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My Editorials - Dr Sharad Singh

Tuesday, September 24, 2024

पुस्तक समीक्षा | वे कथानक जो हमारे आसपास हैं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 24.09.2024 को  दैनिक "आचरण" में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका सुषमा मुनींद्र के कहानी संग्रह "मेरी कहानियां" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
वे कथानक जो हमारे आसपास हैं
- समीक्षक  डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - मेरी कहानियां*
लेखिका - सुषमा मुनीन्द्र 
प्रकाशक - इंडिया नेटबुक्स प्रा.लि., सी-122, सेक्टर-19, नोएडा - 201301
मूल्य    - 325/-
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    सतना निवासी सुषमा मुनीन्द्र हिन्दी कथा जगत का एक परिचित नाम हैं। उनके अब तक 16 कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘‘मेरी कहानियां’’ कहानी संग्रह में सुषमा मुनीन्द्र की कुल 11 कहानियां संग्रहीत हैं। सभी कहानियां हमारे आस-पास, बहुत ही निकट घटित होती घटनाओं पर आधारित हैं। स्थाई, अस्थई संबंधों पर आधारित संवेदनात्मक मसलों की प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में बहुलता होती है। यह प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर होता है कि वह उन मसलों को किस दृष्टि से देखता है और उनसे कितना अधिक प्रभावित होता है। पारिवारिक संबंधो की बुनावट भी इसी प्रकार होती है कि व्यक्ति अनेक संबंधों में निबद्ध होते हुए भी किसी एक के प्रति अधिक जुड़ाव का अनुभव करता है। वह एक संबंधी आवश्यक नहीं कि समवय का हो। लेकिन व्यक्ति जिससे सबसे अधिक जुड़ाव रखता है, उसकी छोटी-बड़ी सभी बातें उसे आकर्षित करती हैं। संग्रह की पहली कहानी ‘‘फोर्ड वाले मामा’’ इसी विषय पर आधारित है। 
     ‘‘फोर्ड वाले मामा’’ एक मामा के वाहन प्रेम की कहानी है जिनका नाम था बृहस्पति। कहानी फ्लैशबैक में चलती है। बचपन से ही वाहन के प्रति बृहस्पति मामा का लगाव रहा। उनका यह लगाव उनके जीवनपर्यन्त बना रहा। यहां तक कि मामा की मृत्यु होने पर जब उनके हाथों को उनके सीने पर रखा गया तो ऐसा प्रतीत हो रहा था गोया उनके हाथ गाड़ी का स्टेयरिंग थामें हों। इस प्रकार के चरित्र लगभग हर परिवार में रहते हैं जिनका किसी विषय वस्तु के प्रति आॅब्सेशन रहता है लेकिन उनके इस लगाव को प्रायः हंसी-मजाक तक ही चर्चा का विषय बनाए रखा जाता है। सुषमा मुनीन्द्र एक संवेदनशील कथाकार हैं अतः उन्होंने इस विषय को अपनी कहानी के कथानक के रूप में चुना और इस तरह वर्णित किया कि कहानी पढ़ते समय बृहस्पति मामा का व्यक्तित्व पाठक के सामने आ खड़ा होता है। कहानी रोचक बन पड़ी है।
दूसरी कहानी है ‘‘फण्डा यह है कि...’’ जनेरेशन गैप पर आधारित है। युवा हमेशा यही मानते हैं कि वे जो कुछ जानते हैं, उनके बड़े उसे समझ ही नहीं सकते हैं। जो बड़े हैं उनका भी यही मानना होता है कि छोटो में अभी सब कुछ समझने की समझ नहीं है। आज की युवा पीढ़ी अपने आपको बौद्धिक साबित करने के लिए जिन तीन शब्दों का सहारा लेती है वे हैं ‘‘इन्नोवेशन, वेरिएशन और समथिंग डिफरेंट’’। लेखिका ने इन तीनों शब्दों में उलझे युवाओं एवं उनसे बड़ी पीढ़ी के द्वंद्व को बड़ी बारीकी से रेखांकित किया है। उन्होंने इस बात को भी सामने रखा है कि जब युवा अपने इन तीन शब्दों को व्याख्यायित नहीं कर पाते हैं तो ‘‘फण्डा यह है’’ कह कर अपने ज्ञान का लोहा मनवाने का प्रयास करते हैं। कहानी में पीढ़ी के अंतराल को वर्तमान परिदृश्य पर परखा गया है।
‘‘गुस्ताख़ी माफ़’’ कहानी पारिवारिक परिवेश की है जिसमें तीन पीढ़ियों के अंतःसंबंधों को सामने रखते हुए परस्पर अपेक्षाओं की विवेचना की गई है। इस कहानी में बघेलखंड के पारिवारिक परिदृश्य की छाप यत्र-तत्र देखी जा सकती है। ‘‘दिद्दा’’ जैसे संबोधन मधुरतापूर्वक क्षेत्रीय बोध लिए हुए हैं। 
‘‘हांका’’ कहानी का कथानक वह है जो लगभग आए दिन हमारी चेतना से हो कर गुज़रता है। अकसर हम सभी सुनते हैं कि फलां व्यक्ति ने अपनी गाड़ी से किसी को ‘ठोंक’ दिया और अपनी करतूत का दोष अपने चालक के सिर मढ़ दिया। सभी इस सच्चाई से अवगत रहते हैं किन्तु जब ग़रीबी का मारा चालक स्वयं अपने सिर अपराध ओढ़ने को तैयार हो जाता है तो कोई और भला क्या कर सकता है। लेकिन यह कहानी उस बिन्दु को टटोलती है कि वह कौन सी विवशता है जो चालक द्वारा अपराधी न होते हुए भी खुद को अपराधी ठहराना मंजूर कर लेती है। लेखिका ने उस विवशता को ‘‘हांका’’ कहा है। जैसे वन्यपशु का शिकार करने के लिए चारो ओर से शोर कर के एक निश्चित जगह पर लेजाने के लिए हांका लगाया जाता था और हांके से विवश पशु उस निशाने या जाल की मुड़ कर उसमें जकड़ में आ जाता था, ठीक इसी प्रकार गरीब चालक को उसके परिवार के सुखों का हांका दे कर आसानी से फंसने को विवश कर दिया जाता है। यह कहानी ऐसे लोगों से आत्मावलोकन का आह्वान करती है जो दूसरों की विवशता का लाभ उठाना अपना अधिकार समझते हैं। 
‘‘करसरा की काजल का कजेला कसकता है’’ एक चुलबुली कहानी है। पूरी कहानी एक बस यात्रा में एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक की है। एक ग्रामीण युवती जो आरंभ में शर्मिली और झिझक भरी प्रतीत होती है, जब अपने मोबाईल फोन पर बातें करना शुरू करती है तो उसके नाम से ले कर उसके व्यक्तित्व तक का परिचय स्वतः मिल जाता है। इस कहानी का शिल्प पाठक को बांधे रखने वाला है। कहानी जहां समाप्त होती है वहां पहुंच कर ऐसा लगता है कि काश! यह यात्रा अभी और चलती तथा ‘‘करसरा की काजल’’ की दिलचस्प बातों का सिलसिला जारी रहता है। यही इस कहानी की सफलता है।
‘‘खाओ और खाने दो’’ तथा ‘‘कुछ रिश्ते महज रिश्ते नहीं होते’’ परस्पर भिन्न कथानक की कहानियां हैं। ‘‘खाओ और खाने दो’’ रेल यात्रा कर रहे एक वृद्ध और एक युवा की कहानी है जो संयोग से एक ही रेल में सफर कर रहे हैं। वृद्ध युवा से परिचय करता है और फिर उसे जीवन में खाद्य वस्तुओं का महत्व समझाता है। आरंभ में युवा झिझकता है। शंकित भी होता है कि कहीं ज़हरखुरानी का मामला न बन जाए, लेकिन जल्दी ही उसे वृद्ध की वास्तविकता का भान हो जाता है। वह युवक समझ जाता है कि वह वृद्ध व्यक्ति भोजन के प्रति युवाओं के लापरवाह रवैये से चिंतित है। उसे भी वृद्ध द्वारा बताए जाने वाले टिप्स महत्वपूर्ण लगने लगते हैं और उसे जीवन में स्फूर्ति बनाए रखने के लिए भोजन, नाश्ते आदि के महत्व का अहसास हो जाता है। ‘‘कुछ रिश्ते महज रिश्ते नहीं होते’’ कहानी भावनाओं के उतार-चढ़ाव और झंझावात के कथानक पर बुनी गई है। नौवीं उत्तीर्ण बालिका के गर्भवती होने की खबर सभी को झकझोरती है। सम्पत नाम की वह लड़की ‘‘हर साल अच्छे नंबरों में पास करा देने वाले’’ शिक्षक के हाथों छली गई थी अथवा सच्चाई कुछ और थी? एक द्वंद्व देर तक मथता रहता है। अपने सच के साथ अडिग खड़ी रहने वाली सम्पत के प्रति सहानुभूति जागती है। यह लंबी कहानी उन रिश्तों की व्याख्या करती है जिनमें मनुष्यता के कई सबक मौजूद होते हैं।
‘‘परावर्तन’’ कहानी एक ऐसे युवक की कहानी है जो आधुनिक जीवनशैली में लिप्त माता-पिता द्वारा अवहेलना का शिकार होता रहता है और धीरे-धीरे गलत संगत में पड़ कर अपराध में प्रवृत्त हो जाता है। लेखिका ने कहानी का आरंभ उस बहुप्रचलित कथा के सारांश से किया है जिसमें एक चोर युवक अपने अपराध की सजा अपनी मां को देने के लिए कहता है क्योंकि मां ने उसे बचपन में चोरी करने से नहीं रोका था। यह कहानी भी उसी अंत की ओर बढ़ती है जब युवक को उसके अपराध की सजा दी जा रही होती है और वह मां को दोषी ठहराता है। यहां कहानी के अंत में एक बात खटकती है कि लेखिका ने संभवत उस बहुप्रचलित कथा से प्रेरित हो कर मात्र मां को दोषी ठहरा दिया जबकि उस मूल कथा में केवल मां ने ही अपने बेटे को पाला था अतः उसे दोषी ठहराया जाता उचित था किन्तु इस कथानक में मां और पिता दोनों अपने दायित्व की अवहेलना के लिए बराबरी से जिम्मेदार हैं अतः मां के साथ पिता को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए था। 
‘‘प्रत्यारोपण’’ कहानी का प्रथम वाक्य कहानी का सबसे मूल सूत्र है। इसमें लेखिका ने लिखा है कि -‘‘क्या कोई मानेगा सपने का प्रत्यारोपण ऐसी घरेलू हिंसा है जिसकी खबर न समाज को होती है, न कानून को? पर यह हर कोई मानेगा अधिकांश पिता अपने सपने का प्रत्यारोपण अपने पुत्र पर करना चाहते हैं और करते हैं।’’ वस्तुतः यही होता आया है हर समय, हर समाज में। पिता जो स्वयं होता है वही अपने पुत्र को बनाना चाहता है, भले ही उसका पुत्र कुछ और बनना चाहता हो। या फिर इससे इतर पिता जो स्वयं नहीं बन सका उसे पुत्र को बनता देख कर तुष्ट होना चाहता है भले ही पुत्र अपने पिता की आकांक्षा के अनुरुप न जीना चाहता हो। हर पुत्र का अपना व्यक्तित्व, अपनी आकांक्षाएं होती हैं किन्तु लगभग हर पिता को इससे कोई सरोकार नहीं होता है। वह अपने सपनों को अपने पुत्र में साकार होते देखने के लिए हर तरह से दबाव बनाता है। यह कहानी पारिवारिक मुद्दे का सार्थक विवेचन करती है।
संग्रह की अंतिम दो कहानियां हैं ‘‘रात्रिकालीन यात्रा का सहयात्री’’ और ‘‘शुभ सात कदम’’। ‘‘रात्रिकालीन यात्रा का सहयात्री’’ एक युवती के रेल के प्रथम श्रेणी कूपे में एक अनजान सहयात्री के साथ रात्रिकालीन यात्रा की कथा है। युवती के मन में सहयात्री को ले कर तरह-तरह से संशय करना स्वाभाविक है। वर्तमान वातावरण में सबसे पहले तो सहयात्री की नीयत को ले कर संदेह जागता है। फिर यदि वह कुछ खाने-पीने का निवेदन करे तो ज़हरखुरानी का संदेह अंगड़ाई लेने लगता है। इन सबसे पार होने के बाद ही सहयात्री के वास्तविक चरित्र का भान हो पाता है। लेखिका ने युवती के अंतद्र्वन्द्व को बखूबी चित्रित किया है। ‘‘शुभ सात कदम’’ कहानी में पति-पत्नी के बीच एक छोटे से संदेह ने उन्हें अलगाव तक की दहलीज पर पहुंचा दिया। फिर पति को अहसास होता है कि पत्नी के बिना उसका काम नहीं चल सकता है और साथ ही उसका मन स्वीकार करता है कि उसने बिना जाने-समझे बात का बतंगड़ बना दिया। इस सारी समझ के बावजूद कई बार पौरुषेय अभिमान झुकने को तैयार नहीं होता है और मामला बिगड़ता चला जाता है। किन्तु इस कहानी में लेखिका ने सामंजस्य का मार्ग सुझाया है। यह एक स्वस्थ परिवार विमर्श की कहानी है। 
संग्रह की सभी कहानियां शिल्प और भाषा की दृष्टि से रोचक हैं। पठनीय हैं। इन सभी कहानियों में वे कथानक हैं जो हमारे आसपास हैं। इन कहानियों से हो कर गुज़रना परिवार और समाज के विविधता भरे संबंधों से हो कर गुजरने के समान है। लेखिका ने इस संग्रह की कहानियों के द्वारा अपनी लेखकीय क्षमता को एक बार फिर सिद्ध कर दिया है।               
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