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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, July 19, 2024

शून्यकाल | सात्विक प्रेम का अनुपम उदाहरण है राधा-कृष्ण का प्रेम | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम - "शून्यकाल"     

सात्विक प्रेम का अनुपम उदाहरण है राधा-कृष्ण का प्रेम
   - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह          
              
     ‘यह समय प्रेम का नहीं है’ - यह कहते हुए दुख होता है किन्तु क्या भला इसको प्रेम कह सकते हैं कि जिसमें एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से प्रेम/विवाह करता है किन्तु विवाह के पूर्व या बाद में यदि पत्नी उससे उच्चपद पर पहुंच जाती है तो उसे सहन नहीं होता है। वह अपनी प्रेमिका या पत्नी को नीचा दिखाने का प्रयास करता है। यह प्रेम का सही स्वरूप नहीं है, अपितु यह अहं यानी ईगो है। प्रेम का सही स्वरूप तो ‘‘राधाकृष्ण’’ शब्द में है। ‘‘राधे-राधे’’ या ‘‘जयश्रीकृष्ण’’ कहने भर से राधा और कृष्ण के प्रेम के मर्म को नहीं समझा जा सकता है। यह सही है कि इस छोटे से लेख में इसे पूरी तरह व्याख्यायित भी नहीं किया जा सकता है लेकिन कुछ मुख्य बिन्दुओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है। 

     राधा और कृष्ण के परस्पर प्रेम से हर कोई परिचित है। ‘‘श्रीमद् देवीभाग्वत’’ में कहा गया है कि भगवान श्रीकृष्ण सिर्फ उसी की पुकार सुनते हैं जो राधा का नाम लेता है। इसलिए कृष्ण को पुकारना है तो पहले राधा को पुकारो। पुराणों के अनुसार भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा था कि राधा उनकी आत्मा है। जहां राधा होंगी, वहां कृष्ण स्वयं चले आएंगे। ‘‘पद्म पुराण’’ के अनुसार, राधा का जन्म श्री कृष्ण के जन्म के 15 दिन बाद हुआ था। यह भी कहा जाता है कि जन्म लेते ही राधा ने अपनी आंखें नहीं खोली थीं। जन्म के बाद राधा ने 11 महीने के बाद श्रीकृष्ण के सामने ही अपनी आंखें खोली थी। ‘‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’’ के अनुसार, राधा का विवाह अयन नाम के व्यक्ति से हुआ। ‘‘श्रीमद्भग्वद’’ में यह उल्लेख मिलता है कि भगवान श्री कृष्ण राधा से असीम प्रेम करते थे। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं नारद मुनि से कहा है कि ‘‘राधा मेरी आत्मा है और मेरे हृदय में रहती हैं। मैं ही राधा हूं और राधा ही मैं हूं।” इसीलिए राधा-कृष्ण एक दूसरे के बिना अधूरे है। जहां राधा का नाम लिया जाएगा वहां कृष्ण भी जरूर आएंगें। 
        कृष्ण से पहले राधा का नाम लिए जाने की कथा भी बड़ी रोचक है। इस प्रसंग को उन लोगों को अवश्य जानना चाहिए जो छोटी-छोटी बात में ईगो में पड़ कर अपनी प्रेमिका, महिला मित्र अथवा पत्नी को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। जबकि परस्पर प्रेम में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता है। वहां परस्पर समर्पण की भावना और अपने प्रिय की प्रशंसा की भावना रहती है। राधा का नाम कृष्ण से पहले लिए जाने के बारे में कथा इस प्रकार है कि व्यास मुनि के पुत्र शुकदेव तोता बनकर राधा के महल में रहने लगे। शुकदेव हमेशा राधा-राधा रटा करते थे। एक दिन राधा ने शुकदेव को समझाया कि मुझे अपना नाम नहीं सुनना है, मैं कृष्ण का नाम सुनती रहना चाहती हूं अतः अब से तुम सिर्फ ‘‘कृष्ण-कृष्ण’’ का जाप किया करो। शुकदेव ने ऐसा ही किया। शुकदेव को देखकर दूसरे तोते भी ‘‘कृष्ण-कृष्ण’’ बोलने लगे। धीरे-धीरे गोप-गोपियां, राधा की सखियां, अन्य पक्षी आदि सभी ‘‘कृष्ण-कृष्ण’’ कहने लगे। पूरा नगर कृष्णमय हो गया, कोई राधा का नाम नहीं लेता था। राधा तो इससे आनन्दित थीं किन्तु कृष्ण को इससे बड़ा कष्ट हो रहा था। वे हर समय अपना नहीं बल्कि राधा का नाम सुनना चाहते थे। 
      एक दिन कृष्ण राधा से मिलने जा रहे थे। रास्ते में नारद मिले। कृष्ण की उदासी नारद से छिपी नहीं रह सकी। नारद ने उनकी उदासी का कारण पूछा तो कृष्ण ने बता दिया कि,‘‘समूचे नगर क्या वनप्रांतर में भी मेरा ही नाम लिया जा रहा है, राधा का नाम कोई नहीं लेता है जबकि मैं राधा का नाम सुनना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि सब लोग पहले राधा का नाम लें, फिर मेरा नाम पुकारें।’’
    यह सुन कर नारद भावविभोर हो गए। उन्होंने यह बात राधा को बताई। राधा इसके लिए तैयार नहीं थीं तब शुकदेव ने ‘‘राधा कृष्ण’’ बोल कर समस्या को हल कर दिया। तभी से राधा का नाम पहले और कृष्ण का नाम उनके बाद पुकारा जाता है। विचारणीय है कि यदि कृष्ण में यह अहम होता कि मैं तो विष्णु का अवतार हूं। यानी मैं ही विष्णु हूं। सर्वशक्तिमान हूं इसलिए मेरा नाम ही लिया जाना चाहिए तो वे राधा का नाम भी सुनना पसंद नहीं करते। चूंकि उन्हें राधा से सच्चा प्रेम था इसीलिए वे राधा का नाम सुनना चाहते थे। ‘‘राधाकृष्ण’’ उच्चारण अपने आप में सात्विक और गहरे प्रेम का प्रतीक है। एक ऐसे प्रेम का जिसमें परस्पर एक-दूसरे के प्रति समर्पण है, अहम नहीं। 
कबीरा यह घर प्रेम का, ख़ाला का घर नांहि। 
सीस उतारै भुईं धरे, तब पैठे घर मांहि।।
      - यह दोहा कबीर ने भले ही निर्गुण भक्ति में कहा किन्तु यह सगुण भक्ति में भी सटीक बैठता और लौकिक प्रेम में भी। प्रेम में यदि अपने प्रिय के सम्मुख घमंड दिखाया जाए अथवा उसे नीचा दिखाने का प्रयास किया जाए तो फिर वह प्रेम नहीं रह जाता है। वहां कलुष और स्पर्द्धा की भावना मात्र रह जाती है। ऐसे संबंध को प्रेम कहना, भ्रम में रहने के समान है।     
        हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल के भक्त कवियों ने राधा और कृष्ण के प्रेम का सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने अपने वर्णन में राधा-कृष्ण के प्रेम की सात्विकता को प्रकट किया। यद्यपि रीतिकाल में राधाकृष्ण के प्रेम को वासना की दृष्टि से देखा गया, जबकि राधाकृष्ण का प्रेम वासना से अछूता शुद्ध सात्विक और अलौकिक प्रेम था। कवि सूरदास ने अपने पद में राधा और कृष्ण की पारस्परिक भावना को बड़े सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है-
बूझत श्याम कौन तू गोरी। 
दूध दुहति अति रति बाड़ी।
अंखियां हरि दर्शन की भूखी।
कैसे रहें रूप रस राँची ये बतियां सुन रूखी।
सूर सिकत हरि नाव चलाबहु यह सरिता है सूखी।     
          भक्तिकाल के कवियों ने राधा को कृष्ण से अभिन्न माना है। यद्यपि प्राचीन पुराणों में केवल ‘‘भागवत पुराण’’ ऐसा है, जिसमें ‘गोपाल-कृष्ण’ की कथा का वर्णन है, किन्तु उसमें राधा का उल्लेख नहीं है। जबकि ‘‘पद्मपुराण’’ और ‘‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’’ में राधा-कृष्ण के प्रेम की कथा की चर्चा विस्तार की गई है। राधा-कृष्ण विषयक प्रथम काव्य-रचना बारहवीं शताब्दी की जयदेव रचित ‘‘गीतगोविन्द’’ मानी जाती है जिसमें भक्ति और श्रृंगार दोनों को संतुलित रूप से रखा गया है। फिर लोक परम्परा में राधाकृष्ण की कथा इस तरह रच-बस गई कि राधाकृष्ण पर अनेक लोककाव्य प्रचलित हो गए। लोक-परम्परा का निर्वाह करते हुए 14-15 वीं शताब्दी में विद्यापति ने मैथिली में राधा-कृष्ण पर पद रचे। उनकी इस पदावली को हिन्दी कृष्ण-काव्य की पहली रचना के रूप में स्वीकार किया गया है। विद्यापति ने राधा के उस स्वरूप का वर्णन किया है जिसमें राधा कृष्ण के प्रेम में पड़ कर अपना अस्तित्व भूल जाती हैं-
अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुन्दरि भेलि मधाई
ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने गुन लुबधाई।
भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल लोचन पानि
अनुखन राधा राधा रटइत आधा आधा बानि।
राधा सँ जब पुनितहि माधव माधव सँ जब राधा
दारुन प्रेम तबहि नहि टूटत बाढ़त बिरहक बाधा।
दुहुँ दिसि दारुदहन जइसे दगधइ आकुल कीट परान
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कबि विद्यापति भान।     
         विद्यापति के बाद कृष्ण-काव्य के सबसे रचनाकार सूरदास हुए। जिन्होंने राधा-कृष्ण के प्रेम को प्रेम और ज्ञान दोनों पलड़ों पर समान रूप से रखा। कवि नन्ददास को छोड़कर भक्तिकालीन अष्टछाप के अन्य सारे कवि सूरदास का स्पष्ट अनुकरण करते दिखाई देते हैं।      
         ‘‘भ्रमरगीत’’ में राधा तथा अन्य गोपिकाओं का कृष्ण के प्रति प्रेम ज्ञानमार्ग से हो कर गुजरता है। कृष्ण का संदेशा ले कर आने वाले उद्धव से राधा सहित गोपियां कहती हैं कि -
ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी। 
अपरस रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी।।
पुरइनि-पात रहत जल-भीतर ता रस देह न दागी। 
ज्यों जल मांह तेल की गागरि बूंद न ताके लाग।। 
प्रीति-नदी में पांव न बोरयो, दृष्टि न रूप परागी। 
सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी।।
       राधा और कृष्ण का प्रेम लौकिक हो कर भी अलौकिक था और उस परिपाटी को रचता था जहां स्त्री और पुरुष अपने सात्विक प्रेम को सार्वजनिक रूप से जी सकते थे, क्योंकि उसमें दोष नहीं था, वासना नहीं थी। यूं भी प्रेम संकीर्णता में नहीं विस्तार में जन्म लेता है और विकसित होता है। राधा-कृष्ण का प्रेम इसका अनुपम उदाहरण है।
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