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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, June 14, 2024

शून्यकाल | आवारा पशु, पर्यावरण और बेख़बर हम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम 
"शून्यकाल"

आवारा पशु, पर्यावरण और बेख़बर हम
 - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                                हम पशुओं का सम्मान करते हैं। गाय को अपनी माता मानते हैं। हम यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि कोई भी गाय माता को जरा भी चोट पहुँचाए। जब हम सड़क पर कुत्तों को घूमते देखते हैं, तो हमें उन पर दया आती है। जब कोई गाय किसी वाहन की चपेट में आकर मर जाती है, तो हमें उसकी दुखद मृत्यु पर दुःख होता है। हमारे मन में पशुओं के लिए कोमल भावनाएँ हैं। लेकिन ये भावनाएँ अक्सर सुप्त क्यों रहती हैं? क्या आपने कभी सोचा है? विदेशी सड़कों पर आवारा पशु नहीं घूमते, लेकिन हमारे देश की सड़कें हमेशा आवारा पशुओं से भरी रहती हैं। कभी सोचा है कि ये आवारा पशु कहाँ से आते हैं और ये क्या हैं और इनका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है? आप मेरे इस लेख के आईने में अपने-अपने शहर का प्रतिबिंब देख सकते हैं।
      मेरा शहर सागर (म.प्र.) उन कई भारतीय शहरों में से एक है, जहां लोग रोजाना आवारा पशुओं की समस्या से जूझता रहते हैं। जी हां, सागर में भी अन्य शहरों की तरह डेयरी विस्थापन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया को लागू हुए दो दशक बीत चुके हैं। लेकिन, मुद्दा डेयरी पशुओं का नहीं है। उन्हें डेयरी से सैर-सपाटे के लिए भी ले जाया जाता था, इसलिए उनका एक निश्चित समय होता था। मुद्दा उन आवारा गायों और कुत्तों का है, जो सड़कों पर घूमते हैं। मान लीजिए कि हमारे देश में कुत्ते पीढ़ियों से घूमते आ रहे हैं। फिर, जब से माननीय मेनका गांधी जी ने यह कानून बनवाया कि आवारा कुत्तों को जहर की गोलियां देकर नहीं मारा जाना चाहिए, तब से उनकी संख्या में काफी वृद्धि हुई है। मैं खुद पशु हत्या के खिलाफ हूं। किसी भी पशु को जहर देकर मारना मानवीय विकल्प नहीं है। इसके लिए एक प्रावधान को बढ़ावा दिया गया कि आवारा कुत्तों की नसबंदी की जानी चाहिए। लेकिन मुद्दा यह है कि हमारे देश में कई अच्छे प्रावधान हैं, लेकिन उनके क्रियान्वयन में कई खामियां हैं। इन खामियों के कारण आज भी गाँवों और शहरों में कुत्ते बड़ी संख्या में घूम रहे हैं और सभी आवारा पशु अपना-अपना दुर्भाग्य जी रहे हैं।

वेदों और पुराणों को उठाकर देख लीजिए कि हमारे गौवंश कभी आवारा नहीं रहे। वे या तो पशुपालकों के आश्रमों में होते थे या ऋषि-मुनियों के आश्रमों में। गौवंश में गौदान को विशेष रूप से पुण्य का कार्य माना जाता था। वेदों में गाय को पूजनीय बताया गया है क्योंकि इसमें 33 कोटि यानी 33 प्रकार के देवताओं का वास माना गया है। इन 33 प्रकार के देवताओं में 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रूद्र और 2 अश्विन कुमार हैं। इसलिए माना जाता रहा है कि केवल एक गाय की सेवा-पूजा कर लेने से 33 कोटि देवताओं का पूजन संपन्न हो जाता है। लेकिन हम सुबह घर के दरवाजे पर भिक्षुक सी खड़ी भूखी गाय को एक रोटी दे कर 33 कोटि देवताओं को प्रसन्न करने का भ्रम पाल लेते हैं। 
गायों को भूखे मरने के लिए आवारा पशु के समान छोड़ देना भी गोहत्या ही है। जबकि ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि गौहत्या महापाप है और यह मनुष्य की हत्या के समान है।
हे गोहा नृह वधो वो अस्तु (ऋग्वेद 7/56/17)

‘‘स्कंद पुराण” के अनुसार, ‘‘गाय सर्वोच्च देवता है और वेद सर्वोच्च हैं।’’ जबकि ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में भगवान कृष्ण ने स्वयं को कामधेनु कहा हैदृ ‘‘धेनुनामस्मि कामधेनु’’ अर्थात मैं गायों में कामधेनु हूं। वेदों में भी माना गया है कि- ‘‘गावो विश्वस्य मातरः।’’ अर्थात गाय विश्व की माता है। 
ऋग्वेद 6/48/13 के अनुसार गाय प्रत्यक्ष रूप से तो दूध देती ही है, पर अप्रत्यक्ष रूप से जैविक कृषि के माध्यम से संसार को अन्न भी देती है। ऋग्वेद 1/29 का प्रथम मंत्र कहता है कि अल्प ज्ञान वाला अर्थात् बुद्धिहीन और साधनहीन व्यक्ति भी गोवंश का पालन करके हजारों प्रकार के वास्तविक ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, परिश्रमी बनता है और फिर यशस्वी और ऐश्वर्यशाली बनता है।
यच्चिद्धि सत्य सोमपा अनाशस्ताइव स्मसि।
आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ।।
भावार्थ - आलस्य के मारे अश्रेष्ठ अर्थात् कीर्ति्तरहित मनुष्य होते हैं, वैसे हम लोग भी जो कभी हों तो हे इन्द्र! हम लोगों को प्रशंसनीय पुरुषार्थ और गुणयुक्त कीजिए, जिससे हम लोग बहुत उत्तम-उत्तम हाथी, घोड़े, गौ, बैल आदि पशुओं को प्राप्त होकर उनका पालन वा उनकी वृद्धि करके उनके उपकार से प्रशंसावाले हों।
इसीलिए हमने गोवंश को सदैव सम्मान दिया। 

आज भी ऐसे बहुत से लोग दिख जाएंगे जो गोमाता के सामने झुकते या उसके पास से गुजरते समय उसके माथे को छूकर उसे सम्मान देते हैं। पर क्या आपने कभी सोचा है कि वह भावना कहां चली गई जिसमें गायों को गोशाला में रखकर उन्हें सम्मानपूर्वक पालने की प्रथा थी। आज सड़कों पर ऐसी बहुत सी गायें दिखती हैं जो दूध देना बंद कर चुकी हैं, अर्थात वे पशुपालकों के लिए अनुपयोगी हो गई हैं। ऐसे बहुत से बैल दिखते हैं जो बिना किसी उपयोग के सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं। वे दूसरों को कष्ट पहुंचाते हैं और स्वयं भी कष्ट पाते हैं। उनकी इस स्थिति के लिए हम स्वार्थी मनुष्य ही जिम्मेदार हैं, अर्थात जो हमारे काम के नहीं हैं, उनकी हम परवाह नहीं करते। हमारे घर के दरवाजे पर कई आवारा गायें आ जाती हैं। हम उन्हें पुण्य कमाने की नीयत से दो रोटी या बचा हुआ खाना दे देते हैं। क्या उनका इतना बड़ा शरीर उस दो रोटी या बचे हुए खाने से जिंदा रह सकता है? हमने अपनी गौ माता को भिखारी बना दिया है। वह दो रोटी की भीख मांगने के लिए हमारे दरवाजे पर खड़ी रहती है। कहने, सुनने या लिखने में यह कड़वा है लेकिन यह सच है। गााय-बैलों के सड़कों पर बैठने या आपस में लड़ने के कारण आए दिन सड़क दुर्घटनाएं होती रहती हैं। उस समय हम गौवंश को कोसते हैं और उन लोगों को कोसना भूल जाते हैं जो गौवंश को इस तरह सड़कों पर ला रहे हैं। कांजीहाउस वह जगह हुआ करती थी जहां आवारा पशुओं को पकड़कर रखा जाता था। वहां उन्हें खाना-पीना दिया जाता है और उनकी पूरी देखभाल की जाती है अब तो ‘‘कांजीहाउस’’ शब्द भी सुनाई नहीं देता है

कुछ कुत्ते पालतू के रूप में अच्छा जीवन पा जाते हैं किन्तु अधिकांश आवारा पशु के रूप में भूख, मार और नृशंस मृत्यु की भेंट चढ़ जाते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति में कुत्ते को पवित्र पशु माना गया है। बैदिक कालीन कुछ ग्रंथों में कहा गया है कि कुत्ते स्वर्ग और नरक के दरवाजे की रक्षा करते हैं। 
भगवदगीता के अध्याय 5 श्लोक 18 में कहा गया है कि ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्राण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी ही होते हैं-
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्राणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।

महाभारत के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर की मृत्यु नहीं हुई थी, वे सशरीर ही स्वर्ग गए थे तथा उनको धरती से स्वर्गलोक ले जाने के लिए स्वयं यमराज श्वान का रूप धारण करके आए थे। पांचों पांडवों व द्रौपदी में से सबसे पहले द्रौपदी की मृत्यु हुई थी, तत्पश्चात क्रमशः सहदेव, नकुल, अर्जुन तथा भीम की मृत्यु हुई थी। किन्तु युधिष्ठिर सशरीर स्वर्गलोक पहुंचे थे तथा श्वान के रूप में यमराज निरंतर उनके साथ रहे। यदि इसे दूसरे शब्दों में व्याख्यायित करें, तो श्वान धर्म और जीवन का रक्षक होता है। यूं भी कुत्ता सबसे वफादार प्राणी माना जाता है। किन्तु हम ऐसे प्राणी को आवारा जीवन जीने को विवश करते हैं। उनके नन्हें पिल्ले जब भूख से लड़खड़ाते दिखते हैं तब भी हम उनके लिए कोई स्थाई व्यवस्था किए जाने के बारे में गंभीरता से विचार नहीं करते हैं।

हमारे तमाम कानूनों और संवेदनशीलताओं के बावजूद सड़कों पर आवारा पशु घूम रहे हैं। क्या हमें उन विदेशों से आवारा पशुओं की समस्या से निपटना नहीं सीखना चाहिए, जिनसे हम अपने देश की सड़कों की तुलना करते हैं? अमेरिका की सड़कों पर आवारा पशु नहीं दिखते, क्योंकि वहां पशुओं को आवारा छोड़ना अपराध है और इसके लिए कड़ी सजा का प्रावधान है। वहां पालतू जानवरों को बाहर ले जाते समय गंदगी फैलाना भी अपराध है। ऐसा करने वाले को जुर्माना भरना पड़ता है, अन्यथा जेल की सजा काटनी पड़ती है। हमने इस मामले में उनके जैसा बनने में रुचि नहीं दिखाई है। सुबह-सवेरे संपन्न, पढ़े-लिखे लोग अपने अच्छे नस्ल के कुत्तों को इधर-उधर ‘‘पाॅटी’’ कराते नजर आते हैं। क्या यह अच्छी नागरिकता की निशानी है? पालतू कुत्तों को इस तरह शौच के लिए गंदी जगहों पर ले जाने से जहां कुत्तों के स्वास्थ्य के लिए खतरा रहता है, वहीं वातावरण भी प्रदूषित होता है। इससे मानव स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बढ़ता है। जो पालतू कुत्तों को ‘‘पाॅटी’’ के लिए घर से बाहर ले जाते हैं, वे भला आवारा पशुओं की चिंता क्यों करेंगे? इससे भी अधिक आवारा पशु वातावरण में जहां-तहां गंदगी फैलाते हैं, किन्तु हम उस ओर ध्यान ही नहीं देते हैं। गोया न हमें प्रदूषण की चिंता है और न अपने स्वास्थ्य की।

हममें से ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्हें आवारा पशु अधिनियम के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इस संबंध में न तो सरकार की ओर से कोई गंभीर जानकारी दी जाती है और न ही कोई सख्ती बरती जाती है। आवारा पशुओं के लिए सुरक्षित आश्रय स्थलों का भी अभाव है। कांजीहाउस लगभग गायब हो चुके हैं। नगर निगम या नगर पालिका के कर्मचारियों को आवारा पशुओं को पकड़ने का कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, इसलिए जब वे ड्यूटी पर होते हैं, तो अपनी जान जोखिम में डालकर जैसे-तैसे काम करते हैं। हम चाहे जितना भी स्मार्ट सिटी या शहरों के सौंदर्यीकरण का राग अलापें, लेकिन जब तक हम आवारा पशुओं की समस्या का समाधान नहीं करेंगे, तब तक सारी प्रगति अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाने जैसी ही होगी। हमारे द्वारा छोड़े जा रहे आवारा पशु हमारे पर्यावरण को प्रदूषित और नष्ट कर रहे हैं और हम चुपचाप देख रहे हैं, क्योंकि इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं।      
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