चर्चा प्लस
पितृपक्ष का महत्व पुराणों से ले कर पर्यावरण तक
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
पितृपक्ष हमें अतीत का सम्मान करना सिखाता है, अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ होना सिखाता है। अपने पितरों की आत्मा को शांति प्रदान करना सिखाता है। साथ ही सिखाता है प्रकृति के तत्वों के साथ मिल कर रहने की कला। पितृपक्ष जीवन और भावनाओं के लिए पर्यावरण की आवश्यकता को भी सिखाता है। क्योंकि यदि जल नहीं होगा तो हम तर्पण कहां और किससे करेंगे? कौवे नहीं होंगे तो हम श्राद्ध-भोग किसे खिलाएंगे? पुराणों के अनुसार कौवों के माध्यम से ही तो आते हैं हमारे पितर हम तक। यही तो है पितृपक्ष का महत्व पुराणों से ले कर पर्यावरण तक।
पितृपक्ष की शुरुआत भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि से होती है और आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को समापन होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पितर पितृपक्ष में पृथ्वी लोक पर अपने परिवार के सदस्यों से मिलते हैं। इसके बाद पितरों के नाम का दान, तर्पण और श्राद्ध कर्म किया जाता है। पितृपक्ष में शादी-विवाह, गृह-प्रवेश, मुंडन संस्कार और सगाई समेत सभी मांगलिक कार्यों की मनाही होती है। शास्त्रों में देवी-देवताओं की पूजा के साथ पूर्वजों की पूजा वर्जित है। स्वाभाविक रूप से अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि पितृपक्ष के श्राद्धकर्म का आरम्भ कब से हुआ? तो पुराणों और महाकाव्य में इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत में तो इसके मनाए जाने के आरम्भ का भी उल्लेख है। महाभारत काल से शुरु हुई पितृपक्ष की परंपरा जो आज तक है चल रही है। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को महाभारत के युद्ध के दौरान पितृपक्ष में श्राद्ध और उसके महत्व के बारे के बताया था। जिसका उल्लेख गरुड़ पुराण में भी है।
कथा के अनुसार महर्षि निमि ने पुत्र की अचानक मृत्यु से दुखी होकर पूर्वजों का आह्वान करना शुरू कर दिया। इसके बाद पूर्वज उनके सामने प्रकट हुए और कहा कि ‘‘हे निमि, आपका पुत्र पहले ही पितृ देवों के बीच स्थान ले चुका है। चूंकि आपने अपने दिवंगत पुत्र की आत्मा को खिलाने और पूजा करने का कार्य किया है। इसलिए आज से यह श्राद्ध अनुष्ठान विशेष माना जाएगा।’’ उस समय से श्राद्ध को सनातन धर्म का महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना जाने लगा। इसके बाद से महर्षि निमि ने भी श्राद्ध कर्म शुरू कर दिया जो वर्तमान में भी पितृ पक्ष के तौर आज भी जारी है।
पितृपक्ष या श्राद्धपक्ष, 16 दिन की यह अवधि होती है इसमें हिन्दू अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं और उनके लिये पिण्डदान करते हैं। इसे सोलह श्राद्ध, महालय पक्ष, अपर पक्ष आदि नामों से भी जाना जाता है। गीता के अध्याय 9 श्लोक 25 के अनुसार पितर पूजने वाले पितरों को, देेव पूजने वाले देवताओं को और परमात्मा को पूजने वाले परमात्मा को प्राप्त होते हैं। मार्कण्डेय पुराण में भी श्राद्ध के विषय मे एक कथा मिलती है जिसमे रूची नाम का ब्रह्मचारी साधक वेदों के अनुसार साधना कर रहा था। वह जब 40 वर्ष का हुआ तब उसे अपने चार पूर्वज जो अपने अनुचित आचरण पितर बन कर भी कष्ट भोग रहे थे। तब पितरों ने रूची से कहा कि हमारा श्राद्ध कर के हमें मोक्ष दिलाओ। तब रूची ने अलग से पितरों का श्राद्ध किया और उन्हें मोक्ष दिला कर मुक्ति दिलाई।
18 पुराणों में पितृपक्ष का उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में पितरों के श्राद्ध और तर्पण का महत्व बताया गया है. इसमें कहा गया है कि पितरों को अर्पित जल और अन्न से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। ब्रह्म पुराण में पितरों के लिए श्राद्ध की विधियों का विवरण है। शिव पुराण में श्राद्ध की प्रक्रिया और इसके लाभों का उल्लेख है। भागवत पुराण में पितरों के तर्पण और श्राद्ध की विधियां और उनका महत्व वर्णित है। इसमें पितरों को अर्पित सामग्री की विधि भी बताई गई है। मत्स्य पुराण में पितरों के श्राद्ध की विभिन्न विधियों, जैसे एकोदिष्ट और नित्य श्राद्ध, का विवरण है। नारद पुराण में पितरों के प्रति श्राद्ध की विधियां और इसके महत्व का विस्तृत वर्णन किया गया है। वामन पुराण में पितरों के श्राद्ध और तर्पण की प्रक्रिया का उल्लेख इस पुराण में है। इसमें पितरों को शांति देने के उपाय बताए गए हैं। कूर्म पुराण में पितरों की आत्मा को शांति देने के लिए श्राद्ध की प्रक्रियाओं का वर्णन है। लिंग पुराण में पितरों के श्राद्ध और तर्पण की विधियों का वर्णन है। गरुड़ पुराण, श्रीभगवत पुराण, सत्यम्बुधि पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्मृति पुराण, प्रदीप पुराण, अग्नि पुराण, श्री भागवत पुराण और कालिक पुराण में भी पितरों के श्राद्ध की विधियां, आत्मा को शांति देने के लिए प्रक्रियाओं और धार्मिक महत्व के बारे में बताया गया है।
पितृपक्ष का धार्मिक एवं भावनात्मक महत्व तो है ही, साथ ही इसका पर्यावर्णीय महत्व भी है। पितृपक्ष सीधे प्रकृति से जोड़ता है। यह पक्ष प्रकृति और मानव के अंतर्संबंधों को मजबूत करता हुआ प्रकृति के महत्व को बताता है। प्रकृति के जड़ और चेतन मानव जीवन के लिए आधारभूत तत्व हैं। श्राद्ध के दौरान नदी अथवा जलाशय में तर्पण किया जाता है। तर्पण जल से किया जाता है। अर्थात जल के बिना तर्पण संभव ही नहीं है। अतः यदि हम अपने पितरों अर्थात पूर्वजों की आत्मा को शांत करने के लिए श्राद्ध करना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें जल को संरक्षित करना आवश्यक है।
पितृपक्ष के दौरान कौवे को भोजन करने का विशेष महत्व बताया गया है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कौवा यम के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। इस दौरान कौवे का होना पितरों के आस पास होने का संकेत माना जाता है। मान्यता है कि पितृपक्ष में पूरे 15 दिन कौवे को भोजन करना चाहिए। पितृपक्ष में कौए का घर या आंगन में आना शुभ संकेत माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पितृपक्ष के दौरान पितर कौओं के रूप में धरती पर आते हैं। शास्त्रों में इस बात का वर्णन किया गया है कि देवताओं के साथ ही कौवे ने भी अमृत को चखा था। जिसके बाद से यह माना जाता है कि कौवों की मौत कभी भी प्राकृतिक रूप से नहीं होती है। कौए बिना थके लंबी दूरी की यात्रा तय कर सकते हैं। ऐसे में किसी भी तरह की आत्मा कौए के शरीर में वास कर सकती है और एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकती है। इन्हीं कारणों के चलते पितृ पक्ष में कौवों को भोजन कराया जाता है। ण्क मान्यता और भी है कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसका जन्म कौवा योनि में होता है। इस कारण कौवों के जरिए पितरों को भोजन कराया जाता है। पितृ पक्ष के दौरान कौवों के अलावा गाय, कुत्ते तथा अन्य पक्षियों को भी भोजन कराया जाता है। माना जाता है कि अगर इनकी ओर से भोजन को स्वीकार नहीं किया जाता है तो इसे पितरों का रुष्ट होना माना जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार, इंद्रदेव के बेटे जयंत ने कौवे का रूप धारण किया था। उस जयंत ने एक दिन सीता माता के पैर में चोंच मार दी, इस पूरी घटना को श्रीराम देख रहे थे। श्रीराम ने जयंत को मारने के लिए धनुष पर तीर चढ़ा लिया। जयंत घरा कर श्रीराम के चरणों पर गिर पड़ा। श्रीराम ने कहा कि उनका तीर व्यर्थ नहीं जा सकता। तब श्रीराम ने उसकी एक अंाख पर तीर चला दिया। साथ ही उसे क्षमा करते हुए आशीर्वाद दिया कि पितृ पक्ष में कौए को दिए गया भोजन पितृ लोक में निवास करने वाले पितर देवों को प्राप्त होगा।
कौवों को पितृपक्ष में भोजन कराने के यदि वैज्ञानिक पक्ष को देखें तो इसकी आवश्यकता स्वयं सिद्ध हो जाती है। भादो माह में पितृ पक्ष आता है और यह ऐसा समय होता है जब मादा कौवा अंडे देती है। इस दौरान मादा कौवा बच्चों को छोड़कर ज्यादा दूर नहीं जा सकती और उसे बच्चों के लिए अतिरिक्त भोजन की जरूरत भी होती है। ऐसे में पितृपक्ष के दौरान कौवों को भोजन कराकर कौवों की प्रजाति को संरक्षित किया जाता है। इसके साथ ही दूसरा पक्ष है कि कौवा बरगद और पीपल के फल खाता नहीं बल्कि निगलता है। कौवे का शरीर फल के गूदे को तो पचा लेता है, लेकिन उसके बीज को बीट के रूप में बाहर निकाल देता है। ऐसे में कौवे जहां बीट करते हैं, वहां यह पेड़ उग जाते हैं। बरगद और पीपल के पेड़ हमारे वातावरण के लिए बहुत उपयोगी हैं। इसलिए कौवों का संरक्षण बहुत जरूरी है। तीसरा पक्ष है कि कौवे ऊंचे वृक्षों की ऊंची डालियों पर अपना घोंसला बनाते हैं। अतः यदि हमें कौवों की उपलब्धता चाहिए तो अपने आस-पास ऊंचे-ऊंचे वृक्षों को भी बचाए रखना होगा। आज यदि हमें पितृपक्ष में कौवे दिखाई नहीं पड़ते हैं तो इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं क्योंकि हमने बस्ती और घरों का विस्तार करने के लिए ऊंचे वृ़क्षों को बेरहमी से काट दिया है। यानी हमने उनके घर मिटा दिए हैं। अब यदि हम पौराणिक मान्यताओं को मानें तो यह तय है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के हमारे अपराध से हमारे पितर भी कदापि खुश नहीं होंगे। यूं भी हम जानते हैं कि जिस पर्यावरण को हमारे पूर्वजों ने लाखों वर्ष तक सहेजा, सम्हाला उसे हमने कुछ ही दशकों में संकटग्रस्त कर दिया। अतः इस बार पितृपक्ष में अपने पितरों को प्रसन्न करने और उन्हें मोक्ष दिलाने के साथ ही वाले प्राकृतिक तत्वों के संरक्षण का भी संकल्प लेना चाहिए।
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श्राद्ध के साथ पर्यावरण के सरंक्षण की महत्ता बताता सुंदर आलेख
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