वृंदावन लाल वर्मा और अमृत लाल नागर को कटघरे में खड़ा किया है। उन्होंने लिखा है कि -‘‘बाबू वृंदावनलाल वर्मा और पंडित अमृतलाल नागर ने तमाम ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उपन्यास लिखे हैं, लेकिन उनमें इतिहास कम उनकी लेखनी का कमाल ज्यादा दिखता है। यहां तक, कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर आधारित उपन्यास लिखते हुए भी वे बहक गए प्रतीत होते हैं। जबकि जब उन्होंने वह उपन्यास लिखा था, तब तक रानी को रू-ब-रू देखने वाले लोग भी मौजूद थे पर उन्होंने सच्चाई को नहीं, अपनी श्रद्धा को ही अपने उपन्यास का आधार बनाया। नतीजा यह निकला, कि उनका रानी लक्ष्मीबाई पर लिखा उपन्यास महज एक फिक्शन साबित हुआ। उसकी ऐतिहासिकता को कोई नहीं मानता। वे अगर विष्णु भट्ट गोडसे का ‘माझा प्रवास’ ही पढ़ लेते तो भी रानी के बारे में एक अधिकृत उपन्यास लिख सकते थे। उन्हें सागर छावनी के खरीते पढने थे। लेविस और ह्यूरोज के बयान भी, पर ऐसा कुछ उन्होंने नहीं किया। इसी तरह पंडित अमृतलाल नागर ने भी ऐतिहासिक उपन्यासों पर अपनी कल्पना को ज्यादा ऊपर रखा है। ‘गदर के फूल’ में इसकी बानगी देखने को मिलती है।’’ वहीं वे महाश्वेता देवी की प्रशंसा भी करते हैं कि ‘‘जबकि इनके विपरीत बांग्ला की कथा लेखिका महाश्वेता देवी अपने उपन्यास ‘झांसी की रानी’ में रानी के साथ ज्यादा न्याय करती दिखती हैं। वे इतिहास को तथ्यों के साथ लिखती हैं। बस वह साहित्य की शैली में लिखा जाता है, ताकि पाठक खुद को भी उपन्यास से बांधे रखे।’’

यहां पुस्तक की विषयवस्तु के साथ पाठक को ‘‘बांधे रखना’’ भी एक चुनौती है। यदि पुस्तक में इतिहास लेखन की सपाट बयानी होगी तो साहित्य पढ़ने के विचार से पुस्तक खोलने वाला व्यक्ति दो पृष्ठ पढ़ कर ही उसे एक ओर रख देगा। वहीं यदि इतिहास के तथ्यों को दबा कर कल्पना को प्रभावी कर दिया जाएगा तो पुस्तक की विषयवस्तु रोचक तो लगेगी लेकिन एक मामूली फिक्शन की भांति शीघ्र विस्मृत होने लगेगी। पाठक के लिए इस पर भरोसा करना कठिन हो जाएगा कि ऐसा व्यक्ति वस्तुतः था भी या नहीं? अतः आवश्यक हो जाता है कि इतिहास के तथ्यों एवं कल्पना के प्रतिशत में ऐसा संतुलन रखा जाए कि पढ़ने वाला उस सच को तन्मय हो कर पढ़े और जब आंख मूंदें तो अपने कल्पनालोक में पुस्तक के पात्रों को विचरण करता हुआ पाए, बिलकुल खांटी यथार्थ की भांति। लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू के जीवन के सच को लिखते हुए इस संतुलन को बखूबी बनाए रखा है। इस औपन्यासिक जीवनी का आरम्भ चावड़ी बाज़ार के कोठे के दृश्य से होता है। लेखक ने कल्पना की है कि उस समय वहां का दृश्य कैसा रहा होगा। यह कल्पना तत्कालीन यथार्थ से जोड़ने के लिए आवश्यक तत्व है जिसे ‘‘हुकअप’’ करना कहते हैं। जब कोई पाठक पढ़ना प्रारम्भ करेगा तो उसकी पुस्तक की विषयवस्तु के प्रति दिलचस्पी शुरू के चंद पन्नों से ही जागेगी। फिर जब एक बार वह रुचि ले कर, जिज्ञासु हो कर पढ़ना आरम्भ कर देगा तो, पूरी पुस्तक पढ़ कर ही थमेगा। यह लेखन कौशल अपना कर राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू की जीवनी को रोचक एवं पठनीय ढंग से प्रस्तुत किया है। सम्पूर्ण कथानक को कुल 33 अध्यायों में रखा है। जैसे- 1.रंगमंच सारीखा परिदृश्य, 2.काल, समय और उद्भव, 3.तत्कालीन इलाके की सामाजिक और भौगोलिक स्थितियां 4.सफर फरजाना का 5.कौन था रेन्हार्ट सोंब्रे उर्फ समरू साहब 6.रेन्हार्ट सोंब्रे की यह कैसी थी मोहब्बत 7.एक नया उजाला था वह आदि। यहां अध्यायों का नामकरण करने में लेखक से एक छोटी-सी चूक हुई है। अर्थात् जिस तरह उन्होंने प्रथम अध्याय ही पूरी रोचकता के साथ आरम्भ किया है वहीं, प्रथम अध्याय से पूर्व दिए गए अध्यायों के अनुक्रम में ‘‘काल, समय और उद्भव’’ तथा ‘‘तत्कालीन इलाके की सामाजिक और भौगोलिक स्थितियां’’ जैसे शीर्षक दे कर किसी शोधग्रंथ के होने का आभास करा दिया है। यद्यपि शेष शीर्षक रोचक एवं जिज्ञासा जगाने वाले हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि लेखक ने अथक श्रम करके वे एक-एक दस्तावेज और तथ्य जुटाए जिससे बेगम समरू के जीवन की सही एवं सटीक तस्वीर सामने आ सके। उनका यह श्रम प्रशंसनीय है। यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि लेखन ने इतिहास के पन्नों से जिस वास्तविक पात्र को उठाया, उसके साथ पूरा न्याय किया। इस पुस्तक को लिखने के लिए राजगोपाल सिंह वर्मा ने भारतीय, ब्रिटिश, फ्रेंच के दस्तावेजों से उन सभी सामग्रियों को जुटाया जिनमें बेगम समरू के बारे में जानकारी थी। फिर भारतीय अनुवादकों, लेखकों एवं इतिहासकारों द्वारा बेगम समरू के बारे में लिखी गई तमाम सामग्रियों का तुलनात्मक अध्ययन किया। वे किसी एक सोर्स (स्रोत) पर नहीं रुके, अपितु उन्होंने बेगम समरू के नाम से ले कर सरधना के नाम तक के लिए अनेक सोर्स खंगाल डाले। जैसा कि उन्होंने पुस्तक के अंतिम पृष्ठों में दिए गए परिशिष्ट में लिखा है- ‘‘माइकल नारन्युल को एक अच्छा फ्रेंच लेखक माना जाता है। अगर वह बेगम को एक वेश्या कहते हैं, तो उनके लेखन को नाच-गर्ल और एक वेश्या में अंतर न समझने की भूल मात्र नहीं माना जा सकती है। अतिरिक्त रूप से, जब रणजीत सिन्हा जैसा विद्वान उसका हुबहू अनुवाद कर, यह भूल सुधार कर प्रस्तुत करने की कोशिश न करे, तो कष्ट होता है। यह वह रणजीत सिन्हा हैं जिन्होंने ‘द देल्ही ऑफ सुलतान’, ‘लोदी गार्डन’ के अलावा तमाम यात्रा-वृत्तांत लिखे हैं। वह फ्रेंच में पीएच डी हैं और भाषा तथा शब्दों की पेचीदगियों से अच्छे से वाकिफ हैं। पर, दोष उनका इतना नहीं है, जितना मूल लेखक का है। अभिलेखागारों में जब हम इतिहास के पन्नों को पलटते हैं, तो फरजाना, उर्फ जेबुन्निसा उर्फ बेगम समरू उर्फ जोहाना नोबिलिस को कहीं भी एक वेश्या के रूप में नहीं बताया गया है। नृत्य कर महफिल सजाना, और उसके लिए पैसे वसूलना, ‘नाच-गर्ल’ के रूप में तब भी जायज था। आज भी है। वह कोई देह व्यापार नहीं था। उस कला का सम्मान तब भी किया जाता था और आज भी। ऐसे में उस कला में रत महिला को नर्तकी के स्थान पर श्वेश्याश् कहना अनुचित और अन्यायपूर्ण है। ऐसा लिखने की जरूरत क्यूं आ पड़ी, समझ से परे भी है! सरधना और फरजाना के इतिहास में यह तथ्य भली-भांति परिभाषित है कि फरजाना को ‘नाच-गर्ल’ किस मजबूरी में बनना पडा।’’
यह एक ऐसी औपन्यासिक जीवनी है जिसे पढ़ कर उस महिला के व्यक्तित्व के बारे में जाना जा सकता है जो अंग्रेजों के समय निडरता से अपनी सत्ता चलाती रही। मुगल बादशाह शाहआलम भी जिसकी योग्यता को स्वीकार करता था। उसका जीवन तवायफ के रूप में शुरू हुआ किन्तु वह मृत्यु को प्राप्त हुई एक ताकतवर रानी के रूप में। जिसे इतिहासकारों ने भी उपेक्षित रखा, ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व के जीवन के सच को सामने ला कर लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने सचमुच एक उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण कार्य किया है। लेखक ने इसे ‘उपन्यास’ कहा है, वहीं प्रकाशक ने इसे ‘जीवनी’ के अंतर्गत प्रकाशित किया है। यूं भी इस उपन्यास में एक बेगम की जीवनी ही है अतः इसे औपन्यासिक जीवनी के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। यदि इस पुस्तक की लेखन शैली की बात की जाए तो इसे उन लोगों को अवश्य पढ़ना चाहिए जो ऐतिहासिक व्यक्तियों, तथ्यों एवं प्रसंगों पर उपन्यास अथवा जीवनी लिखना चाहते हैं। यह पुस्तक हर पाठक को इतिहास से जोड़ने में सक्षम है। इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।           
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