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My Editorials - Dr Sharad Singh

Friday, September 6, 2024

शून्यकाल | हर दिन प्रासंगिक हैं मानवता के पैरोकार डॉ. राधाकृष्णन के विचार | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम -                      शून्यकाल
हर दिन प्रासंगिक हैं मानवता के पैरोकार डॉ. राधाकृष्णन के विचार
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
      देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन देश शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है। शिक्षा के व्यावसायीकरण के दौर में आज भी प्रासंगिक हैं उनके विचार, अपितु हर दिन प्रासंगिक हैं। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि डॉ. राधाकृष्णन के विचारों में वह क्षमता मौजूद है जो अनेक वर्तमान समस्याओं का हल सुझा सकती है। आवश्कता है तो ‘शिक्षक दिवस’ को एक दिवसीय आयोजन के रूप में मनाने के बजाए डॉ. राधाकृष्णन के विचारों को समझने की और 365 दिन के लिए जीवन में उतारने की।
        ‘‘मानव को एक होना चाहिए।’’ यह कथन ह प्रबंधन की बात करते हैं तो हमें विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबन्धन करना चाहिए। वह शिक्षा दोषपूर्ण है जो जाति, धर्म, समुदाय अथवा लिंगभेद का पाठ पढ़ाती हो। वह शिक्षक अपराधी है जो विद्यार्थियों की कोरी स्लेट के समान मस्तिष्क में भेद-भाव की इबारत लिखते हैं। शिक्षा और शिक्षक को हमेशा तर्क की कसौटी अपने पास रखते हुए बिना किसी भेद-भाव के एकता मानव एकता की शिक्षा देना चाहिए।

आज हम हर चार कदम पर एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल, हर दो कदम पर एक कोचिंग सेंटर देखते हैं फिर भी हमें शैक्षिक उन्नति का वह स्वरूप दिखाई नहीं देता है जो वास्तव में दिखाई देना चाहिए। ऐसा लगता है कि शिक्षातंत्र कहीं भटक गया है। विद्यार्थी शिक्षित तो हो रहे हैं किन्तु एक ओर बेरोजगारी बढ़ रही है तो दूसरी ओर असंवेदनशीलता बढ़ रही है। माता-पिता और अपने शिक्षकों के प्रति विद्यार्थियों में वह सम्मान की भावना दिखाई नहीं देती है जो कुछ दशक पहले तक देखी जा सकती थी। इसका सबसे सीधा उत्तर है कि शिक्षा में व्यावसायिकता बढ़ गई है। व्यापमं घोटाला जैसी घटनाएं शिक्षा के वर्तमान प्रबंधन पर प्रश्नचिन्ह लगाती रहती हैं। ऐसे में यह कहना कठिन है कि शिक्षाजगत में सबकुछ ठीक है। शिक्षा क्षेत्र के दोषों को दूर करने के लिए डॉ राधाकृष्णन ने सुझाव दिया था कि जब भी शिक्षा के प्रबंधन पर चिन्तन किया जाए, शिक्षा को और अधिक उपयोगी बनाने पर मनन किया जाए तो सबसे पहले शैक्षिक प्रबंधन में यूनीफिकेशन पर बल देना चाहिए। कश्मीर से कन्याकुमारी तक शिक्षा का स्वरूप एक जैसा होगा तभी पारस्परिक संवाद बढ़ेगा और लोग एक-दूसरे की समस्याओं को समझ सकेंगे।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन मानते थे कि यह सम्पूर्ण विश्व एक विश्वविद्यालय की तरह है जिसमें सभी को नित सीखते और सिखाते रहना पड़ता है। वे शिक्षा को सबसे बड़ी मानवीय शक्ति के रूप में देखते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है, शिक्षा ही वह क्षमता है जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से श्रेष्टतम साबित करती है। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था- “मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति होना चाहिए और यह तभी सम्भव है जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शान्ति की स्थापना का प्रयत्न हो।''
         दक्षिण मद्रास में लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तिरुतनी नामक छोटे से कस्बे में 5 सितंबर सन् 1888 को सर्वपल्ली वीरास्वामी के घर जन्मे डॉ. राधाकृष्णन का विवाह तत्कालीन रीतिरिवाज़ के अनुसार बहुत छोटी आयु में ही कर दिया गया था। उनके पिता वीरास्वामी जमींदार की कोर्ट में एक अधीनस्थ राजस्व अधिकारी थे। डॉ राधाकृष्णन को अपनी बाल्यावस्था से ही पढ़ाई में अगाध रूचि थी। उनकी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा तिरूतनी हाईस्कूल बोर्ड व तिरुपति के हर्मेसबर्ग इवंजेलिकल लूथरन मिशन स्कूल में हुई। उन्होंने मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद येल्लोर के बोरी कालेज में प्रवेश लिया और यहां पर उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली। सन् 1904 में विशेष योग्यता के साथ प्रथमकला परीक्षा उत्तीर्ण की तथा तत्कालीन मद्रास के क्रिश्चियन कालेज में 1905 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने केलिए उन्हें छात्रवृत्ति दी गयी। उच्च अध्ययन के लिए उन्होनें दर्शन शास्त्र को अपना विषय बनाया। इस विषय के अध्ययन से उन्हें समूचे विश्व में ख्याति मिली। एम.ए. की उपाधि प्राप्त करने के बाद 1909 में एक कालेज में अध्यापक नियुक्त हुए और प्रगति के पथ पर निरंतर बढ़ते चले गए। उन्होंने मैसूर तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया।

डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय धर्मदर्शन एवं शिक्षा के अंतर्सम्बंधों की नए ढंग से व्याख्या की। ’द एथिक्स ऑफ वेदांत’ नामक अपने शोधग्रंथ में उन्होंने लेख किया कि -‘‘ जो गांवों में रहते हैं, गरीब हैं और अपने धार्मिक रीतरिवाजों, संस्कारों एवं परम्पराओं में बंधे हुए हैं वे जीवन को अपेक्षाकृत अधिक अच्छे से समझते हैं। क्यों कि उन्हें जीवन के व्यावहार से ज्ञान की प्राप्ति होती है। वे प्रकृति और क्रियाशीलता के अधिक निकट होते हैं। यही तो शिक्षा है वेदांत की। वेद, पुराण, दर्शन आदि सभी ग्रंथ यही कहते हैं कि देखो, समझो और सीखो।
’द एथिक्स ऑफ वेदांत’ शोधग्रंथ में जहां उन्होंने दार्शनिक चीजों को सरल ढंग से समझने की का रास्ता सुझाया वहीं इसमें उन्होंने हिंदू धर्म की कमजोरियों का भी उल्लेख किया। उनका कहना था, “हिदू वेदांत वर्तमान शताब्दी के लिए उपयुक्त दर्शन उपलब्ध कराने की क्षमता रखता है। जिससे जीवन सार्थक व सुखमय बन सकता है। सन् 1910 में सैदायेट प्रशिक्षण कालेज में विद्यार्थियों को 12 व्याख्यान दिए। उन्होंने मनोविज्ञान के अनिवार्य तत्व पर पुस्तक लिखी जो कि 1912 में प्रकाशित हुई। वह विश्व को दिखाना चाहते थे कि मानवता के समक्ष सार्वभौम एकता प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन भारतीय धर्म दर्शन है।“
जहां तक दर्शन का प्रश्न है तो डॉ. राधाकृष्णन का दर्शन प्रत्ययवादी कहा जा सकता है। वे शंकर के अद्वैतवाद से अत्यंत प्रभावित थे। उन्होंने शंकर के अद्वैतवेदान्त की व्याख्या की जिसे ‘नववेदान्त’ के यप् में स्वीकार किया गया। डॉ. राधाकृष्णन ने पश्चिमी विचारकों की चुनौती को स्वीकार करते हुए सिद्ध किया कि हिन्दू धर्म शुद्ध अध्यात्मवाद होते हुए भी जीवन और जगत की सत्यता का सच्चा उद्घोष करता है। अनेक पश्चिमी विद्वानों ने डॉ राधाकृष्णन के दर्शन की व्याख्या की है। ब्रिटिश फिलॉसफर प्रोफ़ेसर सी.ई.एम. जोड ने उनके दर्शन पर ’‘काउंटर अटैक फ्रॉम दि ईस्ट : द फिलॉसफी ऑफ राधाकृष्णन’’ नामक ग्रंथ लिखा। जर्मनी में जन्मे और सन् 1952 में नोबल प्राईज़ के विजेता रहे अलबर्ट स्वाइत्ज़र ने डॉ. राधाकृष्णन के दर्शन में नव हिन्दू धर्म का प्रवर्तन देखा और उसको जीवन तथा जगत की सत्ता का प्रतिपादन करने वाला दर्शन माना। विदेशी विचारकों का डॉ. राधाकृष्णन के दर्शन और चिनतन के प्रति रुझान इसलिए भी था क्यों कि डॉ. राधाकृष्णन ने धर्मदर्शन को रुढ़िवादी दृष्टिकोण से बाहर निकाल कर विश्लेक्षणात्मक पद्धति से व्याख्यायित किया। उन्होंने अपनी धर्म मीमांसा में धर्ममीमांसा की आलोचना करने वाले सन्तों, सूफ़ियों और रहस्यवादियों को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। धर्म की महत्ता को स्थापित करते हुए डॉ. राधाकृष्णन ने विज्ञान की प्रगति को भी आवश्क माना। उनका कहना था कि ‘‘धर्म, चिन्तन और जीवन-ये तीनों विज्ञान के जल से सिंचित हो कर और अधिक पल्लवित हो सकते हैं।’’ यद्यपि वे मानते थे कि धर्म और विज्ञान दोनों का ही वर्तमान स्वरूप दोषपूर्ण है और इन दोनों का परिष्कार होना जरूरी है।

‘शिक्षक दिवस’ मनाते हुए इसे एक महज औपचारिक प्रक्रिया जैसे अपनाने के बजाए यदि डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के विचारों एवं दर्शन को अपनाया जाए तो आपसी कटुता, आतंकवाद, मॉबलिंचिंग, हर तरह के भेदभाव की समस्या से निजात पाया जा सकता है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के विचार आज भी प्रासंगिक हैं।
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