आज 10.09.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादक मुकेश भारद्वाज की पुस्तक " राहुल गांधी, नेता मोहब्बत वाला" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
राजनीति की जंग में मोहब्बत की बिसात से परिचित कराती है यह किताब
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - राहुल गांधी नेता मोहब्बत वाला
लेखक - मुकेश भारद्वाज
प्रकाशक - यात्रा बुक्स, वाणी प्रकाशन, 4695, 21- ए, दरियागंज, नयी दिल्ली- 110002
मूल्य - 395/-
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मुकेश भारद्वाज जितने प्रबुद्ध पत्रकार हैं उतने की तार्किक लेखक भी हैं। उनके लेखन की विशेषता है कि वे किसी भी मुद्दे पर सतही टिप्पणी नहीं करते हैं अपितु उस मुद्दे को इतिहास, वर्तमान और भविष्य की कसौटी पर परखते हुए निष्कर्ष तक पहुंचते हैं। उनका निष्कर्ष सटीकता के इतने करीब होता है कि उससे असहमत होना उस मुद्दे के विरोधी के लिए भी कठिन हो जाता है। मुद्दे से असहमत होने वाले व्यक्ति या दल को भी एक बार आत्मावलोकन करने की आवश्यकता अवश्य महसूस होती होगी, भले ही वह इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं कर पाए। इस वर्ष अर्थात 2024 में मुकेश भरद्वाज की ऐसी दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनमें हम राजनीतिक कंट्रास्ट देख सकते हैं। एक पुस्तक है ‘‘मनमोदी’’ जिसमें लेखक ने नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रधानमंत्री के रूप में उठाए गए कदमों जैसे नोटबंदी, सांस्कृतिक पुनर्जागरण तथा सक्रिय विदेश नीति आदि का तर्कसंगत आकलन किया है। वहीं, लेखक की दूसरी पुस्तक है ‘‘राहुल गांधी, नेता मोहब्बत वाला’’। इनमें से इस बार की समीक्ष्य पुस्तक है ‘‘राहुल गांधी, नेता मोहब्बतवाला’’।
वर्तमान भारतीय राजनीति में दो ध्रुव दिखाई देते हैं, एक मजबूत तो दूसरा कमजोर। लेकिन दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक के रूप में मौजूद हैं। दोनों में से किसी की भी उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता है। स्पष्ट है कि मजबूत ध्रुव भाजपा का है, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में और कमजोर ध्रुव कांग्रेस का है जिसे सहेजने और समर्थ बनाने की कवायद में निरंतर जुटे हुए हैं राहुल गांधी। आयु और अनुभव का अंतर। एक जनअसंतोष से सशक्त बना दल तो दूसरा धीरे-धीरे पनपते जनअसंतोष से प्राणवायु लेता दल। आरंभ में एक बेमेल मुकाबला था यह जिसे भारतीय मीडिया ने सर्वज्ञाता और परममूर्ख के बीच की स्पर्द्धा करार देते हुए कांग्रेस को समाप्तप्राय घोषित कर दिया था। कमजोर पक्ष की अगुवाई करने वाले को सार्वजनिक रूप से ‘‘पप्पू’’ कह कर उपहास का पात्र बनाया गया। लेकिन कहा गया है कि ‘‘अति सर्वत्र वर्जयेत’’। अति अच्छी नहीं होती, उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं। यह दुष्परिणाम साबित हुआ या सुपरिणाम यह तो भविष्य बखूबी बताएगा, जब पिछले पन्ने पलट कर इतिहास के रूप में इस सारे परिदृश्य का आकलन किया जाएगा किन्तु 2024 के चुनावों ने जो परिणाम दिए उसने लेखक मुकेश भारद्वाज के शब्दों में ‘‘मीडिया को ही पप्पू बना दिया’’।
मुकेश भारद्वाज ‘‘जनसत्ता’’ में काॅलम लिखते हैं ‘‘बेबाक बोल’’। उनका यह काॅलम उनकी आकलन क्षमता और स्पष्टवादिता के कारण अत्यंत लोकप्रिय है। उनके बेबाक बोल वास्तव में बेबाक एवं निर्भीक होते हैं। यही बेबाकी उनकी इस पुस्तक में देखी जा सकती है जिसमें उन्होंने राहुल गांधी की तमाम गलतियों को रेखांकित करते हुए उनके संघर्ष को क्रमबद्ध सामने रखा है। वस्तुतः यह एकदम ताज़ा इतिहास है जिसके हम सभी साक्षी बनते चल रहे हैं। देखा जाए तो राजनीति के संदर्भ में वर्तमान को लिखना सबसे दुरूह और जोखिम भरा होता है। इतिहास लेखन जिस तटस्थता की मांग करता है वह वर्तमान के साथ प्रायः संभव नहीं हो पाता है। अंग्रेजो के द्वारा लिखा गया भारतीय इतिहास इसीलिए बार-बार पुनर्लेखन और पुर्नआकलन की मांग करता है। राजनीतिक दबाव के चलते शक्ति के प्रति आसक्ति स्वाभाविक रूप से इतिहास लेखन को प्रभावित कर देती है। किन्तु मुकेश भरद्वाज के लेखन में वह तटस्थता है जो वर्तमान के इतिहास को लिखे जाने के लिए आवश्यक है। वे तटस्थरूप से बताते हैं कि राहुल गांधी जिन्हें कांग्रेस के लिए कलंक की भांति प्रचारित किया जा रहा था किस तरह नफरत की राजनीति के विरुद्ध प्रेम की बाजी चलते गए और लोकतंत्र के उस रूप को चरितार्थ कर दिया जिसमें जनता की शक्ति का उल्लेख किया जाता है।
विरासत में मिली राजनीति सफलता की गारंटी नहीं होती यदि इस बात को चरितार्थ होते हुए देखना है तो कुछ वर्ष पूर्व से लेकर अब तक के भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को देखकर बखूबी समझा जा सकता है। राजनीति भी मौलिक श्रम की मांग करती है। अपनी क्षमताओं को पहचानना भी इसी श्रम का एक अभिन्न अंग है। हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहने का गर्व करते हैं। करना भी चाहिए क्योंकि हमें बोलने की स्वतंत्रता है, लिखने की स्वतंत्रता है और विरोध करने की स्वतंत्रता है। लोकतंत्र को उसके मूल रूप में हमने अपनाया है जिसमें जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है। लोकतंत्र में ऐसी व्यवस्था रहती है की जनता अपनी मर्जी से विधायिका चुन सकती है। लोकतंत्र एक प्रकार की शासन व्यवस्था है, जिसमे सभी व्यक्ति को समान अधिकार होता हैं। लेकिन जब इन अधिकारों पर अदृश्य रूप से ग्रहण लगने लगे और लोकतंत्र के मानक टूटने लगें तो कुछ नूतन की सुगबुगाहट होने लगती है। जहां से लोकतंत्र के अवधारणा का आरंभ माना जाता है वहीं के महान विचार अरस्तू ने लोकतंत्र के बारे में कहा था, ‘‘तर्कयुक्त संकल्प दरअसल बहस के लिए गठित सभा, जहां बोलने की स्वतंत्रता होती है, में हुई खुली बहस में बनी सहमति है। विचार-विमर्श रहित बहुमत को जनता का तर्कसंगत संकल्प नहीं कहा जा सकता। तर्कसंगत संकल्प की ठोस व्यवस्था के बिना लोकतंत्र का अस्तित्व नहीं हो सकता।’’ इसके साथ ही, अरस्तू ने लोकतंत्र की खामियों पर भी टिप्पणी की और इसे ‘‘विकृतरूप’’ कहा। चाहे लोतंत्र हो या कोई अन्य तंत्र, जब राज के साथ ‘हठ’ जुड़ जाता है तो उस तंत्र में विकृति आने लगती है। यह राजनीति की अपनी विशेषता है कि जब उसके किसी तंत्र में विकृति आने लगती है तो सुधार की आकांक्षा रखने वाले परिवर्तन के बीच अपने-आप रोपित होने लगते हैं।
मुकेश भारद्वाज ने अपनी पुस्तक 2014 के चुनाव में हुए परिवर्तनों से आरंभ करते हैं क्योंकि वही बुनियाद रही है राहुल गांधी की राजनीतिक यात्रा की। फिर वे उल्लेख करते हैं उन प्रसंगों की जो चुनाव से पहले और चुनाव के बाद घटित हुए और जिन्होंने सभी को राहुल गांधी के व्यक्तित्व से परिचित कराना आरंभ किया। इन घटनाओं में से एक थी जब राहुल गांधी ने अपनीे ही दल के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा लाए गए अध्यादेश के विरुद्ध शंखनाद कर दिया। परिणामतः वह अध्यादेश वापस ले लिया गया किन्तु आकलनकर्ताओं एवं राजनीति के पर्यवेक्षकों ने इसे एक गोलकीपर द्वारा अपने ही गोलपोस्ट पर गोल दाग देने जैसा माना। दूसरी बार राहुल गांधी ने प्रखर आवाज उठाई भट्टा पारसौल में जमीन अधिग्रहण को ले कर। लेकिन उसका परिणाम भी राहुल गांधी के पक्ष में नहीं गया। फिर कांग्रेस की अंतर्कलह और अतिआत्मविश्वास से भरी रणनीति ने 2014 के चुनाव में कांग्रेस को तो डुबाया ही, साथ ही राहुल गांधी की राजनीतिक छवि को भी डुबा दिया। आमजन के बीच से आया हुआ व्यक्ति आमजन को अपना-सा लगा और ‘‘राजकुमार’’ को राजनीतिक महल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। लेखक ने स्मरण कराया है कि यह वही राजनीतिक पटल था जहां सोनिया गांधी ने पार्टी के हित तथा देश के हित के लिए प्रधानमंत्री की कुर्सी को ठुकरा दिया था। उसी पटल पर राहुल गांधी अपने अनुभवहीन प्रयासों को ले कर जूझते दिखाई पड़े।
लेखक ने राहुल गांधी के बचकाने प्रयासों और बयानों को याद दिलाने में तनिक भी कोताही नहीं बरती है। क्योंकि राहुल गांधी के 2014 से 2024 तक की यात्रा को समझने के लिए उनकी उन गलतियों को याद रखना भी जरूरी है। यह इसलिए भी जरूरी है कि इससे भारतीय लोकतंत्र में समापन की ओर अग्रसर होते राजनीतिक दल को किस तरह फिर से उठने का अवसर मिलता है, इसे समझा जा सकता है। समय के साथ अपने कटु से कटुतर अनुभवों को आत्मसात करते हुए राहुल गांधी ने सीखा कि लोकतंत्र में जनता ही सबसे बड़ी शक्ति है। यदि राजनीति के दरवाजे में पुनः प्रवेश करना है तो आमजन के दिलों से हो कर गुज़रना होगा। इसीलिए लेखक ने राहुल गांधी की ‘‘भारत जोड़ो यात्रा’’ का उल्लेख किया है। इस यात्रा ने एक अपरिपक्व नेता को परिपक्वता के अर्थ समझा दिए और स्वयं को परिपक्व मान कर चल रहे राजनेताओं एवं मीडिया को अपरिपक्वता की सीमा पर ला खड़ा किया। राहुल गांधी को जिस तरह मीडिया ने ‘‘पप्पू’’ ‘‘राजकुमार’’ के रूप में प्रोजेक्ट कर के आमजन के सामने नकारा साबित कर दिया था, ‘‘भारत जोड़ो यात्रा’’ ने उसी आमजन को राहुल गांधी के भीतर मौजूद एक सहनशील और दृढ़ व्यक्ति को जानने का अवसर दिया। लेखक ने इस बात से भी आगाह किया है कि यह अंतिम सत्य नहीं है। अभी अनेक ऐसे सत्य हैं जिनका सामना राहुल गांधी को करना पड़ेगा। अभी तो उनकी यात्रा का एक बहुत छोड़ा-सा पड़ाव तय हुआ है। राहुल गांधी के समक्ष चुनौतियों की भरमार है। लेकिन जो उन्होंने अपने अनुभव से सीखा उसके आधार पर उन्होंने कहा कि वे नफरत के विरुद्ध मोहब्बत की बात करना चाहते हैं। इसे नकारा नहीं जा सकता है कि सहनशीलता की एक उल्लेखनीय राजनीतिक मिसाल इतिहास में दर्ज़ करा दी है राहुल गांधी ने। जब सत्ताधारी पक्ष के विशिष्ट प्रवक्ता और मीडिया एक साथ राहुल गंाधी के दल से ले कर उनके निजी जीवन पर, उनकी योग्यता पर अभद्र तरीके से हमला कर रही थी तब उन्होंने शांत बने रहने का रास्ता अपनाया। वस्तुतः यह एक बुनियादी सबक था जो राहुल गांधी को निखारने में सहायक सिद्ध हुआ।
‘‘राहुल गांधी, नेता मोहब्बत वाला’’ पुस्तक 2024 में प्रकाशित हुई है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि चुनाव के परिणामों से प्रभावित हो यह पुस्तक लिखी गई हो। दरअसल इस पुस्तक में लेखक मुकेश भारद्वाज द्वारा सन् 2018 से अब तक लिखे गए लेखों में से चुनिंदा लेखों को संजोते हुए एक ऐतिहासिक दस्तावेजी पुस्तक तैयार की गई है जो भविष्य में इतिहास पढ़ने वालों को 2014 से 2024 के इतिहास को समझने में सहायक होगी। यह पुस्तक जहां राहुल गांधी के संघर्ष को बताती है, जहां भारतीय लोकतंत्र की महत्ता से परिचित कराती है, जहां राजनीति की जंग में मोहब्बत की बिसात से परिचित कराती है, वहीं यह भी सिखाती है कि तटस्थ हो कर वर्तमान की राजनीति का इतिहास लेखन किस प्रकार किया जाता है। मुकेश भारद्वाज की यह पुस्तक उनके निर्भीक लेखनी और लेखनी में लोकतांत्रिक मूल्यों को भी स्थापित करती है। यह पुस्तक हर पाठक के पढ़े जाने योग्य है।
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लोकतंत्र के लिए मज़बूत विपक्ष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता, राहुल गांधी उसी शून्य को भर रहे हैं
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