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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, April 9, 2024

पुस्तक समीक्षा | ओस की बूंद के स्पर्श-सी जीवंत कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 09.04.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ संध्या टिकेकर जी के काव्य संग्रह  "तुम नदी हो" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
ओस की बूंद के स्पर्श-सी जीवंत कविताएं
- समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - नदी हो तुम
कवयित्री     - संध्या टिकेकर
प्रकाशक    - शाॅपीज़ेन, 201, अश्वमेघ एलेगेंस-2, अंबावडी मुख्य बाज़ार, कल्याण ज्वेलर्स के समीप, अंबावडी, अहमदाबाद, गुजरात-380006
मूल्य       - 268/-
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जब एक स्त्री की तुलना नदी से की जाए तो अनेक प्रश्न और उत्तर कौंध जाते हैं मन-मस्तिष्क में। ‘‘नदी हो तुम’’ पुस्तक के नाम वाली इस कविता में कवयित्री डाॅ. संध्या टिकेकर ने मायके और ससुराल दो पाटों के बीच नदी के समान प्रवाहमान बने रहने के स्त्री-जीवन को रेखांकित किया है। यदि देखा जाए तो स्त्री संतान, परिवार और समाज को उचित स्वरूप एवं संस्कार देती है। वहीं नदी वह प्राकृतिक तत्व है जिसके तटों पर दुनिया की सभी संस्कृतियों एवं सभ्यताओं ने जन्म लिया। समुद्र के खारे पानी ने तो मात्र व्यापार का मार्ग उपलब्ध कराया किन्तु नदी के मीठे जल ने मानव जीवन को संस्कृतियों के रूप में पनपने का अवसर दिया। परन्तु जब नदी के प्रकृतिक स्वरूप को बंधों के बंधनों से बांधा जाता है तो उसका विस्फोट बाढ़ के रूप में होता है। यही स्थिति स्त्री की है। यदि अनावश्यक बंधनों उस पर लगाए जाएं तो उसके मन में भी कभी न कभी विद्रोह जाग उठता है। अतः स्त्री-जीवन की नदी से तुलना कर के कवयित्री टिकेकर ने एक सटीक उपमा का प्रयोग किया है।  
संध्या टिकेकर यूं भी एक भावप्रवण कवयित्री हैं। मराठी और हिन्दी दोनों में सिद्धहस्त। ‘‘नदी हो तुम’’ हिन्दी कविताओं का उनका दूसरा काव्य संग्रह है। वे अनुवादकार्य में भी निपुण हैं। काव्य संग्रह एव ंउपन्यास आदि का हिन्दी से मराठी में उनके द्वारा किए गए अनुवाद काफी लोकप्रिय हैं। उन्होंने मेरे उपन्यास ‘‘शिखंडी’’ का भी मराठी में अनुवाद किया है। उन्हें अनुवादकार्य के लिए सम्मानित भी किया जा चुका है। किन्तु उनका मौलिक लेखन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। डाॅ संध्या टिकेकर के कविता के बिम्ब उनकी अपनी कल्पनाओं एवं अपनी अनुभूतियों से जन्मते हैं। जब वे लिखती हैं कि -
गर कोई तितली
आ बैठे
तुम्हारे हाथ या कंधे  पर
तो उसे  बैठने देना
प्यार से।
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए प्रकृति और मनुष्य के मध्य तादात्म्य का एक सुंदर दृश्य आंखों के आगे घूम जाता है। एक प्यारी-सी तितली वर्षों के मानसिक उद्वेग को पल भर में शांत कर सकती है, यदि तितली स्वयं तक आने दिया जाए। चाहे कठिनाइयां कितनी भी हों अपने अस्तित्व का विस्तार किया जा सकता है, यह विश्वास जागता है इस पंक्ति को पढ़ कर। कवयित्री ने अपनी कविताओं में प्रकृति को स्त्रीमन की कोमल अनुभूतियों के साथ देखा है।
यह सच है कि मन की खिड़की खोलना आसान नहीं होता है। विशेष रूप से एक स्त्री तो सौ बार झिझकती है मन की खिड़की खोलने से। किन्तु जब वह एक स्त्री कविता के संसार की निवासी हो तो उसके लिए मन का वातायन खोलना आसान हो जाता है। वह अपने बहाने जग की और जग के बहाने अपनी व्यथा, कथा, उत्साह, उमंग, आकांक्षा आदि सब कुछ सुगमता से अभिव्यक्त कर सकती है। कविता के संसार में कोई बंधन नहीं, कोई बाधा नहीं, कोई भय, संकोच नहीं। भक्त कवयित्री मीरा बाई ने भी तो काव्य के माध्यम से ही मनोभाव व्यक्त करते हुए उद्घोष किया था कि-
राणाजी म्हें तो गोविंद का गुण गास्यां।
चरणामृत को नेम हमारो नित उठ दरसण जास्यां।।
अर्थात् कविता मुखर होने की शक्ति देती है, पूरी कोमलता के साथ, मधुर आग्रह के साथ। इस तथ्य को कवयित्री संध्या टिकेकर जी ने बखूबी समझा है और काव्य की इसी आत्मा को आत्मसात किया है। वे अपनी कविताओं कठोरता भी बरतती हैं तो कोमलता के साथ।  
संध्या जी की काव्य शैली छंदमुक्त है, फिर भी उनकी कविताओं में एक छांदासिक प्रवाह है, बिलकुल किसी झरने की सतत प्रवाहित जलराशि की भांति। इसीलिए उनकी कविताएं कहीं भावनाओं के छींटों से सराबोर करती हैं, तो कहीं इन्द्रधनुष रचती हैं तो कहीं चट्टानों के हृदय को चीर कर बनाती गहराई का बोध कराती हैं। इन कविताओं में लय के साथ ही ध्वनि भी है जो इन्हें पढ़ने के बाद नाद स्वर की भांति चेतन-अवचेतन में गुंजायमान रहती है। संध्या जी की कविताओं में स्त्रीस्वर भी उसी वेग से तरंगित होता है। मगर वे भावनाओं में बहती नहीं हैं अपितु भावनाओं को बहने देती हैं। वे ‘नास्टेल्ज्कि’ होते-होते ‘रियलिस्टक’ धरातल पर अपने पांव टिका देती हैं। ठीक वैसे ही जैसे कोई बंद कमरे में अपने विचारों के झंझावात से जूझ रहा हो और फिर अचानक उठ खड़ा हो और द्वार खोल कर जग के कोलाहल को बूझने लगे। उनकी कविता ‘‘तारा’’ को ही लीजिए- ‘‘हां, कठिन था/पर संभव था, तुम्हारे लिए/सौतेली मां ‘‘सुरुची’’ का/एक ताना सुन/तिलमिला कर निकल जाना/घने जंगलों में/और भक्ति के बल पर पा लेना/स्थाई अस्तित्व, अंतरिक्ष में।’’
इसी कविता में अगले चरण में वे स्त्री पर पड़ने वाले सामाजिक दबावों को बड़ी सहजता से जोड़ देती हैं, वह भी स्थिरता के प्रतीक ध्रुव तारे को संबोधित करते हुए। ध्रुव तारा जो अपने अस्तित्व को पाने के बाद से अतल अंतरिक्ष में एक ही स्थान पर स्थित है और मानो साक्षी है पृथ्वी पर घटित होने वाली प्रत्येक घटना का। जो निरंतर देख रहा हो पीड़ा को, विवशता को, प्रारब्ध को। अतः वही तो समझ सकता है स्त्री के यथार्थ को। इस तरह कवयित्री ने स्त्री-संवाद के लिए सर्वथा उचित चुनाव किया है ध्रुव तारे का, संवाद के लिए -
ध्रुव!
मेरा यह ग्रह तो हमेशा
तानों से भरा रहा है।
तय से रहते हैं यहाँ के ताने,
स्त्री के
मां न बन पाने पर,
गृहस्थी का सलीका न आने पर,
कुछ देर से घर लौटने पर,
मनचाहा खर्चने-खाने-पहनने, सोचने पर
या कि खुला आकाश देखने पर।
संग्रह की कविताओं में मानवीय अनुभवों और उनके सूक्ष्मतम निहितार्थों के साथ-साथ मानव और प्राकृतिक दुनिया के अलग-अलग पड़ावों के मार्मिक अनुभवों-प्रसंगों को उभारने वाले बिंब हैं। मानवीय सरोकारों के निरंतर फैलते हुए क्षितिज को रेखांकित करती कविताओं का एक कोलाज हमारे सामने जीवन का विविधरंगी चित्र प्रस्तुत करता है। इन कविताओं में स्त्री-मन ही नहीं, वरन पुरुष की ‘‘स्वीकारोक्ति’’ भी है जो वस्तुतः पुरुष प्रधान समाज द्वारा स्त्री को दोयम दर्जे पर रखे जाने की स्वीकारोक्ति है- ‘‘बच्चों के सामने/मित्रों के बीच, भीड़ भरी दुकान में/तुम्हारे पीहरवालों के बीच/नौकर-चाकरों के रहते/यहाँ तक कि/तुम्हारी खास सहेलियों की/उपस्थिति में भी/कभी कोई मौका नहीं छोड़ा मैंने/ स्वयं के पुरुषार्थ को सहलाते हुए/ तुम्हें अपमानित करने का।’’  
समकालीन कविता की भावभूमि पर संध्या टिकेकर की कविताएं सार्थक हस्तक्षेप हैं। ये यथार्थ का व्यापक आख्यान रचती हैं। काव्यकला के प्रचलित मुहावरों से दूर कविता की सरल भाषा में हृदय के सहज उद्गारों को समेटती इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए गहरी आत्मीयता का बोध होता है। इन कविताओं में मौजूदा दौर की विडंबनाओं और समाज में व्याप्त अंतर्विरोधों का सटीक प्रस्तुतिकरण है। कवयित्री की दृष्टि छोटी से छोटी बातों पर गई है। ऐसी बातों पर जिसे लोग सामान्यतः अनदेखा कर देते हैं। ‘‘शिल्पकार’’ शीर्षक कविता इसका अनन्यतम उदाहरण है-  
मंदिर में हैं/केवल मूर्तियां
ध्यान से देखो कभी/खुली आंखों से।
दिखेगा वहां/निर्जीव पत्थर में
जान डालने वाला, शिल्पकार।
जिसकी कलात्मकता ने
अपना श्रम-स्वेद बहाकर
पहुंचा दिया है/पत्थरों को
चेतना के उस शीर्ष तक
जिसे तुम ‘देव’ कहते आए हो।
संध्या टिकेकर की कविताएं जीवन विमर्श के धरातल पर विसंगतियों से जुड़े प्रसंगों के भीतर से कविता में विचार तत्वों का प्रतिपादन करती हैं और इस शैली में कवयित्री का आकुल-व्याकुल मन मानवीय संस्पर्श से व्यापक समाज की पीड़ा को आत्मसात करके अभिव्यक्ति की परिधि में अनगिनत सवालों से निरंतर गुजरता सूक्ष्मता से परिस्थितियों का आकलन करता है, प्रश्न उठाता है। जैसे ‘‘कहां बूंद से घट भरता है?’’ कविता में संध्या जी ने लिखती है- ‘‘हाड़-तोड़ मेहनत पर/चंद रुपए रख कर/अहसां सा करता है/कहां बूंद से घट भरता है?/श्रमिक मंडी से हमें उठाकर/ढोर श्रम करवाता/दाम हथेली रख हमसे/पीछा सा छुड़वाता/झोले में है पात-साग/आंखों में चूल्हे की आग/रोज कुंआ खोदो तब/नाज मिला करता है/कहां बूंद से घाट भरता है?’’
इस संग्रह की कविताओं से हो कर गुजरते समय सके पाठकों को भाषा की सोंधी व ताजा गंध का अहसास होगा। एक अलग वैचारिक अनुभूति होगी क्योंकि इन कविताओं में दैनिक जीवन की वे अंतध्र्वनियां हैं जो प्रेम, अपनत्व, उल्लास की आकांक्षा को अपनाती हुईं सारी विसंगतियों को ठीक कर देने की उत्कट अभिलाषा रखती हैं लेकिन समस्याओं की तह में उतरने के बाद, किसी भी प्रकार के उथलेपन के साथ नहीं। संग्रह की कविताएं विश्वास दिलाती हैं कि एक कवयित्री के रूप में संध्या टिकेकर समाज और मानवता के प्रति अपने सभी दायित्वों एवं उत्तरदायित्चों को भली-भाति समझती हैं तथा उनको ले कर प्रतिबद्ध भी हैं। संग्रह की सभी कविताएं चाहे ‘‘ट्रॉलीवाली लगेज’’ हो या ‘‘रघुवर’’, ‘‘नेंग’’ हो या ‘‘बोन्साई’’, या फिर ‘‘इलेक्ट्रिशियन हो कमाल के’’ - ये सभी कविताएं परिपक्व, सधी हुई और गहन चिंतन से पगी हुई हैं। कोई भी कविता ठीक वहीं से आरम्भ होती है जहां से कोमल भावनाएं शब्दों का आकार लेती हैं। गहन संवेदना से उपजी ये भावनाएं समूची कठोरता को भी कोमलता से व्यक्त कर देती हैं बिलकुल ओस की एक बूंद की भांति जिसने रात के स्याह अंधकार और शीत को झेला हो, इस प्रतीक्षा के साथ कि एक सुनहरी, चमकीली भोर अवश्य होगी। कवयित्री संध्या टिकेकर की कविताएं कोमल हैं, जीवन की संभावनाओं से भरपूर हैं और भावनाओं की तरलता से इतनी सिक्त हैं कि इन्हें स्पर्श करते ही चेतना की उंगलियां भीग जाती हैं। पाठकों को संग्रह की कविताएं अवश्य पसंद आएंगी।
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