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My Editorials - Dr Sharad Singh

Thursday, May 23, 2024

चर्चा प्लस | राजा राममोहन राय ने स्त्रियों को मुक्त कराया था क्रूर सती प्रथा से | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस   
राजा राममोहन राय ने स्त्रियों को मुक्त कराया था क्रूर सती प्रथा से
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      एक विवाहित स्त्री को अपने पति के शव के साथ जीवित जल कर मरने को विवश कर देने वाली कुप्रथा को समाप्त करवाने का श्रेय यदि किसी को है तो वे हैं राजा राममोहन राय। सती प्रथा की पीड़ा को उन्होंने बहुत करीब से महसूस किया था इसीलिए उन्होंने ठान लिया कि अंग्रेज सरकार पर दबाव डालेंगे कि वे इस प्रथा पर रोक लगाने के लिए कानून लागू करें। सती प्रथा पर रोक लगने से समाज की अन्य कुप्रथाओं पर भी रोक लगने का मार्ग प्रशस्त हो गया था। वह कौन-सी घटना थी जिसने उन्हें सती प्रथा के उन्मूलन के लिए प्रेरित किया?  
    राजा राममोहन राय भारत के एक महान समाज सुधारक एवं ब्रह्मसमाज के संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं। उनका जन्म 22 मई सन् 1772 ई. में बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज नवाबों के दरबार में उच्चपदों पर कार्य करते थे किन्तु नवाबों की विलासिता से क्षुब्ध हो उनके पूर्वजों ने धीरे-धीरे नवाबों से नाता तोड़ लिया। राजा राममोहन राय को बंगाली, अंग्रेजी तथा अरबी तीनों भाषाओं पर समान अधिकार था। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। आगे चल कर उन्होंने और भी विदेशी भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया। 20 वर्ष की आयु में उन्होंने लगभग पूरे देश का भ्रमण कर लिया था। इस दौरान अपनी शिक्षा पूरी करने के उपरांत उन्हें उच्च शासकीय पद भी प्राप्त हो गया था। किन्तु उनका मन नौकरी करने से अधिक सामाजिक कार्यों में लगता था। वे पूरी लगन से समाजसेवा करना चाहते थे। सन् 1803 में उनके पिता का निधन हो गया जिसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ कर कोलकता में अपने परिवार के साथ रहते हुए समाजसेवा आरम्भ कर दी।
राजा राममोहन राय को एक बात हमेशा कचोटती थी कि देश में स्त्रियों की दशा बहुत खराब है। उन्होंने अपने भारत भ्रमण के दौरान इस बात को गहराई से महसूस किया था। उन्होंने पाया कि आम स्त्रियों को न तो पढ़ने का अधिकार है और न उन्हें अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का अधिकार है। यदि स्त्री विधवा है तो उसका जीवन नरक से बदतर हाल का होता था। उसके केश मुड़वा दिए जाते थे। उसे पलंग या चारपाई पर सोने अधिकार नहीं रह जाता था। उसे जमीन पर सोने को विवश किया जाता था। उसे अच्छा, सुस्वाद भोजन करने का अधिकार नहीं था। वह अच्छे वस्त्र या आभूषण नहीं पहन सकती थी। शुभ कार्यों में उसका दिखाई पड़ जाना ही अपशकुन मान लिया जाता था। उनके साथ अपृश्य-सा व्यवहार किया जाता था। समाज में व्याप्त इन कठोर परिस्थितियों से घबरा कर कई स्त्रियां सती प्रथा के द्वारा आत्महत्या कर लेती थीं। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि उन दिनों बाल विवाह का चलन था। अबोध आयु में लड़के और लड़की का विवाह करा दिया जाता था। उस पर यदि अल्प आयु में बाल पति की मृत्यु हो जाए तो बालिका वधू के प्रति आयु के आधार पर कोई रियायत नहीं बरती जाती थी। अर्थात ऐसी बाल विधवा यदि सती न हो तो उससे सामान्य जीवन के सारे अधिकार छीन लिए जाते थे। यह भयानक स्थिति राजा राममोहन राय को इस बात के लिए प्रेरित करती रही कि वे कोई ऐसा रास्ता निकालें जिससे इस तरह की कुप्रथाएं बंद हो सकें।
समाज सुधार का रास्ता सबसे कठिन होता है। सदियों से चली आ रही परंपराओं के प्रति आमजन के मन में समाया अंधविश्वास एक झटके में दूर नहीं किया जा सकता था। राजा राममोहन राय कोई उपाय सोच पाते कि इसी दौरान उनके परिवार में ही एक हृदय विदारक घटना कर गई जिसने उन्हें हिला कर रख दिया। सन 1816 में सन 1816 में राजा राममोहन राय के बड़े भाई की मृत्यु हो गई। उनकी मातृतुल्य भाभी को सती प्रथा की आग में झोंक दिया गया। वे चाह कर भी इस अप्रिय घटना को होने से नहीं रोक पाए। किन्तु इस घटना ने ही उनके मन को वह दृढ़ता प्रदान की जिससे आगे चल कर वे स्त्री समाज की दशा बदलने में सफल हो सके।      
राजा राममोहन राय सती प्रथा के विासेध में चर्चा-परिचर्चा करते किन्तु लोग उनकी बातों को नकार देते। इसी के साथ उन्होंने स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी आवाज उठाई। धीरे-धीरे उनके प्रयासों की कड़िया जुड़ती गईं। वे समझ गए थे समाज सुधार को धर्म सुधार के मार्ग से आगे बढ़ाया जा सकता है। अतः उन्होंने ऐकश्वरवादी विचार के आधार पर सन 1828 ब्रह्मसमाज की स्थापना की।
दूसरा रास्ता उन्होंने शिक्षा का चुना। वे जानते थे कि जब तक कुप्रथाओं के विरुद्ध ज्ञान और तार्किकता का विकास नहीं होगा तब तक कुप्रथाएं दूर नहीं हो सकती हैं। समाज को यह स्वयं भी समझना होगा कि कौन-सी प्रथा अच्छी है और कौन-सी बुरी। इसके लिए राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी शिक्षा को उपयुक्त एवं आवश्यक बताया। उनके प्रयास से सन् 1827 में हिन्दू कालेज की स्थापना हुई जो बाद में प्रेसीडेंसी कालेज के रूप में विख्यात हुआ। अंग्रे शासकों को भले ही भारतीयों के हित से विशेष लेनादेना नहीं था किन्तु भारत में व्याप्त सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा को वे भी समाप्त करना चाहते थे। महिलाओं के सती होने की मानवीय प्रथा के खिलाफ उन्होंने जो ऐतिहासिक आंदोलन चलाया, वह सामाजिक बुराई के खिलाफ उनके जीवन भर के संघर्ष का सबसे अच्छा उदाहरण था। 1818 की शुरुआत में, उन्होंने इस मुद्दे पर जनता को जागरूक करना शुरू किया।
 समाज सुधार के अपने प्रयासों की भावभूमि तैयार करने के बाद सन 1885 में उन्होंने सती प्रथा के विरोध में अपना प्रथम लेख लिखा। यह लेख मात्र लेख नहीं था अपितु सती प्रथा के विरोध में यह उनका सार्वजनिक उद्घोष था। राजा राम मोहन राय भारत में पश्चिमी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। परिणामस्वरूप, वे भारत में अंग्रेजी शिक्षा और प्रबुद्ध पत्रकारिता दोनों में अग्रणी बन गये। उन्होंने बंगाली पत्रिका ‘संवाद कौमुदी’ की स्थापना और संपादन भी किया था। उन्होंने अंग्रेजी अखबार का भी संपादन किया। अंग्रेज सरकार भारत में सामाजिक सुधार तभी कर सकती थी जब स्वयं भारतीयों से उसे समर्थन प्राप्त हो। कुप्रथा ही सही किन्तु सदियों से चली आ रही परम्पराओं पर अंकुश लगा कर वे जनसंख्या के एक बड़े भाग को रुष्ट करने का जोखिम नहीं ले सकते थे। अतः जब राममोहन राय और ब्रह्म समाज के प्रयासों का उन्हें आधार मिला तो अंग्रेज साकार के लिए कुप्रथाओं के विरोध में कानून बनाना आसान हो गया। रूढ़िवादी हिंदुओं ने सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने वाले ब्रिटिश भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड बेंटिक के कदम को रोकने के लिए संसद में याचिका दायर की, तो संसद सहमत हो गई। किन्तु  राजा राममोहन राय ने सती प्रथा विरोधी कानून का भरपूर समर्थन किया। अंततः कानून लागू कर दिया गया और सती प्रथा को न्यायालयों द्वारा अवैध एवं दंडनीय घोषित कर दिया गया।
राजा राममोहन राय महिलाओं के अधिकारों के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने महिलाओं की दासता की निंदा की और इस व्यापक धारणा को खारिज कर दिया कि महिलाएं बौद्धिक या नैतिक रूप से पुरुषों से कमतर थीं। बहुविवाह, जातिगत कठोरता और बाल विवाह सभी उनके निशाने पर थे। उन्होंने इस बात की वकालत की कि महिलाओं को आधुनिक भारत के निर्माण के लिए जिम्मेदार अपनी स्थिति को ऊंचा उठाने के लिए विरासत और संपत्ति रखने की शक्ति दी जानी चाहिए। राजा राममोहन राय और देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 20 अगस्त, 1828 को 19वीं सदी के बंगाल पुनर्जागरण की शुरुआत की, जो उस समय के प्रचलित ब्राह्मणवाद के सुधार के रूप में था, जिसने 19वीं सदी में हिंदू समुदाय की धार्मिक, सामाजिक और शैक्षिक उन्नति का नेतृत्व किया। राजा राममोहन राय के प्रयासों से प्रभावित हो कर सन 1830 में एक अंग्रेज यात्री अलेक्जेण्डा उफकों ने अंग्रेजी स्कूल खोलने में उनकी सहायता की।
राजा राम मोहन राय बाल विवाह के भी प्रबल विरोधी और विधवा पुनर्विवाह के समर्थक थे। वे चाहते थे कि योरोपीय स्त्रियों की भांति भारतीय स्त्रियां भीं शिक्षा प्राप्त करें तथा समाज के विकास की सहभागी बनें। वे जातिप्रथा के भी विरोधी थे। वे यह भी नहीं चाहते थे कि जाति के आधार पर शिक्षा अथवा स्त्री शिक्षा को बांटा जाए। राजा राम मोहन राय मानते थे कि चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह कोई भी जाति, धर्म का क्यों न हो, एसे शिक्षा पाने का अधिकार होना चाहिए।
राजा रामामेहन राय द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के समर्थन को आगे चल कर महात्मा गांधी ने अनुचित ठहराया जबकि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उसे उचित कहा। वस्तुतः तत्कालीन परिस्थितियों एवं सामाजिक दशा में अंग्रेजी शिक्षा तुलनात्मक ज्ञान के लिए आवश्यक थी। जब रूढ़िवादी हिन्दू अपनी कुप्रथाओं को पौराणिक ग्रंथों के उदाहरण दे कर बचाने का प्रयास कर रहे थे तब उदारवादी हिन्दुओं के लिए यह जानना जरूरी था कि भारत के बाहर की दुनिया में स्त्रियों का जीवन किस प्रकार का है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर महात्मा गांधी के विचारों का सम्मान करते थे किन्तु अंग्रेजी शिक्षा के विरोध के मुद्दे पर उन्होंने कटाक्ष किया था कि गांधी जी स्वयं शिक्षा प्राप्त करने विदेश गए थे। किन्तु यह भी सच है कि महात्मा गांधी ने राजा राममोहन राय के एकेश्वर मानववाद एवं स्त्रियों की दशा सुधारने के प्रयासों का सम्मान भी किया और अनुकरण भी किया। आधुनिक भारत में राजा राम मोहन राय का योगदान भी उल्लेखनीय है। वे एक ऐसे अग्रणी थे जिन्होंने 19वीं सदी के सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति करने का प्रयास किया। सती प्रथा का उन्मूलन आधुनिक भारत के सामाजिक इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण निर्णायक मोड़ों में से एक है।   
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