बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
कविताई में सोई बड़ो दम होत आए
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
आज बड़े संकारे भैयाजी को फोन आओ। मैंने सोची के ऐसी कोन सी बात आन परी के भैयाजी इत्ते संकारे फोन कर रए? मैंने तुरतईं फोन उठाओ।
‘‘का कर रईं बिन्ना?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘कछू नईं! अबई नल गए सो अब चाय बनाबे की तैयारी कर रई हती। आप ओरें सोई आ जाओ औ मोरे संगे चाय पीलो।’’ मैंने भैयाजी से कई।
‘‘हमें चाय नईं पीने, बाकी तुमसे बड़ो जरूरी सो काम आए।’’ भैयाजी बोले। उनके बोलबे में उतावलोपन साफ झलक रओ हतो।
‘‘हऔ, कओ भैयाजी, का काम आए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘फोन पे नईं बता सकत। या तो तुम इते आ जाओ, ने तो हम उते आए जा रए।’’ भैयाजी बोले। उनकी बात सुन के मोरे पेट में पीरा होन लगी के ऐसी कोन सी बात आए जो भैयाजी फोन पे नईं बता सकत?
‘‘आपई आ जाओ! काय से मोय दरवाजो-बरवाजो बंद करबे में तनक टेम लगहे। औ मोरी चाय को पानी सोई चूला पे चढ़ो आए।
‘‘हऔ, सो हम आ रए।’’ कैत भए भैयाजी ने तुरतईं फोन काट दओ।
मैंने चाय को पानी बढ़ाओ। एक की दो करी। ऊमें चाय की पत्ती, शक्कर औ दूध डारो, के इत्ते में भैयाजी आ गए। औ आतई साथ बोले,‘‘जा चाय-माय छोड़ो, तुम तो हमाई सुनो!’’
‘‘अरे, तनक तो गम्म खाओ आप! बस चाय बनई गई। छानने भर आए।’’ मैंने भैयाजी से कई। फेर मैंने झट्टई चाय छानी और एक कप उने पकराई औ एक मैं ले के बैठ गई।
‘‘हऔ, अब आप बताओ के ऐसी कोन सी बात आए के आप मोए फोन पे नईं बता पा रए हते?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘हऔ, फोन पे नई बताओ जा सकत्तो!’’ भैयाजी जल्दी-जल्दी चाय सुड़कत भए बोले। फेर उन्ने पूछो,‘‘काय बसी नईयां का?’’
‘‘बसी-असी कछू नईयां! आजकाल को पी रओ बसी में ढार के चाय? औ आप सोई तसल्ली से फूंक-फूंक के चाय पियो, अपनो मों ने जरा लईयो।’’ मैंने भैयाजी खों समझाई। बाकी जोन टाईप से बे चाय सुड़क रए हते ऊसे उनको मों तो जरो हुइए, पक्के में।
‘‘लेओ, पी लई चाय! अब सुनो हमाई।’’ भैयाजी ने दो मिनट में चाय सूंट के कप एक तरफी धरो औ कैन लगे।
‘‘हऔ, चलो बताओ आप! पर ठैरो, कऊं आपने कछू गड़बड़ तो नईं करी आए? भौजी के पीठ पांछू कछू गुल तो नईं खिला आए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे, कां की बात कर रईं। ऐसो कछू नइयां।’’ भैयाजी झल्लात भए बोले।
‘‘फेर ठीक! अब बताओ आप के का हो गओ?’’ मोए तनक सहूरी आई।
‘‘हमने कल रात पांच-छै कविताएं लिख डारीं।’’ भैयाजी एकई सांस में बोल गए।
‘‘ऐं? का कई आपने?’’ मोय अपने सुने पे भरोसो ने भओ।
‘‘हम जे कै रए के कल रात को हमने पांच-छै कविताएं लिख डारीं। अब तुम इने तनक चैक कर देओ। कऊं कछू सुधारने होय सो सुधार दइयो।’’ भैयाजी बोले।
‘‘जे आपको अचानक कविता कां से सूझ परी, अच्छे भले तो हते आप?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘सो का हम कविता लिख के बिगड़ गए? अपने बुंदेलखंड में तो एक से एक कवि हो चुके। सो का हम तनकऊं ने लिख सकत का?’’ भैयाजी बुरौ मानत भए बोले।
‘‘अरे, मोरो मतलब जे ने हतो। आप तो खूब लिखों कविता, मैं आप खों रोक थोड़े रई।’’ मैंने तुरतईं बात सम्हारी।
‘‘अच्छा तुम्हाई बताओ के रायप्रवीण ने अकबर खों कविता सुनाई रई के नईं?’’ बो कोन सी कविता हती...।’’ कैत भए भैयाजी सोचन लगे।
‘‘बिनती रायप्रबीन की, सुनिये साह सुजान।
जूठी पतरी भखत हैं, बारी-बायस-स्वान।।’’ - मैंने भैयाजी खों रायप्रवीण को बा कवित्त याद दिलाओ।
‘‘हऔ! औ तनक सोचो के जा कवित्त से अकबर इत्तो शर्मिंदा भओ के ऊने रायप्रवीण खों साथ इज्जत के वापस भिजवा दओ रओ। ने तो पैले तो ऊकी नीयत खराब हो गई रई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सई कई भैयाजी!’’ मैंने सोई हामी भरी।
‘‘औ महाराज छत्रसाल तो सोई कविता लिखो करत्ते। उने जबे बारीराव से मदद चाउंने रई सो, उन्ने एक कवित्त लिख के बाजीराव के पास भेजी रई। औ बा कवित्त पढ़ के बाजीराव मदद करबे के लाने भगत चले आए रए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘हऔ, बा कवित्त ई रओ के -
जो गति ग्राह गजेन्द्र की, सो गति जानहु आज।
बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज।।’’
- मैंने भैयाजी खों बा कवित्त सुना दओ।
‘‘सो तुमई देखो के कविताई में कित्तो दम होत आए। सो हमने बी सोची के हम सोई कविता लिखबी। फेर का हती, हमने अपनो जा मोबाईल उठाओ औ एक दार में पांच-छैं कविताएं सूंट दईं। अब बस, तुमें इनको पढ़ के बताने के, जे ठीक आएं के नईं।’’ भैयाजी बोले। उनको टोन जोई हतो के उनकी कविता जांचबे को मतलब आए के सब अच्छी-अच्छी कैने, बुरई नईं बताने।
‘‘चलो, आप सुनाओ फेर!’’ मैंने भैयाजी कई।
‘‘चलो, हम एक ठइयां सुनाय दे रए, बाकी तुम खुद पढ़ लइयो!’’ कैत भए भैयाजी कविता सुनना लगे-
‘‘पब्लिक से मों फेर रए हैं दद्दा जू।
बातन के भए शेर रए हैं दद्दा जू।
मैंगाई से मरे जा रए इते सबई
उड़न खटोला हेर रए हैं दद्दा जू।
सड़क मिट रई,नरदा पुर रए,देखो तो
कोन तरक्की टेर रए है दद्दा जू।’’
भैयाजी की कविता सुन के मोरे तो होशई उड़ गए। मैंने उनसे पूछी,‘‘जे आपई ने लिखी?’’
‘‘औ का? कऊं से कट-पेस्ट नोंई करी।’’ भैयाजी ने शान से कई।
‘‘सो, आपतो बड़े अच्छे कवि निकरे! अबे लौं कां छिपे रए? पैले काय नईं लिखी?’’मैंने भैयाजी से पूछ डारो।
‘‘ऐसो आए के कविता में हमाई रुचि तो भौत पैले से रई। तुमाई भौजी खों देख-देख के कविता लिखो करत्ते और फेर उने पुरजा में लिख के भेजो करत्ते। तभईं तो बे हमसे लव करन लगीं हतीं। बाकी जब हम काॅलेज के छात्र संघ में अध्यक्ष औ उपाध्यक्ष रए, ऊ टेम पे सोई हमने अपनी केनवासिंग के लाने कविताएं लिखी रईं। जोन के बल पे हम जीते बी रए।’’ भैयाजी बतान लगे।
‘‘सो फेर कविता लिखबो छोड़ काय दओ?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे हमें लगो के, जे कविताई में कछू नईं धरो! कछू कमाए-धमाएं सो घर चलहे। फेर तुमाई भौजी से हमाओ ब्याओ सोई गओ रओ, सो औ कविता लिखबे की जरूरत ने हती।’’ भैयाजी मुस्कात भए बोले।
‘‘सो अब रातई-रात में कोन-सी जरूरत आन परी के आप रात भर में छै कविताएं लिख के बैठ गए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अब तुमसे का छुपाने, भओ का के कल शाम को हमाए एक चिनारी वारे को बाहरे से फोन आओ। बा सोई छोटो-मोटो कवि आए। बा मंचो पे कविताएं पढ़त आए। ऊने बताओ के आजकाल मंच पे कविता पढबे पे खूब पइसा मिलत आए। औ कऊं टीवी के कोनऊं बड़े चैनल के बड़े प्रोग्राम में कविता पढ़बे को मिल गओ, तो समझो नरमदा जी नहा लओ।’’ भैयाजी बोले।
‘‘सो जे बात आए! आपको कविता प्रेम नईं जागो, आपको तो रुपैया पे्रम जागो आए। तभई तो मैं सोच रई हती के आप जे अचानक कविताई काय करन लगे। बाकी आपकी कविता मनो सई में बड़ी नोंनी आए। ईपे खूबई तालियां बजहें। सो पैले आप मोरो परसेंटेज फिक्स करो फेर मैं आपकी बाकी कविताएं सुनहों या पड़हों।’’ मैंने भैयाजी से सौदेबाजी करी।
‘‘हऔ, ले लइयो, जित्तो लेने होय! पैले हमें कऊं पढ़बे तो जान देओ।’’भैयाजी खुस होत भए बोले। काय से के उने कविताई को आजकाल को दम समझ में आ गओ रओ।
सो, भैया औ बैन हरों हो सकत के कोऊ दिनां भैयाजी आपके शहर के कोनऊं कविसम्मेलन में दिखा जाएं तो तनक उनको सुन लइयो। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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